दिल्ली, मुम्बई, हल्द्वानी देहरादून और न जाने कितने महानगरों और बड़े नगरों में गर्मियों की छुट्टी खत्म होने को है. इन शहरों में स्कूलों की छुट्टी खत्म होने की वजह से महीने भर से बच्चों की आवाज से खिले हुये पहाड़ों के अधिकांश घर अब एकबार फिर से सूने हो जायेंगे, रह जायेगे कुछ बूढ़े या गांव के सबसे मजबूर. (Hill Villages Would be Deserted Again )
खुले गांव से किसी कस्बे, कस्बे से फिर किसी नगर, नगर से किसी बड़े नगर, बड़े नगर फिर किसी महानगर के किसी कोने में अपने बच्चों समेत लाखों पहाड़ी यात्रा पर हैं. गांव के शांत वातावरण को छोड़ शहर की भीड़ के कोलाहल को अपनी नियति मान चुके इस पहाड़ी समुदाय को अपनी इस यात्रा के हर हिस्से में भीड़ मिलेगी. (Hill Villages Would be Deserted Again)
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फिर वो पिथौरागढ़ का रहने वाला हो या उत्तरकाशी का. भोर होते ही गांव से पहले या तो किसी छोटी गाड़ी में ठूसा हुआ या लम्बे पैदल रास्ते के बाद कस्बे में जायेगा. वहां से शहरों को जाने वाली बसों में भीड़ का हिस्सा बन जायेगा या कोई टैक्सी वाला किराये से उसे नोच भगायेगा.
उसके साथ होंगे उसके बच्चे, पत्नी और मां-बाप के प्यार से भरे कुछ झोले. इन झोलों में मां-बाप अपने बच्चों के लिए उनके गांव का पूरा संसार समेटने की पूरी कोशिश करते हैं. थोड़ा भट्ट थोड़ा मडवे का आटा, थोड़ा चावल का आटा, थोड़े मसूर थोड़ा गहत, एक बोतल घी और जो हो सका वो सब.
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एक उम्र तक के बच्चे बार-बार बूढ़े आमा-बुबू को साथ ले जाने की जिद भी करेंगे पर उम्र बाद बच्चे समझ जाते हैं कि ऐसा संभव नहीं है न उनके पिता के लिये न उनके पिता के पिता के लिये.
पहाड़ की ठंडी हवा को अलविदा कहकर ये अपने आने वाले एक साल के लिए कैद हो जायेंगे किसी बड़े शहर या महानगर में. हल्द्वानी का चुरैन बस अड्डा, देहरादून का बदबूदार आईएसबीटी, दिल्ली का पान की पीक से पटा आनन्द विहार और न जाने किस शहर का कौन सा स्टेशन इंतजार में है.
-गिरीश लोहनी
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क्या लिखे हो जनाब, एकदम सत्य। लेकिन मजबूरी को कोई नहीं जानता। मेरे ख्याल से शायद कोई भी अपना घर अपने बुजुर्गों को छोड़ कर नहीं जाना चाहता। लेकिन इंसान की मजबूरी उससे क्या क्या कराती है। सबको गांव में रोज़गार भी तो नहीं मिलता।