Featured

बचपन की यादों का पिटारा घुघुतिया त्यार

[उत्तराखंड  (Uttarakhand) में मनाया जाने वाला घुघुतिया त्यार (Ghughutiya)अब वैसे उत्साह से नहीं मनाया जाता. एक समय बच्चों के सबसे प्रिय त्यौहारों में शामिल घुघुतिया का आकर्षण आधुनिकता के सामने फीका पड़ता जा रहा है. मोबाइल फोन और प्लेस्टेशन जैसे आधुनिक उपकरणों से लैस आज के समय के बच्चे बड़े होकर किसी भी त्यौहार को किस तरह याद रखेंगे, कहा नहीं जा सकता.

उमा कापड़ी

दिल्ली में रहने वाली उमा कापड़ी ने अपने बचपन के घुघुतिया त्यार को बहुत अन्तरंग आत्मीयता के साथ याद किया है. 1 फरवरी 1993 को उत्तराखंड के पिथौरागड़ जिले के बलगड़ी गांव में जन्मीं उमा (हालांकि सरकारी प्रमाणपत्रों में यह 10 अगस्त 1993 दर्ज है) ने पुरानाथल से दसवीं तक पढ़ाई की. उसके बाद वे नोएडा आ गईं और वहीं से उन्होंने 11वीं और 12 वीं की पढाई की. दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान की स्नातक उमा फिलहाल वर्तमान में ‘जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय’ (NAPM) से जुड़कर काम कर रही हैं.

-सम्पादक]

मकर संक्रांति को उत्तराखंड में घुघुतिया त्यार मनाया जाता. इस दिन आटे और गुड़ से बने पकवान बनते हैं. इन्हें घुघुते कहा जाता है. अधिकांश लोगों के लिए यह अन्य त्यौहारों की तरह ही एक सामान्य त्यौहार जैसा ही हो सकता है पर पहाड़ी (खासकर उत्तराखंड) बच्चों के लिए तो ये यादों का पिटारा है. हालाँकि अब नई पीढ़ी के बहुत कम बच्चे इस त्यौहार से परिचित हो पाते हैं जिसका एक खास कारण पहाड़ों से पलायन है.

हम खुशकिस्मत थे जो ये त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाने वाले बच्चों में से थे. तो होता ये था कि मकर संक्रांति के एक दिन पहले घर में बहुत सारे घुघुते बनाये जाते थे. इतनी संख्या में कि घर के सारे बच्चों के लिए एक-एक माला बनेगी और पड़ोसियों और रिश्तेदारों को भी बांटे जायेंगे.

अनेक कथाएँ जुड़ी हैं घुघुतिया त्यौहार से

पूरा परिवार घर के सब काम निपटाकर आँगन में या छत पर बैठता था. गुड़ के पानी में गेहूं का आटा गूंदा जाता था. उसके बाद शुरू होता था घुघुते बनाने का काम. क्योंकि घुघुते काफी संख्या में बनाने होते थे तो पूरा परिवार लग जाता था. बच्चों के लिए तो ये अजीब से आकार की चीज खेलने के लिए आकर्षक होती थी ही. इसमें एक और रोचक बात यह थी कि घुघते के अलावा कुछ आकृतियाँ भी बनती थीं. जैसे अगर घर में लड़की है तो उसके लिए अनार के फूल, आटा पीसने वाली चक्की (जातर) और लड़कों के लिए तलवार, डमरू जैसी चीज़ें बनती थीं. बच्चे पहले ही माँ- पिता से मांग कर लेते थे की हमें अपनी माला में इतने घुघुते चाहिए.

जब घुघुते बन जाते थे तो उन्हें थोड़ी देर सुखाया जाता था और फिर कढ़ाई में फ्राई किया जाता था. एक बार इसका आकार बन गया तो फ्राई करना बहुत बड़ी बात नहीं होती थी, घर का कोई एक सदस्य ही इस काम को कर लेता था. जब घुघुते बनाना शुरू करते थे तो सबसे पहले कौवे के हिस्से का बनता था, उसके बाद बाकी.

अब घुघुते तो बन गये पर खाने को नहीं मिलते थे. कहा जाता था कि सबसे पहले कौआ खायेगा फिर ही हम सब खा सकते हैं. इसके पीछे यह मान्यता थी कि यदि कौए के खाने से पहले किसी ने खा लिया तो कौआ नाराज़ हो जाता है और वो फिर अपने घुघुते लेने नहीं आता.

तो हम सब बच्चे जी ललचाये देखते रहते और घर वाले हमसे छुपा –छुपा कर घुघुते रखा करते. हमारे लिए बनी हुई मालाएं भी हमें नहीं दी जाती थीं.

त्यौहार का सबसे रोचक भाग अब शुरू होता है. अब कौए के हिस्से के घुघुते तो रख लिए लेकिन कौआ आएगा कैसे? तो उसे बुलाने के लिए गाँव के सभी बच्चे उसे आवाज देकर बुलाते थे.

लेकिन बिना नहाए यदि कौए को बुलाया जाएगा तो कौआ नहीं आएगा – यह कहा जाता था. तो जनवरी की भयंकर सर्दी में बिना रोये बच्चे नहा भी लेते थे. शायद वो साल का एकमात्र ऐसा दिन होता होगा जिस दिन बिना नखरे किये बच्चे उठ भी जाते थे और कड़ाके की ठण्ड में नहा भी लेते थे.

अब शुरू होती थी कौए को बुलाने की प्रतियोगिता! चारों तरफ से आवाजें आ रही होती थीं- काले कौआ काले, घुघुते की माला खा ले (जिसका अर्थ है कि हे काले रंग के कौए तू आजा और हमारे घुघते की माला जो तेरे हिस्से की रखी है उसे खा जा). घुघुते के साथ बड़ा भी रखा होता था जो कि मांस (उड़द) की दाल का बनता है और बाकी बने हुए पकवान भी. अब कौआ किसी और के घर ना चला जाए इसलिए पूरा जोर लगाकर कौए को बुलाया जाता था. रात के 2 – 3 बजे से सुबह के 6 -7 बजे तक सब कौए को बुलाने में ही लगे रहते.

“काले कौआ काले, घुघुते की माला खा ले” के अलावा और भी लालच देकर कौवे को बुलाया जाता था, जैसे “ले कौआ बड़, मेंकैं दी जा सुनुक घ्वड़ (ले ले कौआ बड़ा और मुझे दे के जा सोने का घोड़ा)” इत्यादि.

तो कौआ आकर जब घुघते लेकर चला जाता तो तब हम सब खाना खाते थे और अपनी मालाओं में से घुघुते भी. अब कौवे के घुघुते ले जाने के बाद दूसरी होड़ लगती थी – ज्यादा से ज्यादा दिन तक अपने घुघते बचाने की.

घर वाले सबको उनके हिस्से की माला दे देते थे. अब सब अपनी माला के मालिक हैं और उसे रखने की जिम्मेदारी भी उनकी ही है. अपनी माला छुपाकर घर वालों से घुघुते मांगना या भाई – बहनों से मांगना चलता रहता था, और जब सबकी माला के घुघुते ख़त्म हो जाता थे तो अपने घुघुते छुपाकर रखने वाला,  माला निकालकर सबको चिढ़ा- चिढ़ा कर खाया करता था और फिर घुघुते लड़ाई का कारण भी बनते थे.

लेखिका की घुघुते की माला

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

हमारे कारवां का मंजिलों को इंतज़ार है : हिमांक और क्वथनांक के बीच

मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज…

3 days ago

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

1 week ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

1 week ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

1 week ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

1 week ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

1 week ago