यह गुरुद्वारा उत्तराखण्ड राज्य के ऊधमसिंहनगर जिले में स्थित है. नानकमत्ता जिला मुख्यालय रुद्रपुर से टनकपुर जाने वाली सड़क में सितारगंज और खटीमा के बीच में है. पहले गोरखनाथ के अनुयाइयों के रहने के स्थान के कारण इसे ‘गोरखमत्ता’ या ‘सिद्धमत्ता’ के नाम से जाना जाता था. यहाँ सिक्खों के प्रथम गुरू नानकदेव जी और छठे गुरू हरगोविन्द साहिब पधारे. सन 1508 में तीसरी उदासी के समय गुरू नानकदेव रीठा साहिब से चलकर अपने शिष्य मरदाना के साथ यहाँ पहुँचे. उस समय यहाँ गुरू गोरखनाथ के शिष्यों का निवास हुआ करता था. नैनीताल और पीलीभीत के इन बीहड़, बियाबान जंगलों में योगियों ने भारी गढ़ स्थापित किया हुआ था जिसका नाम गोरखमत्ता हुआ करता था. यहाँ एक पीपल का सूखा वृक्ष था. इसके नीचे गुरू नानक देव जी ने अपना आसन जमा लिया. कहा जाता है कि गुरू जी के चरण पड़ते ही यह पीपल का वृक्ष हरा-भरा हो गया. एक दफा रात के समय योगियों ने अपनी योग शक्ति के द्वारा आंधी और बरसात शुरू कर दी और पीपल का वृक्ष हवा में ऊपर उड़ने लगा. यह देखकर गुरू नानकदेव जी ने इस पीपल के वृक्ष पर अपना पंजा लगाकर इसे यहीं पर रोक दिया. आज भी इस वृक्ष की जड़ें जमीन से 15 फीट बाहर देखी जा सकती हैं. इसे आज लोग पंजा साहिब के नाम से जानते हैं.
गुरूनानक जी के यहाँ से चले जाने के बाद सिद्धों ने इस पीपल के पेड़ में आग लगा दी और इसे कब्जे में लेने का भी प्रयास किया. उस समय बाबा अलमस्त जी यहाँ के सेवादार थे. सेवादार बाबा अलमस्त को भी सिद्धों ने मार-पीटकर भगा दिया. छठे गुरू हरगोविन्द साहिब को जब इस घटना की जानकारी मिली तो वे यहाँ पधारे और केसर के छींटे मारकर इस पीपल के वृक्ष को पुनः हरा-भरा कर दिया. आज भी इस पीपल के हरेक पत्ते पर केसर के पीले निशान पाये जाते हैं.
1937 से पूर्व तक इस गुरुद्वारे का सञ्चालन महंतों द्वारा किया जाता था. एक छोटा सा गुरुद्वारा स्थानीय निवासियों द्वारा दानाय हुआ था. गुरुद्वारे के निर्माण के लिए जमीन नवाब मेहदी अली खान द्वारा दान दी गयी थी. 1975 में बड़े पैमाने पर कारसेवा कर इसे भव्य और विशाल बना दिया गया.
गुरुनानक योगियों को भोजन बांटकर खाने की सलाह दिया करते थे. एक दफा योगियों ने गुरुनानक की परीक्षा लेने की ठानी. उन्होंने गुरुनानक को एक तिल का दाना दिया और इसे हर किसी से बांटकर खाने को कहा. गुरुनानक ने मरदाना से तिल के दाने को पीसकर थोड़े से दूध में मिलाकर सभी को बाँट देने को कहा. गुरुनानक की सिद्धियों से वह दूध सभी में बंट गया. इसके बाद सिद्ध योगियों के द्वारा गुरूनानकदेव जी से 36 प्रकार के व्यंजनों को खाने की माँग की गई. उस समय गुरू जी एक वट-वृक्ष के नीचे बैठ थे. गुरू जी ने मरदाना से कहा कि भाई इन सिद्धों को भोजन कराओ. जरा इस वट-वृक्ष पर चढ़कर इसे हिला तो दो. मरदाना ने जैसे ही पेड़ हिलाया तो उस पर से 36 प्रकार के व्यञ्नों की बारिश हुई.
कहा जाता है कि योगियों के द्वारा कई भैंसे पाली हुई थीं. मरदाना ने दूध पीने की इच्छा व्यक्त की तो गुरुनानक ने उन्हें योगियों से दूध मांगने को कहा. योगियों ने मरदाना को दूध देने से साफ़ मन कर दिया, क्योंकि वह निचली जाति के थे. योगियों ने मरदाना को अपने गुरु से दूध मांगकर पी लेने का ताना भी मारा. गुरुनानक ने अपनी दिव्य शक्तियों से योगियों की भैंसों का सारा दूध निकलकर पास के कुंए में भर दिया. मरदाना ने इस कुंए से दूध पिया. अब योगियों को गुरुनानक के देवदूत होने का अहसास हुआ. तभी से इस कुंए को दूध वाला कुंआ कहा जाता है. आज भी यहाँ मौजूद इस कुंए के पानी से कच्चे दूध की महक आती है.
एक बार जब भौंरा साहब में बैठा हुआ बच्चा जब मर गया तो सिद्धों ने गुरू जी से उसे जीवित करने की प्रार्थना की, गुरू जी ने कृपा करके उसे जीवित कर दिया. इससे सिद्ध बहुत प्रसन्न हो गये और गंगा को यहाँ लाने की प्रार्थना करने लगे. गुरू जी ने मरदाना को एक फावड़ा देकर कहा कि तुम इस फावड़े से जमीन पर निशान बनाकर सीधे यहाँ चले आना और पीछे मुड़कर मत देखना. गंगा तुम्हारे पीछे-पीछे आ जायेगी. मरदाना ने ऐसा ही किया लेकिन कुछ दूर आकर पीछे मुड़कर देख लिया कि गंगा मेरे पीछे आ भी रही है या नहीं इससे गंगा वहीं रुक गई. आज इस गुरूद्वारे में 200 से ज्यादा कमरों की सराय और बड़े हाल में सभी धर्म, जातियों के श्रद्धालुओं के ठहरने की व्यवस्था है. यहाँ के विशाल लंगर हाल में हजारों लोगों को प्रतिदिन मुफ्त भोजन कराया जाता है. इस लंगर की व्यवस्था श्रद्धालुओं के सहयोग और कारसेवा से ही संपन्न होती है. नानकमत्ता सिख धर्म की जनसेवा का प्रतीक भी है.
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