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बेरीनाग टू बंबई वाया बरेली भाग- 3

पिछली कड़ी से आगे…

हैवलोक लाइन्स , मिलेट्री अस्पताल और सिकंदराबाद…

कभी सोचिए, जो ज़िंदगी आपने जी तो हो और आपको बिलकुल भी याद ना हो?

ऐसा शायद दो ही सूरत में होता है. जब आप की उम्र तीन-चार साल तक की हो या कभी हादसे में आपकी याद्दाश्त चली गई हो. कभी ये भी सोच कर देखिए कि जीवन के जो पल आपको याद ना हों, जिनकी कोई तस्वीर भी ज़ेहन में ना हों, वही पल, वही मक़ाम अगर आपकी आँखों के सामने आ जाएँ तो कैसा एहसास होता होगा? सातवें आसमान पर पहुँचना क्या होता है – शायद उस एहसास से भी बढ़कर.

ये कहानी तो मेरी है लेकिन हम में से किसी की भी हो सकती है और होनी भी चाहिए. अपने अतीत को ढूँढने की कहानी. मुझे लगता है कि अतीत को पकड़ कर रखने वाली कहानियाँ होती भी सबसे ख़ूबसूरत हैं. जबसे ये सीरीज़ लिखनी शुरू की है, सबसे अच्छा ये हुआ है कि जीवन के कई सारे क़िस्से – हिस्से रील की तरह आँखों के सामने घूमने लगे हैं. ऐसी ही एक कहानी है सिकंदराबाद की (पहले आँध्रप्रदेश में था, अब तेलंगाना में ).

जब से होश संभाला, माँ -पिता से पता चला कि मेरा जन्म आँध्रप्रदेश के सिकंदराबाद ( हैदराबाद के पास) के सैनिक अस्पताल में हुआ और उसके बाद हम चार साल वहीं सिकंदराबाद के हुबलीक लाइन्स ( पिताजी हमेशा यही बताते रहे ) में रहे और फिर ट्रांसफ़र होने के बाद हम लोग जम्मू कश्मीर के उधमपुर चले गए.

उधमपुर पहुँचने के बाद की ज़िंदगी का हमेशा सबकुछ याद रहा मुझे. लेकिन जिस जगह जन्म हुआ, वो शहर कैसा था, वो अस्पताल कैसा था, वो घर कैसा था, वहाँ की खूश्बू कैसी थी? ये जानने की हमेशा से ललक रही पर चाहते हुए भी ना कभी कल्पना कर पाया और ना ही देख पाया. वो सिकंदराबाद, जहाँ जीवन के पहले चार साल गुज़रें ना जाने कितनी बार सोचा कि एक दिन सिकंदराबाद जाऊँगा और फिर से जियूँगा वो सब…

आख़िरकार वो मौक़ा मिला पिछले साल. पहले से ही तय कर लिया कि चाहे कुछ हो जाए जीवन के उन चार वर्षों से जुड़ी हर चीज़ को देखना ही देखना है, जिनकी कोई याद तक नहीं है. माँ तो रही नहीं लेकिन पिता जी से सारी जानकारी जुटाई और हैदराबाद में अपने सारे काम निपटाने के बाद पहुँच गया सिकंदराबाद. पिता आर्मी ऑर्डिनेंस कोर (AOC ) में थे और जिस अस्पताल में माँ को भर्ती कराया गया था, वो था मिलेट्री हॉस्पिटल M.H. Secunderabad.

अस्पताल के परिसर में पहुँचने के बाद याद तो कुछ भी नहीं आ रहा था लेकिन इतना बार बार ज़रूर लग रहा था कि ये जगह पहले भी कभी देखी है. साथ में चल रहे कर्नल बाला ने बताया कि इस अस्पताल में पिछले 70 साल से कुछ भी नहीं बदला है. जो इमारत जैसी और जहाँ थी, वो अब भी वैसी की वैसी ही है. ये अपने आप में बड़ी राहत देने वाली खबर थी. कर्नल बाला ने ये भी बताया कि आज़ादी से पहले ये अस्पताल ब्रिटिश सेना का एक कैंप था, जिसमें उन फ़ौजियों को रखा जाता था जिन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ बग़ावत की हो या जिनका आचरण ठीक ना रहा हो.

मेरी दिलचस्पी इस बात में ज़्यादा थी कि क्या इस अस्पताल में अभी भी कोई ऐसा काग़ज़ या कोई ऐसा दस्तावेज़ है जिससे साबित होता हो कि मैं इस दुनिया में कभी आया था?
पिता जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि उनके पास भी कोई रिकॉर्ड नहीं है क्योंकि उस वक्त खास जरूरत नहीं पड़ती थी. मुझे भी कम ही उम्मीद थी कि कुछ मिलेगा. लेकिन जब कर्नल बाला के आग्रह पर अस्पताल के लेफ़्टिनेंट कर्नल ने रिकॉर्ड रूम में चेक कराया तो पता चला कि उनके पास 1969 के बाद का रिकॉर्ड मौजूद है.

एक और खुशी की खबर क्योंकि मैं तो 1971 का रिकॉर्ड ढूँढ रहा था. कर्नल ने अपने जूनियर को फोन पर मेरी सारी डिटेल्स दे दी और क्या आप यकीन करेंगे भारतीय सेना की कार्यकुशलता पर? मुश्किल से सात मिनट के बाद कर्नल साहब के जूनियर का फोन आ गया. कर्नल साहब ने फोन स्पीकर पर कर दिया और रिकॉर्ड रूम से वो जूनियर कुछ दक्षिण भारतीय लहज़े में जो बता रहा था उसे मैं जस का तस लिख रहा हूँ :

” हाँ सर… मिल गया सर… पैदा हुआ था सर. 15 August 1971 Morning 9.25 am को एक baby boy हुआ था सर… Father’s name D.S. Kapri और Mother name Bhagirathi, age 20 years और सर baby weight लिखा है 3.5 Kg … और सर डॉक्टर का नाम Captain Mrs. Rajeshwari and नर्स Ms P Kaur “

 

मैं अचंभित था. इतनी सारी जानकारी एक साथ. डॉक्टर और नर्स का नाम भी पहली बार पता चला. वो दो इंसान जो किसी भी शिशु को सबसे पहले छूते हैं, देखते हैं, आवाज़ देते हैं और रूला कर देखते हैं कि सब ठीक तो है ना ?

डॉ राजेश्वरी… P Kaur जी… मुझे नहीं लगता कि अब इस जीवन में आप दोनों से कभी मिलना हो पाएगा पर आप दोनों को दिल से धन्यवाद तो कह ही सकता हूँ. बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने मेरा और मेरी माँ का ख़्याल रखा.

कर्नल साहब के आदेश पर इस रिकॉर्ड की फोटो कॉपी करा दी गई और कुछ ही देर में वो कागज मेरे हाथ में था… अपने जन्म का दस्तावेज़. बहुत देर तक उस काग़ज को मैं ग़ौर से देखता रहा तो कर्नल साहब ने पूछा कि क्या सोच रहे हो ? तो मैंने कहा कि इस काग़ज़ से एक बात तो साफ हो गई कि मेरे parents 45 साल से झूठ तो बिलकुल नहीं बोल रहे थे और मैं उन्हीं का बेटा हूँ. कमरे में सब हँसने लगे.

जन्म का रिकॉर्ड लेने के बाद मुझे वो जगह, वो वॉर्ड देखना था जहाँ मैं माँ के साथ गया था जन्म से ठीक पहले. अस्पताल में जिस किसी को भी पता चल रहा था कि मैं क्यों आया हूँ तो वो बड़ा उत्साहित होता था और साथ लग लेता था. हमें labour room और Family ward में ले जाया गया और बताया कि मेरे समय में भी ये ऐसा ही था. Family ward में ज़्यादातर वो महिलाएँ थीं, जिनकी डिलीवरी होने वाली है या जिन्होंने हाल ही में बच्चे को जन्म दिया है. गेट से आगे हमें नहीं जाने दिया गया लेकिन दूर से उन महिलाओं को देखकर ये एहसास लगातार होता रहा कि इन्हीं सब के बीच में कहीं मेरी माँ भी बैठी हुई है और उनकी गोद में दुबक कर बैठा… साढ़े तीन किलो का मैं !!!

अस्पताल के बाद इच्छा थी उस घर को देखने की, जहाँ पहली बार मैंने ज़मीन पर क़दम रखना सीखा. जहाँ की मिट्टी पत्थर और पता नहीं क्या क्या खा लिया था. हम पूछने लगे हुबलीक लाइन्स के बारे में तो पता चला कि इस नाम से तो कोई जगह नहीं है, हाँ एक ब्रिटिश अफ़सर Major General Sir Henry Havelock के नाम पर Havelock lines ज़रूर है. 1857 के विद्रोह के बाद Henry Havelock की मृत्यु हो गई थी. पिता जी का भी कोई क़ुसूर नहीं. उस वक्त के फौजी संभवत: हुबलीक ही उच्चारित करते रहे हों. गूगल में कुछ रिसर्च करने के बाद पता चला कि मोंटेक सिंह आहलुवालिया का बचपन भी Havelock lines में बीता था.

हुबलीक को ढूँढते हुए जब मैं Havelock lines पहुँचा तो बहुत कुछ जैसे अपने आप याद आने लगा. यहाँ आने से पहले बिलकुल बलैंक था लेकिन माता पिता ने बचपन की जो कुछ तस्वीरें दिखाई थी, उन्हें याद करते हुए समझ आने लगा कि यहीं कहीं हमारा घर था. मुझे बताया गया कि ये घर अब भी पहले जैसे ही हैं. इनमें कोई बदलाव नहीं किया गया है. सिवाय कुछ नई fittings के. पिताजी को फोन लगाया और घर का नंबर पूछा तो उन्होने बताया कि नंबर तो उन्हें अब याद नहीं.

 

तो फिर कैसे ढूँढा जाए ? फिर याद आया कि माँ ने बचपन में कई बार कुछ ज़िक्र किया था कि हमारे घर के आँगन में आम के दो पेड़ थे. Havelock lines में तकरीबन 25-30 पुराने घर होंगे. दो आम के पेड़ वाला घर ढूँढना मुश्किल काम नहीं था और आख़िरकार वो दो आम के पेड़ वाला घर मिल ही गया. दावे के साथ नहीं कह सकता कि वही घर था कि नहीं लेकिन ना जाने क्यों अंदर से एक आवाज़ आई कि यही घर रहा होगा. डॉर बेल बजाई . एक आर्मी वाले सज्जन एनके मिश्रा बाहर आए. उन्हें अपने आने का मक़सद बताया. वो भी हैरान थे कि कोई तकरीबन 46 साल बाद अपना घर देखने कैसे आ सकता है ? बहरहाल उन्होने अंदर आने दिया और मौक़ा लगते ही इजाज़त लेकर मैंने तस्वीरे खिंच ली.

 

मुझे अभी भी लगता है कि घर वही रहा होगा… जितनी देर वहाँ रहा… पुरानी तस्वीरों को याद करके माँ को ढूँढता रहा… ऐसा लगता रहा कि माँ का पुनर्जन्म हो गया है… वो अभी किसी कमरे से बाहर निकलेंगी और किसी शरारत पर ख़ूब डाँटेंगी.

वहाँ से जाने का मन नहीं था. लग रहा था कि वहीं कुछ देर बैठूं और उन दिनों को जियूँ, जिनकी मुझे याद तक नहीं. लेकिन ये सब संभव नहीं हो पाया क्योकि उस घर के अब के आर्मी वाले सज्जन कुछ वक्त बाद ऐसे खड़े हो गए थे, मानो कह रहे हों कि देख लिया ना… अब जाओ…

बाहर आया और वहीं आसपास घूमता रहा. पता नहीं क्या खोज रहा था. आधे घंटे बाद भारी मन से धीरे धीरे Havelock lines को पार किया… शाम की फ्लाइट होने की वजह से वहाँ बहुत देर तक रूक तो नहीं पाया लेकिन अपने साथ बहुत सारा हैवलोक लाइन्स, मिलेट्री अस्पताल और सिकंदराबाद समेट लाया, जो इस जन्म तक तो बहुत अच्छे से चल जाएगा.

( जारी )

 

देश के बड़े मीडिया घरानों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके विनोद कापड़ी फिलहाल पूरी तरह फिल्म-निर्माण व निर्देशन के क्षेत्र में व्यस्त हैं. मिस टनकपुर हाज़िर हो उनकी पहली फिल्म थी. अपनी एक डॉक्यूमेंट्री के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित हो चुके विनोद की नई फिल्म पीहू बहुत जल्द रिलीज होने वाली है. काफल ट्री के पाठकों के लिए उन्होंने अपने संस्मरण लिखना स्वीकार किया है.  

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Girish Lohani

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