पर्यावरण

हिमालय से हम हैं और हमारे लिए हिमालय

हिमालय अमर नहीं है. गोंडवानालैंड के जमाने में ये था ही नहीं. गोंडवानालैंड के एक हिस्से के छिटक कर एशियाखंड से मिलने या टकराने से अस्तित्व में आया था हमारा हिमालय. पर्वत श्रृंखलाओं की बिरादरी का सबसे लाड़ला, सबसे छोटा भाई है ये जिसने आसमान की सबसे क़रीबी ऊँचाई हासिल की है.
(Himalaya Day 2020)

महाकवि कालीदास ने जब हिमालय श्रृंखला के दर्शन किए तो इसे पृथ्वी के मानदण्ड की उपमा दी थी. एक ऐसा उपकरण जिससे न सिर्फ पृथ्वी के भौगोलिक विस्तार का अनुमान किया जा सकता है बल्कि इसकी सेहत वाली नब्ज़ को भी नापा जा सकता है.

भारत के लिए तो हिमालय इससे बढ़कर भी बहुत कुछ है. समृद्ध हरीतिमा, सुखद जलवायु, सदानीरा नदियां और निशुल्क व विश्वसनीय प्रहरी.

हिमालय से हम हैं और हमारे लिए हिमालय. एक-दूसरे की सेहत का ध्यान रखने में ही सबका कल्याण निहित है. जिस छोर से हिमालय दिखता नहीं है वहां की गतिविधियां भी इसे प्रभावित करती हैं. हिमालय धरती का उभरा हिस्सा मात्र नहीं. ये वरदायी मुद्रा में खड़ा प्रत्यक्ष देवता है. इसे न सिर्फ नमन करें, इस पर मनन भी करें. हिमालय को महत्वाकांक्षा और दोहन का आलय न बनने दें, इसे हिम का आलय ही रहने दें.
(Himalaya Day 2020)

प्रख्यात साहित्यकार-संपादक धर्मवीर भारती जी के निबंध ठेले पर हिमालय से प्रेरित भले ही लगे पर यकीन मानिए सूझा ये शीर्षक एक ठेके पर ही था. किसी ठेके की लाइन को गौर से देखिए. कैसे समाधिस्थ भाव से खड़े चरणामृत की प्रतीक्षारत रहते हैं भगत लोग. खिड़की के अंदर मानो कैलास में बूटी बांटते कोई बाबा बैठे हों. बताना कठिन है कि पहले हिमालय पर ठेका खुला या हिमालय का ठेका हुआ. हां इतना कह सकते हैं कि लूटने का ठेका सबसे पहले हुआ. अब छुरी खीरे पे गिरे या खीरा छुरी पर, कटना खीरे को ही है.

ठेके पर हिमालय अर्थात हर उस चीज का ठेका जिसका वजूद हिमालय से हो. पानी हो, हवा हो, रेत-पत्थर हो, जंगल हो, बिजली हो, जमीन हो या फिर पर्यावरण. लेटेस्ट वर्जन कायदे-कानून बनाने वाले ठेकेदार है. मंत्रालय आबंटन की खबर दिखाते हुए कई बार टीवी एंकर की जबान भी लड़खड़ा जाती है. हम बता रहे हैं, सबसे पहले, सबसे सटीक, किसको मिलेगा किस विभाग का ठेका.

हिमालय में पहले न कोई मैरिज ब्यूरो हुआ करता था न पशु मेला. गळदार, इन सबका लोकल सॉल्यूशन हुआ करता था. बदलते वक्त के साथ दुर्लभ इनका अक़्स कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं में दिख जाता है. साक्षर हुआ तो गाड़ी पर प्रेस भी लिख देता है.

हद तो ये है कि ठेके दिलाने का भी ठेका होने लगा है. तेरे बाप का नौकर नहीं हूँ, जुमला बदल कर अब सरकारी कर्मचारी अकड़ कर कहता है, सरकारी हूँ, ठेके का नौकर नहीं. एक पहाड़ी बेरोजगार को तराई में स्थित कार्यालय में, यह पूछने पर कि ठेके वाली नौकरी का ऑफिस यही है, बॉस ने अंग्रेजी में झाड़ दिया – व्हट डू यू मीन बाइ ठेका. दिस इज फुल्ली लीगल ऑफिस ऑफ एन आउटसोर्सिंग फर्म. लाचार युवक बोला, भैसाब सोर्स ही होता तो इस उमर तक रोजगार से आउट रहता. पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप की जुगलबंदी वाली ठेके की एक नई ब्रीड भी आयी है. एक पियक्कड़ ने इस पर कमेंट किया कि, ये तो ऐसा मयखाना है जनाब , जहाँ यही पता नहीं चलता कि कौन पिला रहा है, किसे पिला रहा है और किसे नशा हो रहा है.
(Himalaya Day 2020)

सृजनात्मक लोग किसी दिन ठेकों पर भी लिख सकते हैं कि यहाँ सिर्फ शराब बिकती है ईमान नहीं. ठेके पर हिमालय है. हिमालय कराह रहा है. ठेके से मुक्ति चाहता है. ठेकेदारी प्रथा से मुक्त किसी अखबार में विज्ञप्ति देना चाहता है. दो पंक्तियों में.

हिमालयवासियो अभी भी वक्त है, मुझे ठेके से मुक्त करो. कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे पास सिर्फ ठेके रह जाएं और बर्फ सिर्फ जाम में गिरे.
(Himalaya Day 2020)

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. .

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