उत्तरकाशी जिले में भटवाड़ी तहसील के टकनौर परगने में समुद्र तल से 10020 फीट ऊंचाई पर स्थित है गंगोत्तरी. केदारखंड के अध्याय 12, 36 व 39 में इसे ‘गंगोत्तर तीर्थ’ कहा गया. गंगोत्तरी मंदिर के ऊपर 10 लघु शिखरों से आवृत एक विशाल शिखर है. मंदिर का प्रवेश द्वार गोमुख की तरफ है. गंगोत्तरी से भोजवासा, चीड़वासा एवं पुष्पवासा होते हुए 18 किलोमीटर पदयात्रा के उपरान्त गोमुख से आगे शिवलिंग शिखर की उपत्यका में 2 किलोमीटर पर तपोवन है.आगे हिमधारा को पार करता है नंदनवन.
‘गो’ से तात्पर्य है पृथ्वी. 20 किलोमीटर लंबी हिमानी के अंदर में निसृत भागीरथी जिस गुहा द्वार पर पहली बार पृथ्वी से प्रकट हुई अतः इसका नाम पड़ा गोमुख. सूर्य की पहली किरण भी गंगा प्रवाह का यहां प्रथम स्पर्श करती है. सन 1808 में सर्वे पर जनरल ले. कर्नल कोलब्रुक ने कैप्टन रीपर को नियुक्त किया. तब तक यह विश्वास था कि गंगा का उद्गम स्त्रोत कैलाश पर्वत व मानसरोवर है. कैप्टन रीपर के साथ ही जर्मन व स्विस अन्वेषकों व स्वामी सुंदरानंद ने निर्विवाद रूप से मत व्यक्त किया कि गंगोत्तरी हिमनद ही भागीरथी का मूल है. गंगा की प्रत्यक्ष जननी.
पूर्ववत गंगोत्तरी में काठ निर्मित मंदिर था. हरीकृष्ण रतूड़ी के अनुसार 18 वीं शताब्दी में पवित्र शिला के ऊपर से बनाया गया. 1804 में पुराने मंदिर की उच्च भूमि में गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने 12 फीट ऊंचा मंदिर बनाया जो पाषाण निर्मित था. इसकी पूजन व्यवस्था धराली के बुढेरों को दी गई. गंगोत्तरी मंदिर के निवृतमान पुजारी पंडित पुरुषोत्तम दत्त सेमवाल का मत है कि 1792- 93 में ग्वालियर महाराजा दौलतराव सिंधिया द्वारा इसे बनवाया गया जो 1803 में प्राकृतिक कोपों से क्षतिग्रस्त हो गया. तब 1815 से पूर्व ही गुरखा अमर सिंह थापा ने इसे नवनिर्मित किया. जयपुर के महाराजा माधव सिंह द्वारा भी इसका जीर्णोद्धार किया गया. जिन्होंने इसी काल में बाड़ाहट उत्तरकाशी के समीप जयपुर मंदिर बनवाया. शिव प्रसाद डबराल के अनुसार पहले गंगा की पूजा अर्चना धराली गांव की किरात बुढेरे करते थे.अमर सिंह थापा ने उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में मानसा गांव के गंगाराम के बेटे केदार दत्त/ कोदू को यह दायित्व सौंपा. जिसकी पीढियां केदार दत्त के बाद गौरीदत्त, देवदत्त, मोतीराम, हरिनंद, तुलसीदास अनेक थोकों में विभक्त है. इनमें मुख्य हैं पुरुषोत्तम दत्त, बागेश्वर प्रसाद, विद्या प्रसाद, श्रीधर प्रसाद, विंदेश्वर प्रसाद, गिरधारी लाल, सुरेश सेमवाल व उनके परिवार के सदस्य. इस प्रकार गंगोत्तरी मंदिर मुखवा गांव के सेमवाल ब्राह्मण पुरोहित कार्य करते हैं. आदि पुजारी श्री कंठाचार्य स्वर्ण पीठाधीश्वर की गद्दी के कालांतर में हेममर्ण सेमवाल पुजारी उत्तराधिकारी नियुक्त हुए थे.
उत्तरकाशी गैजेटियर के अनुसार शंकराचार्य द्वारा गंगोत्तरी में भागीरथी, यमुना व लक्ष्मी मूर्ति स्थापित की. यह विविध आभूषणों व मणिमुक्ताओं से अलंकृत हैं. साथ ही निम्न पटल पर महालक्ष्मी, अन्नपूर्णा, सरस्वती भगीरथ की तप करती मूर्ति तथा गणेश, शंकर जाह्नवी की मूर्तियों के साथ आदि शंकराचार्य की मूर्ति भी प्रतिष्ठित है. गंगोत्तरी मंदिर के समीप शिव मंदिर व भैरव मंदिर हैं. गंगा मंदिर के दायें सीढ़ियां उतर भागीरथी के दाएं तट पर भगीरथ शिला है.
गंगोत्तरी मंदिर की प्रबंध समिति में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव के साथ पांच सदस्य वर्षभर व्यवस्था कार्य दायित्व का निर्वहन करते हैं. तहसीलदार भटवाड़ी इसका पदेन अध्यक्ष होता है. कपाट बंद होने पर समस्त आय व्यय लेखा उसके सम्मुख होता है. गंगोत्तरी मंदिर के कपाट अक्षय तृतीया को खुलते व दीपावली के उपरान्त गोवर्धन पूजा के दिन पूजन विसर्जन हो शीतकाल हेतु बंद हो जाते हैं.
शीतकाल में कपाट बंद होने पर मां गंगा की मूर्ति को जांधला पड़ाव, देवी का दयूल पड़ाव व मारकंडेय पड़ाव से यात्रा-जात्रा में सेमवाल पुजारियों के ग्राम मुखीमठ (मुखवा) के गंगा मंदिर में स्थापित किया जाता है. गंगोत्तरी में प्रचलित विधि से ही मुखवा में पूजा-अर्चना का क्रम नियमित रहता है.
गंगोत्तरी की पूजा अर्चना में पुरोहित प्रातः कालीन पूजा संपन्न कर दर्शनार्थियों हेतु कपाट खोलते हैं. बड़े थाल में कपूर घी बत्ती से आरती होती है. सायं काल की पूजा में गंगा आरती मुख्य है. प्रसाद वितरित होता है जिसे भोग कहते हैं. दर्शनार्थियों से पंडों द्वारा पूर्वजों का नाम पूछने के बाद जिस पंडे की बही में नाम हो वह उसका यजमान बनता है.यजमान द्वारा भागीरथी तट पर स्नान कर अक्षत रोली सुपारी पुष्प द्वारा गंगापूजन व धूप कपूर घी बाती के दीपक से आरती की जाती है. यजमान द्वारा संकल्प किया जाता है. प्रसाद थाल ले विधिवत गंगोत्तरी में भोग चढ़ाया जाता है. यहां से विविध पात्रों में गंगा जल ले जाया जाता है.
गंगोत्तरी से शिवलिंग शिखर, भगीरथ शिखर, केदार शिखर, मेरुशिखर, चौखम्बा शिखर के दर्शन होते हैं. गंगोत्तरी मंदिर के दायी तरफ भागीरथ शिला पर दर्शनार्थी अपने पितरों के लिए तर्पण करते हैं. गंगोत्तरी में सूर्यकुंड, ब्रह्मकुंड, गौरीकुंड व उमाकुंड अवस्थित माने गए हैं. सूर्यकुंड गंगा मंदिर से आधा किलोमीटर पूर्व में पटांगण मार्ग पर केदारगंगा के संगम पर है.जहां नदियों की जलधारा के संगम से जल की दुग्धधवल बूंदों की ऊंची फुहार निर्मित होती है. भगीरथ शिला से 30 मीटर बायें ब्रह्मकुंड में स्नान करना पवित्र माना जाता है. यहां पंचमेवा व पंच मिठाई चढ़ती है. इसी के दायें विष्णु व लक्ष्मी के आवास का लोक विश्वास पाया विष्णुकुंड है. गंगा मंदिर के दाएं आधे किलोमीटर पर पटांगण मार्ग में गौरीकुंड है. यहां शिवलिंग स्थापित है जिस पर जलधार गिरती है. लोक मान्यता है कि यही पार्वती ने शिव प्राप्ति के लिए तब किया था.
केदारखंड 204/28 में वर्णित है कि गौरीकुंड के उत्तर में उमाकुंड स्थित है जिसके गर्म जल में संपूर्ण पापों के नाश की शक्ति है. गौरीकुंड के बाएं डेढ़ किलोमीटर दूर पटांगण पांडवघुना नामक चौरस शिलाओं का मैदान है. पांडवों ने वेदव्यास की आज्ञा से महाभारत युद्ध में अपने परिवारों में हुई हत्या के प्रायश्चित के लिए देवयज्ञ किया. पटांगण के समीर उच्च पर्वत रूद्रगौर पर एकादश रुद्रों की उपस्थिति मानी गई है. इससे निसृत जल प्रवाह रुद्र गंगा है जिसका संगम भागीरथी में होता है. लोक श्रुति है कि रूद्र गंगा तट से होकर पांडव केदारनाथ तक पहुंच पाए.
रम्य-सुरम्य स्थलों से आच्छादित है गंगोत्तरी. दक्षिणी सिरे में 1 किलोमीटर आगे प्रकृतिदत्त उद्यान गंगाबाग है तो 2 किलोमीटर पीछे लक्ष्मी वन. 3 किलोमीटर आगे देवघाट जहां देवनंदी का प्रपात है तो इतनी ही दूरी पर कनक गिरि गुफा है. 6 किलोमीटर दूर चीड़वासा व 9 किलोमीटर दूर गोमुख मार्ग पर भोजवासा.
श्री पांडुरंग वामनकाणे ने मन वचन और कर्म आधार पर कृत युग में सभी स्थलों को पवित्र माना, त्रेता में पुष्कर, द्वापर में कुरुक्षेत्र व कलयुग में गंगा. आज गंगा के समान कोई तीर्थ न केशव के सदृश्य कोई देव. वह देश जहां गंगा बहती है और वह तपोवन जहां गंगा पाई जाती है, उसे सिद्धि क्षेत्र कहना चाहिए क्योंकि वह गंगोत्तरी को छूता रहता है. आइये इसकी पवित्रता चरितार्थ करें.
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