(पिछले हिस्से: खटारा मारुति में पूना से बागेश्वर -1, खटारा मारुति में पूना से बागेश्वर -2)
गाड़ी सड़क से उतार कर कच्चे में खड़ी की. लगा कि शायद गरम होने से बन्द हो गई. काफ़ी देर बोनट खोलकर इन्तज़ार करते रहे फिर केशव ने अपनी सीमित जानकारी के मुताबिक कुछ खचर-बचर की. कोई नतीज़ा नहीं. वीरान सा इलाका. ट्रक वालों का जो ढाबा मृगतृष्णा सा पास नज़र तो आ रहा , एक सवा किलोमीटर पीछे रह गया था. गाड़ी को हल्की ढलान के बावजूद ढाबे तक ले जा पाना मुमकिन न था. गाड़ी को धकेलते हुए सड़क क्रॉस करते हुए सेकेंड के हज़ारवें हिस्से में हमारी चटनी बन सकती थी या ट्रक पलट सकता था. इत्तेफ़ाक़न वहीं पर सड़क में मोड़ था, जिसके उस पार कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था जिस कारण दुर्घटना की संभावना और भी ज़्यादा थी. थक हार कर ढाबे में जाकर पूछा तो पता चला कि जिधर से हम आ रहे हैं उसी तरफ़ कुछ किलोमीटर पर मैकेनिक मिलेगा. केशव ने बिना बॉडी वाले एक दैत्याकार ट्रक में लिफ़्ट ली और मैकेनिक बुलाने चला गया.
रज्जन बाबू और मैं वहीं बैठे रह गए. एक टहनीनुमा जो पेड़ था, उसकी छाया के साथ-साथ सरकते रहे और ट्रकों में लदा लाखों-करोड़ों का माल-असबाब इधर से उधर होते देखते रहे. दूर जो ढाबा था वह मुझे बार-बार इशारा कर रहा था. हमारे पास 24-25 साल का एक नौजवान हाथ में नुकीला हंसिया लिए आन बैठा. वह बताने लगा कि हमारा गांव उस तरफ़ है ऊपर वहां. वह घर में कपड़े सीने का काम करता था. शादी उसकी अभी नहीं हुई थी. घास काटने आया था. नाम उसने कुछ बताया था अपना. बताने लगा कि हमारे बाबा जब कोई मोटर इसी तरह ख़राब हो जाती थी तो रात भर उसकी रखवाली करते थे, सौ-पचास रुपये लेते थे. काफ़ी देर हम उससे बतियाते रहे – खेती-बाड़ी, गाय-भैंस, न जाने क्या-क्या. ढाबे का बुलावा अनसुना करना अब मुमकिन नहीं रह गया था. मजबूरन गाड़ी बन्द की और जाकर चाय पी आए.
दो-ढाई घन्टे बीत चुके थे केशव को गए. हमें फ़िक्र होने लगी. फ़ोन किया तो पता चला मैकेनिक मिल गया है, आ रहे हैं. धीरे-धीरे शाम घिरने लगी, अंधेरा गाढ़ा होता जा रहा था. मोटर गाड़ियों ने बत्तियां जला ली थीं. केशव जिधर गया था उस ओर से आने वाली हर गाड़ी को हम बड़ी उम्मीद से देख रहे थे. बड़ी देर बाद एक मारुति वैन हमारे पास आकर रुकी जिसमें से केशव और दो मैकेनिक बाहर निकले. मैकेनिकों ने पहले वैन के अन्दर ही रोज़ा खोला. गाड़ी को देखकर उन्होंने बीमारी बताई कि इसका फ़लां पुर्ज़ा जल गया है और पंखे में गड़बड़ी है. पुर्ज़ा हम बदल देते हैं, पंखे को सीधा बैटरी से जोड़ देते हैं. जब रुके तो इसे डिसकनेक्ट कर दें. बाकी सब खैरियत है. वैसे हम दुकान से बाहर जाते नहीं मगर आप परदेसी आदमी हैं … रोग की पहचान और निदान में एक डेढ़ घन्टा और बीत गया. सात-आठ सौ रुपयों का बिल बना. आशीर्वादनुमा आश्वासन मिला कि भाईसाहब जहां तक मर्ज़ी हो जाएं, कोई दिक्कत नहीं होगी. यकीन न हो तो हम साथ चलें.
पांच-छः घन्टों के बाद फिर चल पड़े. अब सामना था गड्ढों भरी सड़क, दनदनाते फिरते ट्रकों और धुंध की तरह छाई धूल से. यह सब दिन में भी था मगर रात में ज़्यादा डरावना और परेशानी पैदा करने वाला होता है. ज़्यादातर ट्रकवाले सिर्फ़ एक हैडलाइट जला कर क्यों चल रहे थे न जाने! कन्डक्टर की तरफ़ वाली हैडलाइट जली होने और धूल की वजह से दूर से भारी-भरकम ट्रक किसी दुपहिये का धोखा दे रहा था -मतलब कि भिड़ंत की पूरी संभावना और उस पर तुर्रा ये कि सामने वाले की आंखें चुंधियाने से बचाने के लिए जो ज़रा रोशनी हल्की करने का नियम है उसका मानो किसी को पता ही नहीं. न चाहने के बावजूद जब भी रात का सफ़र करना पड़ा, एक दो ने ही इस नियम का पालन किया, बाकी के सब समरथ को नहिं दोष गुसांईं माननेवाले थे.
दर्ज़न भर पहियों वाले ट्रकों की रेलमपेल में मारुति 800 कार की औकात हाथियों की भगदड़ में फंसे मॆंढक जितनी ही समझिये. ऐसे में अगर वह मेंढक सही सलामत अपने बिल में पहुंच जाए तो कहने वाले इसे भाग्य या संयोग कहेंगे, मैं बेहयाई कहना चाहूंगा. हम भी हयादार कहां थे.
दो-एक घंटे चलने के बाद तय हुआ कि अब और चलना ठीक नहीं गाड़ी एकाध बार संकेत भी दे चुकी थी कि तबीयत उसकी बहुत अच्छी नहीं. आगे न जाने कैसी जगह हो, कहां फंस जाएं. कहीं पर ठीकठाक सी जगह देख कर रुक लिया जाए. एक कस्बेनुमा जगह में वह रात बीती. उस जगह का नाम हम तीनों में से किसी को याद नहीं. हां गेस्टहाउस का नाम ज़रूर याद है क्योंकि जब बागेश्वर केशव के पास जाना हुआ, कई बार उसी नाम के गेस्टहाउस में रुके – नीलकंठ गेस्ट हाउस. जैसा कि पहले बताया वह दशहरे यानी त्यौहार मतलब छुट्टी का दिन था. शायद इसीलिए गेस्टहाउस वीरान पड़ा था. मात्र एक आदमी बैरा, मैनेजर, गाइड, स्वच्छक वगैरग के रोल निभा रहा था. वह नौजवान इस कदर सीधा/ उल्लू का पट्ठानुमा था कि लगता था बाकी स्टाफ़ ने त्यौहार के दिन ड्यूटी करने के लिए उसे बलि का बकरा बनाया गया होगा.
रज्जन बाबू के साथ जाकर वह बाहर से खाना पैक करा लाया. हमने कहा कि भय्याजी कमरे में केबिल तो है पर टीवी नहीं, तो वह जाकर टीवी उठा लाया. स्टार मूवीज़ में टाइटैनिक फ़िल्म चल रही थी. रज्जन बाबू ने बताया कि जब वे लोग खाना लाने बाहर गए तो भय्याजी ने कहा कि भय्याजी आपको दशहरे की बधाई. आपने घर फ़ोन करके बधाई कह दिया होगा. रज्जन बाबू ने उसका दिल रखने को कह दिया कि हां मैंने सुबह ही फ़ोन कर दिया था. उस आदमी का बोलना कुछ ऐसा था जैसे गुनाह करके माफ़ी मांगने आया हो. सोने से पहले हमने उससे कहा कि भय्याजी सुबह को जल्दी जगा देना और चाय पिलवा देना.
सुबह पांचेक बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई. मैंने उठकर दरवाज़ा खोला, भय्याजी चाय लाने चले गए. क़रीब दस मिनट बाद भय्याजी तम्बाकू की पिण्डी की तरह सुतली से बंधी तीन पुड़िया ले कर आए कि लीजिये भय्याजी नाश्ता कर लीजिये. पूड़ा लाया हूं, ताज़ा बन रहा था. पांच रुपये का एक है. मैंने तीनो पूड़े बैग में रख लिए ताकि उसे बुरा न लगे. इतनी सुबह कुछ भी खाने का मतलब ही नहीं था. पांचेक मिनट बाद भय्याजी फिर आकर बोले कि नाश्ता कर लिया? चाय वाले को मैंने बाहर बिठा रखा है ताकि आप आराम से नाश्ता कर लें. उसकी भलमनसाहत के कारण चाय थोड़ा ठण्डी हो गई थी. चलते वक़्त उन्होंने हमें फिर कभी ज़रूर आने को कहकर विदा किया.
उस दिन का सफ़र घंटों तक धूल और गड्ढोंभरी सड़क में किया. धूल की वजह से शीशे चढ़े ही रहे. गाड़ियों की रफ़्तार बैलगाड़ियों जितनी होकर रह गई.. मुश्किल से कई घंटों बाद पक्की सड़क के दर्शन हुए. गाड़ी ने ज़्यादा तंग नहीं किया, ठीकठाक चलती रही. दिन के एक-डेढ़ बजे किसी जगह खाने के लिए रुके. वह मध्य प्रदेश का कोई शहर या कस्बा था. किसी अच्छे से मोटर मैकेनिक के बारे में पूछने पर पता चला कि आगे फ़लां जगह पर एक पीटर भाई है. हमें उसी रास्ते होकर जाना था.एकाध घन्टे बाद पीटर भाई के पास पहुंच गए. दो-एक घन्टे पीटर भाई गाड़ी की मरम्मत करते रहे. रज्जन बाबू और मैं चाय पीते रहे. हमने वहीं से १०० ग्राम प्याज़ का बीज भी ख़रीदा, जो कि नासिक का बताया गया. हो सकता है हो, पर उसने अल्मोड़ा में अंकुर नहीं दिए. पीटर भाई ने बकौल उनके गाड़ी एकदम फ़िट बना दी थी. उन्होंने बताया कि आगे एक जगह पर उनके भाई का गैराज है, आप फ़ोन नम्बर नोट कर लें. वैसे कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी लेकिन फिर भी.
चले तो केशव ने कहा कि हां अब ठीक है, गाड़ी पहले से ठीक चल रही है. स्टेयरिंग भी एकदम हल्का हो गया है. पीटर भाई हमें जानकार आदमी लगे और भले भी. शायद उन्होंने हमें ठगा भी नहीं. मोटर ठीक चलती रही. मैंने डैशबोर्ड पर बैठे गणेशजी से दोस्ती गांठनी शुरू कर दी कि हे दुनिया के पहले स्टेनोग्राफ़र, बाधाए हरो, सफ़र को स्मूथली चलने दो. क्यों हमारी कुकुरगत्त करवा रहे हो. पता नहीं उन्होंने सुना नहीं, मूड में नहीं थे या बात उनके बस के बाहर की थी कि गाड़ी को फिर ज़ुकाम की शिकायत होने लगी. दो-एक जगह चल के रुकी, मगर आख़िरकार एक पुल के ऊपर रुक गई. धकेल कर उसे पुल पार करवाया, किनारे खड़ी की. अब इससे ज़्यादा भद्दा मज़ाक परिस्थिति किसी के साथ और क्या करेगी कि आप पुल के ऊपर ठप्प पड़ी मोटर के साथ हैं और नीचे जो नदी बह रही है उसका नाम घोड़ा पछाड़ नदी है.
पीटर भाई का भाई कहीं व्यस्त था और देर में आने को कह रहा था. एकाध किलोमीटर की दूरी पर एक अनजान सी बस्ती नज़र आ रही थी. वहां एक मैकेनिक मिल गया – राजू मैकेनिक. गाड़ी वहां पहुंचाई गई. आगरा पहुंचने का सपना धरा रह गया. रात वहीं गुज़री. रज्जन बाबू और मैं किसी सस्ते से होटल या धर्मशाला की तलाश में निकले. एक धर्मशाला का कमरा पसन्द कर लिया गया. वह जगह, अगर ठीक याद कर पा रहा हूं तो शायद पचौर कहलाती थी. पचौर से मुझे अपने एक मित्र पचौलिया की याद आई थी, याद है.
सुबह को फिर चले. केशव ने पैंट-कमीज़ त्याग कर ठेठ लफ़ंगों का सा वेश धारण कर लिया – घुटनों से ज़रा ऊपर तक का कच्छा और बंडी. गर्मी काफ़ी थी और बार-बार गाड़ी को प्राथमिक उपचार देने में कपड़े काले भी हो रहे थे. दिन भर चलते रहे. उस दिन गाड़ी ने ज़्यादा परेशान नहीं किया. जहां भी गाड़ी रुकी, तेल का पाइप चूसते ही चल पड़ी. मैकेनिक की शक्ल नहीं देखनी पड़ी. ग्वालियर होते हुए शाम को आगरा पहुंचे. किसी सस्ते से होटल की तलाश में घूम रहे थे कि एक होतल के बाहर गाड़ी रुक गई. तेल चूसने वाला फ़ॉर्मूला नाकाम रहा. गाड़ी ने ज़िद्दी बच्चों की तर्ह पैर पटक दिए कि नहीं, इसी होटल में रहना है. ज़िद के आगे हार माननी पड़ी और उसी समय पता चला कि एक टायर भी पंक्चर हो गया है. पूरे सफ़र में पंक्चर होने की एकमात्र घटना थी.
होटल के बाहर हम गाड़ी में खचर-बचर कर रहे थे तो काफ़ी देर से बारह-चौदह साल का एक बच्चा साइकिल के सहारे टिक कर हमें देखे जा रहा था. हमने सोचा बच्चा है, यूं ही देख रहा है, पर वह मोटर मैकेनिक निकला. फिर गाड़ी उसी ने ठीक की. मैकेनिक की शक्ल देखे बिना दिन नहीं बीतना था सो नहीं बीता.
गाड़ी ठीक होने में काफ़ी समय लगा. जिस होटल के बाहर गाड़ी रुकी थी, वहीं एक कमरा ले लिया गया. सबसे सस्ता कमरा लिया और रूखा-सूखा खाया. फिर भी खाने का बिल कमरे के किराये से ज़्यादा आया. पैसे जो हमारे पास थे, वे तेज़ी से बिला रहे थे. हर दस-पन्द्रह किलोमीटर पर एक मैकेनिक हमारे ही वास्ते तो दुकान खोले बैठा था. गाड़ी जो हमारे पास थी, उसका दिल कब किस मैकेनिक पर आ जाए, कहना मुश्किल था. अभी काफ़ी लम्बा सफ़र बाक़ी था. कम से कम हल्द्वानी जब तक न पहुंच जाएं, घर पहुंचने का अहसास कैसे हो! रज्जन बाबू के एटीएम कार्ड का भरोसा था जिसमें पैसे नहीं थे. मगर भरोसा था, फ़ोन करके किसी से खाते में पैसे डलवाए जा सकते थे.
पहले से ही तय था कि ताजमहल देखेंगे. आगरा जाने पर ताजमहल देखने का एक रिवाज़ सा है. हम तीनों में से किसी ने भी पहले ताजमहल नहीं देखा था. मुखे व्यक्तिगत तौर पर ताज के लिए बहुत उत्सुकता नहीं थी. फ़िल्मों और तस्वीरों में देखा ही था. लड़कियां धागे से ताजमहल बुनती ही रहती हैं. ताजमहल मतलब सफ़ेद संगमरमर से बनी एक भव्य कब्र जिसे एक मुग़ल बादशाह ने अपनी बेग़म की याद में तामीर कराया था. इसके अलावा और क्या? देखा तो ठीक, न देखा तो भी ठीक. मगर जब ताजमहल एकाएक सामने आया तो मैंने अपनी राय चुपके से बेहद शर्मिन्दगी और माफ़ी के साथ वापस ले ली. ताज के सामने खड़े हो कर पल भर को मेरी घिग्घी सी बंध गई. मुझे नहीं लगता कि ताजमहल के बारे में मैं अपनी भावनाएं ठीक-ठाक व्यक्त कर पाऊंगा. ताज बस देखने से ताल्लुक रखता है.
खयाल आया कि प्रेम का प्रतीक यह इमारत बादशाह के ख़ौफ़ या उसके प्रति वफ़ादारी के बिना ऐसी बन पाती जैसी कि बनी? दुनिया के सारे ही आश्चर्य शायद इसी भय और वफ़ादारी के गारे से चिने गए हैं. दूर मत जाइए, अंग्रेज़ों द्वारा बनाई गई इमारतों को देख लीजिए. मान लीजिए आज कोई ठेकेदार वैसा ठोस काम करना चाहे तो क्या विधायक, साम्सद, छुटभय्ये नेता और इंजीनियर साहेबान उसकी हौसलाअफ़ज़ाई करेंगे? माफ़ कीजिए चौथे स्तम्भ का नाम तो छूट ही गया. सुना है कि वह भी कमीसनखोरी पर उतर आया है. इन महानुभावों की अपनी इमारतें जितनी भव्य और ठोस होती हैं. इनके द्वारा करवाया गया सरकारी काम उतना ही घटिया और क्षणभंगुर होता है. क्योंकि भय किसी का जै नहीं और ईमानदारी, नैतिकता, वफ़ादारी नाम की चीज़ें हनीमून अलबम की तरह न जाने कहां, किस अलमारी में पड़ी हैं, याद नहीं.
याद आया कि बिल क्लिन्टन ने ताजमहल को देख कर कहा था कि दुनिया में दो तरह के लोग हैं – एक जिन्होंने ताजमहल देखा है, दूसरे जिन्होंने इसे नहीं देखा. दोमुंहा शायर ‘साहिर’ कहता है – एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल हम ग़रीबों का उड़ाया है मज़ाक और बनवा के हसीं ताजमहल सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है. न जाने किस ने ताज को मोहब्बत के रुख़सार पर अटका हुआ आंसू कहा है. हमने ताजमहल के सामने खड़े होकर तस्वीर खिंचवाई और बाहर निकल आए. शहर की भीड़भाड़ से बाहर निकलकर एक जगह रुक कर चाय पी और पंक्चर टायर ठीक कराया. इरादा आज शाम तक हल्द्वानी पहुंचने का था. पर गाड़ी का क्या इरादा था, किसे पता. इंसान की आंखें और चेहरा देखकर काफ़ी हद तक उसके इरादे का पता चल जाता है. मगर मोटरकार का न चेहरा, न आंखें. लगभग साढ़े नौ-दस बजे का समय, धूप में गर्मी आने लगी थी. आगरा से आगे का सफ़र शुरू हुआ. केशव का पारा बीच-बीच में चढ़ रहा था इसलिए मैंने उस के साथ बैठना शुरू किया. फिर मैंने गणेशजी को फुसलाना शुरू किया. गाड़ी ठीक-ठाक चल रही थी. कैसेट प्लेयर में गाने चल रहे थे. कैसेट हमारे पास दो ही थीं और गाने हमें लगभग याद हो गए थे. अचानक मेरा ध्यान एक चीज़ की तरफ़ गया – केशव ब्रेक को पम्प करने की तरह दबा और छोड़ रहा था. गाड़ी फ़र्राटे से भागी जा रही थी. बात समझ में नहीं आई. मैंने घबरा के पूछा क्या हुआ? केशव ने लापरवाही से जवाब दिया – कुछ नहीं. मैंने मान लिया. पीछे बैठे रज्जन बाबू को कुछ भी पता नहीं चल पाया. बाद में पता चला कि उस वक्त थोड़ी देर के लिए ब्रेक ने काम करना बन्द कर दिया था.
( जारी )
नोट- यह कड़ी अभी जारी है. गलती से प्रकाशन में समाप्त लिखा गया था- संपादक
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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