जब उत्तराखंड एक पृथक राज्य बना था तो लोगों को उम्मीद थी कि यहां की भौगोलिक स्थिति को देखकर यहां के लिये कानूनों में भी कुछ परिवर्तन किये जायेंगे. आज के दिन एक भी कानून हमारे राज्य में ऐसा नहीं है जिसे हमारी भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार बदला गया हो. सरकारी नीतियों का प्रभाव कैसे हमारे जीवन पर पड़ता है आइये समझते हैं अल्मोड़ा की बाल मिठाई के माध्यम से.
यह कोई अतिशयोक्ति न होगी अगर अल्मोड़ा और बाल मिठाई को एक दूसरे के पर्यायवाची कहा जाय. अल्मोड़ा कहते ही बाल मिठाई दिमाग में आती है और बाल मिठाई कहते ही अल्मोड़ा. बाल मिठाई न केवल अल्मोड़ा आने वाले पर्यटकों के लिये बल्कि यहां से गुजरने वाले हर यात्री के लिये इस शहर की सौगात है.
पिछले एक दशक की बात की जाय तो अल्मोड़ा में बनने वाली बाल मिठाई के स्वाद में लगातार बदलाव आया है. अल्मोड़ा में गिनती की ही दुकानें हैं जहां पुराने स्वाद वाली बाल मिठाई आज भी बनती है.
इसका एक मुख्य कारण है कि इसके लिये उपयोग में लाया जाने वाला खोया. वर्तमान में अल्मोड़ा की बाल मिठाई के लिये जिस खोया का प्रयोग किया जाता है वह दो प्रकार का है. एक मैदानों से ख़रीदा हुआ दूसरा पहाड़ों में बनने वाला.
अल्मोड़ा में बनने वाली बाल मिठाई में मुख्यतः पहाड़ों में बने खोये का ही प्रयोग किया जाता था लेकिन बीते कुछ सालों में मैदानों से आने वाले बालदाने के साथ खोया भी मगाया जाने लगा है.
पहाड़ों में पहले से ही खोया बनता था लेकिन समय के साथ जब खोया की मांग बड़ी तो उसका उत्पादन स्थानीय मांग के अनुरूप नहीं हो पाया. मांग पूरी न कर पाने के पीछे प्रमुख कारण सरकार की वन संबंधी नीतियां रही हैं.
उत्तराखंड का समाज हमेशा से अपने दैनिक जीवन की आपूर्ति के लिये वनों पर निर्भर रहा है. वनों से उत्तराखंड के समाज का पारिवारिक रिश्ता रहा है लेकिन नये वन कानून के लागू होने के बाद उत्तराखंड के समाज की वनों पर निर्भरता पूरी तरह समाप्त हो गयी है.
खोया बनाने के लिये स्थानीय लोग ईधन के लिये जंगलों पर निर्भर थे. मिठाइयों के लिये खोया बनाने वाले कई सारे परिवार जागेश्वर, शीतलाखेत, लाट, चौँसली, लमगड़ा आदि कस्बों के गावों में रहते हैं. इन गावों में लकड़ी के चूल्हे में बनने वाला खोया तत्कालीन बाजार की मांग के लिहाज से काफी था.
क्योंकि गांव में गाय अपनी होती थी ईधन जंगलों से मिल जाता था और बहुत कम लागत में खोया तैयार हो जाता था. बाद में वन कानून आया तो जंगल से ईधन के लिये लकड़ियां चुनना गैर-कानूनी हो गया. ईधन के नये उपायों ने खोया के उत्पादन में मुनाफा कम कर दिया तो लोगों ने भी खोया का उत्पादन या तो कम कर दिया या फिर बंद कर दिया.
माना तो यहां तक जाता है कि एक समय में बाल दाना भी अल्मोड़ा के आस-पास के गावों में ही उत्पादित किया जाता था लेकिन अब यह पूरी तरह से मैदानी भागों से आयात किया जाता है. इसका मुख्य कारण भी ईधन की लकड़ी की कमी ही माना जाता है. हो सकता है कि आने वाले समय में खोया भी पूरी तरह से मैदानी भागों से आयात किया जाये.
जो आग में पकी हुई गहत की दाल और कुकर की सीटी से गैस में बनी गहद की दाल के स्वाद में अंतर समझ सकता है वह इस बात को भी भलीभांति समझेगा कि पिछले कुछ सालों में अल्मोड़ा की बाल मिठाई के स्वाद में अंतर क्यों है. सीमित शुद्ध पहाड़ी खोये के कारण ही आज भी अल्मोड़ा के प्रतिष्ठित बाल मिठाई की दुकानों में दोपहर तक बाल मिठाई खत्म हो जाती है.
खैर, उत्तराखंड सरकार को समझना चाहिये कि वह सार्वभौमिक नीतियों के साथ उत्तराखंड का विकास कभी नहीं कर सकती. उत्तराखंड सरकार को चाहिये कि वह अपनी भौगोलिक स्थिति के आधार पर बने समाज को ध्यान में रखकर नीतियों का निर्माण करे.
मसलन बाल मिठाई के उक्त मामले में ही सरकार विशेष कानून बनाकर क्षेत्र के लोगों को जंगलों में कम से कम इतने अधिकार तो दे कि वे ईधन के लिये इक्कट्ठा की गयी सूखी लकड़ी चुनने में ही अपराधी घोषित न हों.
शुद्ध पहाड़ी खोये से बनी बाल मिठाई की एक विशेषता जानते चलें. जो बाल मिठाई पहाड़ी खोये की बनी होती है वह छः से सात दिन तक स्वाद में एक सी बनी रहती है और हां! बाल मिठाई फ्रिज में भी नहीं रखी जाती है.
-गिरीश लोहनी
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