फोटो: अंकित डफाली, हरेला सोसायटी
ईट और सरियों से बने मकान अब पहाड़ में आम हो चले हैं. आपसी प्रेम से बनने वाले पारम्परिक घरों की जगह अब मजबूत दीवारों वाले मकानों ने ले ली है. संबंधों से चलने वाले पहाड़ में बने इन नये मकानों में अब शहरों से चली आ रही रिश्तों की नीरसता भी साफ देखी जा सकती है. सभ्य कही जाने वाली इस आधुनिक समाज की हवा ने हमारे गांव के पारम्परिक घरों की चौखट पर लिखी संस्कृति की इबारत को अब पूरी तरह धूमिल कर दिया है.
(Gauriya in Traditional House Uttarakhand)
सबको साथ लेकर चलने की पहाड़ की संस्कृति का एक छोटा सा उदाहरण है यहां के हर घर में गौरैया के लिये बने हुये छोटे-छोटे छेद. पहाड़ के पारम्परिक घरों में छत की बल्लियों के बीच के भाग को बंद कर हर बल्ली के बीच के तख्ते में दो-चार सूत का लम्बा-चौड़ा छेद छोड़ दिया जाता. यह महज छेद नहीं बल्कि गौरैया के लिये घोंसला बनाने को छोड़ी गयी जगह है.
गौरेया को इस तरह अपने घर में जगह देने के अतिरिक्त यहां आंगन में अनाज के भी पर्याप्त दाने डाले जाते थे. पहले पहाड़ में पशु-पक्षियों को किसी न किसी बहाने से भोजन देने का रिवाज भी खूब हुआ करता था. पुराने घरों के दरवाजे और खिड़कियों में पशु-पक्षियों के उकेरे हुये चित्र भी बड़े सामान्य थे अब ऐसा कुछ देखने को नहीं मिलता है.
(Gauriya in Traditional House Uttarakhand)
परम्पराओं से चलने वाले पहाड़ में अब आधुनिक कहे जाने वाले मकान तो खूब बन रहे हैं बस रिश्तों की गरमाहट से चलने वाले घरों की कमी खूब खलती है. पहाड़ में बनने वाले पारम्परिक घरों पर एक विस्तृत लेख यहाँ पढ़ें: बड़ी मेहनत से बनती है पहाड़ की कुड़ी
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–काफल ट्री डेस्क
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(Gauriya in Traditional House Uttarakhand)
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