उत्तराखंड में करीब पचहत्तर फीसदी भू भाग प्राकृतिक चरागाहों, बुग्याल या अल्पाइन मीडोज, वनों, गोचर, बंजर और खेती पाती के लिए अनुपयोगी या परती जमीन के रूप में है.वनों के साथ सटे छोटे बड़े चारागाह पसरे हैं. बेकार पड़ी जमीन बंजर जमीन के साथ वन धरातल पर उग आयी घास, जड़ी बूटी, वनस्पति भी पशुओं के चारे के काम आती है.
(Grass Grown in the Mountains)
समुद्र तल के तीन सौ से आठ हज़ार मीटर तक की ऊंचाई में पसरे इस पहाड़ी इलाके में नदियाँ व घाटियां अलग अलग कम और ज्यादा ढाल लिए रहतीं हैं. जहां सेरों या तलाऊँ और ऊपर की ओर बढ़ते उपरांउ इलाके के सीढ़ीदार खेतों में उपजाऊ जमीन पर खेती होती है. जैसे जैसे ऊंचाई बढ़ती है जमीन के ढाल बढ़ते जाते हैं. बड़े विशालकाय बोल्डरों से युक्त चट्टानों के साथ ऊबड़ खाबड़ पर्वत श्रृंखलाएं दिखने लग जाती है.
पंद्रह सौ मीटर के इलाकों में खूब ठंड पड़ती है,जाड़ों में बरफ पड़ती है. चार हज़ार मीटर से ऊँचे पर्वत तो साल भर बरफ से ढके रहते हैं. इन्हीं के समीप पसरे होते हैं बुग्याल, जहां फ़्लोरा फोना की असंख्य अद्भुत किस्में मौजूद है.
बुग्यालों में कई ऐसे शाक उगते हैं जिनमें प्रोटीन की मात्रा पांच से बीस फी सदी और कार्बनिक पदार्थों की या इनविट्रो पाचकता पचास से अस्सी फी सदी तक पाई जाती है. मध्य हिमालय का यह भाग शाकों के मामले में बहुत समृद्ध है. जहां 112 साल भर उगने वाले शाकों की कई प्रजातियां पायीं जाती हैं. इनमें शिशुण, सिराला, सकीना, चमलाई, दूधिया, कैरूआ आदि मुख्य हैं. हर तरह की पत्तियों से मिलने वाले चारे का करीब ग्यारह फी सदी शाकों और झाड़ियों से प्राप्त होता है. चारे की झाड़ियों में मालू, किल्मोड़ा, कुंजा, घुरकुंजा, रिंगल, घेनु, टिटाना, जानिला, टिटाना, हिंसालू और घिंघारू का बड़ा नाम है. इनमें हर झाड़ी से करीब पांच से पंद्रह किलो हरा चारा मिल जाता है जिसमें प्रोटीन करीब पांच से पंद्रह फीसदी और कार्बनिक पदार्थों की पाचकता पचपन से पिछत्तर फीसदी तक होती है. पशु चारे में घास मुख्य है. पहाड़ी औरतों का दूध दन्याली का कारबार जो कमर में खोसी दराती और गोठ के आगे पीछे कई दिन हफ़्तों की सार -बार के बाद खड़े किए घास के लूटों से प्रत्यक्ष रूप से सह सम्बंधित होता है.
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जगह जगह जा ऊँचे नीचे ढलानों से, ख़तरनाक भ्योल में चढ़ उतर पीठ में लाद सर पर लाद इन्हें एकबटियाया जाता है . परंपरागत रूप से जो घास जमा की जाती रहीं उनमें चुमरिया, सिनकिया, बाकुनिया, तितरिलिया, चुमरिया, मैस्युडिया, पतेलिकया मुख्य रहीं. अब जो घासें अधिक चलन में हैं उनमें जाड़ों में उगने वाली जैग डी और कुचेरू, वर्षा ऋतु में गुरुड़िया और कुमरिया,खरीफ के मौसम में भुबनिया होती जिसे सूख जाने पर जाड़े के मौसम में खिलाते क्योंकि इसकी ताजी हरी घास कड़वी होतीं.
बेलदार घासों में चोपड़ी घास मुख्य है जिसकी बेल बांज और उतीस के पेड़ों में चढ़ जाती और साल भर हरी भी रहती. खर पतवार की तरह रबी की फसलों के बीच जाड़ों में कुवेरु उगती है और सिरपतिया तासों भी. जानवरों को मोँसिया घास बहुत पसंद होती जो पौष्टिक मानी जाती और इसे खा कर जानवर दूध भी खूब देते. बुग्यालों में उगने वाली कई घासें जानवरों के लिए बहुत उपयोगी मानी जातीं . इनमें पाचक प्रोटीन 3 से 7 प्रतिशत, कच्चा तंतु 30 से 35 प्रतिशत, खनिज 5 से 8 प्रतिशत तक होता . यही कारण है कि उच्च हिमालयी इलाकों में पशु चारण मौसमी प्रवास की तरह होता रहा. बुग्याल में पायी जाने वाली कुछ महत्वपूर्ण घासें रहतीं , चिड़िया घास, गेहूं घास, नरखुट घास, पंखी घास, पुष्पगुच्छी,बुग्यालपुष्प, जून, गंधी, कश्मीरी दोलनी, लव, गुच्छी, मानुला, रीड़, बदुशुकी आदि.
(Grass Grown in the Mountains)
ऐसे ही बुग्यालों में दलहनी शाक भी बहुतायत से उगते जिनमें क्लोवर मीठा, लाल और सफ़ेद, सींग क्लोवर, सगीना, निलबुग्गी, मसूड़िया बुग्गी मुख्य रहते. दलहनी शाकों में नाइट्रोजन संश्लेषण की खूबी होती जिससे ये अपने साथ उगने वाली घासों को भी नाइट्रोजन प्रदान करतीं. इससे घासें तेजी के साथ बढ़ती. बुग्यालों में जानवरों के लिए उपयोगी जड़ी बूटियां भी उगतीं जो पशु चारे के रूप में प्रयोग की जाती. इनमें भूतकेशी, मोराला, पत्थरभेंट, बिलोका मुख्य होतीं. उतीस, खड़िक, खर्सू, लोध, चमड़ मोवा व अंगू भी चारे के रूप में खिलाया जाता. सौंड भेड़ों के लिए तो कंडेल व कबसी का पेड़ बकरियों के लिए अच्छा चारा होती. चारे की कमी होने पर स्यान व अंगू भी खिलाया जाता जिसका पेड़ बहुत कम समय के लिए पत्ती रहित होता. किमु की पत्तियों का चारा भी पौष्टिक चारा होता . जून जुलाई में इसमें फल आते जो खूब स्वाद खटमिठ होते. बांज सदाबहार होता है इसकी पत्तियां प्रोटीन, कच्चे तंतु व प्रोटीन से समृद्ध होतीं.
दो हज़ार मीटर की ऊंचाई पर पाई जाने वाली झाड़ियों में मालू, किल्मोड़ा, करोंदा, घिंघारू, हिस्यालू, पियुली, तिमूर, फुरपतिया, तुसारा, बेडुली, मरचिया, घंटी, भेकल, घेड़ू, चेदुल, कुरा, तितमुइया मुख्य हैं. दो से चार हज़ार मीटर की ऊंचाई में किमकुकड़िया, कुंजा, घेनु, छिपडी, दड़विया, चिमुला, गोफल, पोथी, जुमरा जैसी विविध प्रजातियां पनपतीं.
हज़ार मीटर तक की घाटियों में चारे के पेड़ बहुतायत से मिलते. अरदू, कटइ, रोहिणी की पत्तियाँ भेड़ और बकरियां बहुत पसंद करतीं. संदन, शहतूत, कबरू, आवंला, मकुना, सिरिस, बेल, खैर व सफ़ेद कीकर से मिलने वाले चारे अच्छी गुणवत्ता वाले होते. वहीं मध्यम गुणवत्ता का चारा हल्दू, खैरवाल, हरड़ व हरसिंगार के पेड़ों से प्राप्त होता. अरदू, शीशम, कबरू, पपड़ी , घौरा, झिंगन, फलदू, शहतूत, संदन ब हेड़ा के पेड़ों की पत्तियां जाड़ों में गिर जातीं और मार्च अप्रैल तक नई पत्तियां आतीं. रोहणी व अकोला में हमेशा पत्तियां बनी रहतीं. फुतली का वृक्ष कांटेदार होता पर इसमें कच्चा प्रोटीन खनिज व पाचकता काफ़ी अधिक होती. ऐसे ही सिरान की पत्तियाँ हमेशा अन्य चारों के साथ मिला कर दी जातीं. अकेले देने पर यह पशुओं के लिए हानिकारक होता .
हज़ार से दो हज़ार मीटर की ऊंचाई पर काफ़ी अधिक चारा वृक्ष मिलते जिनमें खड़िक, चमखड़िक, अंगू, चमडमोवा मुख्य रहते जिन्हें आमतौर पर जानवरों को दिया जाता. बकरी और भेड़ों को सौंड, कब्सी, कनदेल, चमखड़िक अच्छे लगते. स्यान की पत्तियां तब दी जातीं जब चारे की कमी हो. बांज और खर्सू के साथ ही लोध को अच्छा चारा माना जाता रहा .
पहाड़ में चारे के लिए ऋतु के अनुसार भंडारण किया जाता. फसलों से मिले भूसे को सूखे स्थान, कोठरी में इकट्ठा किया जाता . खरीफ की फसल में धान, मड़ुआ, मादिरा के पुवाल, नलुआ और सूखी घास के लूटे बनाये जाते. भट्ट, गहत, सोयाबीन का भूसा गरम होता जो ठंड के महीनों में खिलाया जाता. जाड़ों में खली और काला गुड़ भी खिलाना जरुरी होता.
जौ, मटर, भट्ट, सोयाबीन, चना, गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा, मादिरा को दरदरा पीस कर इस दाला को बड़े पतीले, कढ़ाई या डेग में पानी डाल कर पका कर जानवरों को दिया जाता . चोकर भी मिलाते हैं. सरसों और तिल की खली के साथ डला लूण या नमक भी मिलाया जाता.
चारे हेतु पहाड़ में पर्याप्त चरागाह व बुग्याल थे पर अब कई समस्याएं उभर गईं हैं. इनमें सबसे पहले तो अरुचिकर पौंधों की बढ़ती हुई तादाद है जिन्हें पशु नहीं खाते. इनमें एक्सोटिक किस्में बड़ी तेजी से पहाड़ में फैल गईं हैं. दूसरा चरागाहों और बुग्यालों में कम इकाई इलाके में अधिक पशु लम्बे समय तक चराये जाते रहे हैं. पशु स्वाद भरे व पौष्टिक पौंधे अधिक मात्रा में चरते रहते जिससे अगली फसल के लिए अक्सर घास के बीज चरागाह की भूमि पर बिखर और छिटक नहीं पाते. चरागाहों में उनकी स्थानीयता के हिसाब से पौष्टिक घासों और दलहनी घासों का समायोजन करने की जरुरत को समझ लिया जाना भी जरुरी है.
तीसरा कारण है पहाड़ की भूमि का अपक्षरण व अपर्दन. भूमि की सतह के कार्बनिक घटक तेज वर्षा व अन्य प्राकृतिक आपदाओं से ख़तम होते जाते हैं. जमीन पोषक तत्व व खनिज की दृष्टि से दुर्बल होती जाती है. सुदूरवर्ती इलाकों और बुग्यालों की ओर होने वाले पर्यटन ने भी पारिस्थितिकी तंत्र को बहुत नुकसान पहुँचाया है. पर्यटकों के द्वारा प्रयोग किए पॉलिथीन और प्लास्टिक का ढेर ऐसी समस्या के रूप में उभरा है जिसका कोप प्रकृति भी भोग रही है और जानवर भी.
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जानकारों का कहना है कि कई चारा प्रजतियाँ व पशुओं के लिए अति पोषक घास व जड़ी बूटियां समाप्त प्राय हो गईं हैं. इन परिस्थितियों में चारागाह प्रबंध में कुछ सुधार किए जाने जरुरी हो जाते हैं. जैसे कि नियंत्रित एवं चक्रानुसार चराई पर ध्यान दिया जाए. चरागाहों को कुछ समय तक क्रमवार चराई के लिए संरक्षित भी किया जाए. चरागाहों व बुग्यालों में चारे कि बढ़त व उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए पशुचारकों का इन स्थान विशेषों में जाना सुनिश्चित किया जाए. यह ध्यान दिया जाए कि पशुचारक एक ही इलाके में पशुओं को न चरायें. हालांकि पहले इस परंपरा का ग्रामीण पालन करते रहे जिससे पौष्टिक प्रजातियाँ सही तरह से पनपती थीं.
दूसरी चिंता खरपतवार और अपौष्टिक प्रजाति की वनस्पति के तेजी से पनपने की है जिस पर नियंत्रण करने पर गंभीर नहीं रहा गया है. इनके निदान व उन्मूलन के लिए वैज्ञानिकों को पहल करनी होगी. अगर वह सरल व स्पष्ट तरीके से ग्रामीणों को चारागाह विकास एवं प्रबंध के गुर सिखा दें तो पहाड़ के इस महत्वपूर्ण संसाधन का ह्रास किसी सीमा तक रोका जा सकता है. परंपरागत तरीकों व लोक थात में इन संसाधनों को बनाये बचाये रखने के गुर स्थानीय ग्रामवासी खूब जानते हैं पर उचित श्रृंखलाओं के अभाव से वह शोध और विकास का जिम्मा संभाली संस्थाओं से काफ़ी दूर हैं.
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सन्दर्भ :मध्य हिमालय में चारा स्त्रोतों का विकास, हरिशंकर सिंह. उत्तराखंड के चारागाह, एन. पी. मल्कानिया. पेड़ों से वर्ष भर चारा कैसे प्राप्त करें, उत्तराखंड सेवा निधि. फोडर ट्रीज ऑफ इंडिया, आर. बी. सिंह. पारम्परिक चारा एवं चारागाह प्रबंधन, जे. के. बिष्ट. यूटिलाइजेशन ऑफ वेस्ट लैंड्स, शर्मा. कोरान्ने व जोशी.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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