जहिद हुसैन बताते हैं कि पहले जब संसाधन नहीं थे, पैदल और घोड़ों पर बारात जाया करती थी. 40-50 किमी तक की यात्रा बैण्ड वाले भी करते थे. उनके ताऊ अलताफ की चोरगलिया की किसी बारात में जाते समय हृदयगति रूकने से मौत हो गई थी. इसके बाद पिता तालिब हुसैन ने आजाद बैण्ड के नाम से नया ग्रुप बना लिया. उस समय तक बैण्ड वालों की कोई ड्रेस नहीं हुआ करती थी. महिला अस्पताल के सामने सड़क किनारे बेंच डालकर लोग बैठा करते थे और मंगल बाजार में घूमा करते थे. तब सादे कागज में किसी की तय बारात का आर्डर लिख लिया जाता था. इनके दादा सगीर अहमद के समय तो 2 रुपये में पूरा ग्रुप बुक हो जाता था. धीरे-धीरे रेट 25 रुपये तक हुआ. 60 रुपये में जाने वाले ग्रुप में जाहिद मास्टर भी हुआ करते थे. बारात के सीजन में चार-पांच लोगों का ग्रुप बनाने के लिए बिजनौर व अन्य स्थानों से बैण्ड-ढोल बजाने वाले बुलवा लिये जाते थे. आजाद बैण्ड ग्रुप बनने के बाद ड्रेस का प्रचलन हुआ. जाहिद हुसैन भी सहारनपुर में नसीम मास्टर से क्लारनेट सीखने गये. 15 साल तक जाहिद ब्रास बैण्ड चलाने के बाद इन भाईयों ने बर्तन बाजार में दुकान ली और भारत बैण्ड नाम से ग्रुप चलाया. इस समय चार पहियों वाले ठेले को बैण्ड के आगे-आगे चलाने का प्रचलन हुआ. मेरठ में सुन्दर सा ठेला देखकर आये जाहिद हुसैन से एक बड़ा सा ठेला भारत बैण्ड ग्रुप के लिए बनाया. इसे बनाने वाले मुस्ताक लोहार थे. यह ग्रुप आज भी चल रहा है.
हल्द्वानी में रामपुर से अब्दुल खालिद मास्टर ने फिरोज बैण्ड का संचालन किया जो कुछ समय तक चला. इसके अलावा कल्लू मास्टर का ताज बैण्ड, बेहड़ी का आजाद बैण्ड, मुन्ने मास्टर का हीरा बैण्ड, सद्दीक मास्ट का मिलन बैण्ड, रफीक मास्टर का रफीक बैण्ड सहित आज बीस से अधिक बैण्ड ग्रुप इस शहर में हैं. ताज बैण्ड वालों के बुजुर्ग मल्लन मियां शहनाई के भी जानकार थे.
पहले बैण्ड वाले अपना रियाज बगीचों में बैठकर किया करते थे. घिरते जो रहे हल्द्वानी में अब न तो बाग-बगीचे रहे और न वह पुरानी धुनें. ऐसे में अपनी नई धुनों के अभ्यास के लिए बैण्ड ग्रुप खाली समय में गौला में जाकर अपना रियाज करते हैं. बारातों के आफ सीजन में सूखी गौला में अभ्यास करने वाले बैण्ड मास्टर, झुनझुना बजाने वाले छोटू और ढोल बजाने वाले से कोई पूछे तो पता चलता है कि धुन तैयार करने में कितना श्रम लगता है.
आजाद नगर (वनभूलपुरा) के नन्हें ठेकेदार के नाम से मशहूर मुमताज उर्फ नन्हें आजाद का 1942 में बना भवन आज भी पुरानी यादें दिलाता है.उनके पिता फिदा हुसैन जिला बिजनौर से हल्द्वानी आये थे और इनके पुत्रों में रियायत हुसैन, मुमताज (नन्हें ठेकेदार), सखावत, इन्तयाज और पुत्री अमीना बेगम हुई.इस परिवार की आढ़त के अलावा मुख्य रूप से जंगलात की ठेकेदारी थी. मुमताज उर्फ नन्हें ठेकेदार के पांच पुत्र- मुख्तार हुसैन, रियाज हुसैन, मंसूर, मंजूर, मुजम्मिल और 6 पुत्रियां थी. इस प्रकार काफी बड़ा कुनबा फिदा हुसैन साहब का आज भी है. परिवार के बुजुर्ग नन्हें मियां के पुत्र एडवोकेट रियाज हुसैन अपने बचपन और बुजुर्गों की बातों को याद करते हुए बताते हैं कि उनके पिता के एक दोस्त बरेली के मास्टर साहब थे, जिन्होंने मकान का नक्शा बनाया. बरेली से ही मकान बनाने के लिए कारीगर आये थे और मजदूर स्थानीय थे. हल्द्वानी में इस प्रकार का नक्काशीदार यह पहला मकान है. इसके बाद अब्दुला साहब की बिल्डिंग और अन्य मकान बने. रियाज साहब बताते हैं कि इलाके के पुराने वकीलों में गंगादत्त मासीवाल, दयाकिशन पांडे, घनानन्द पाण्डे, नवीन चन्द्र पन्त, सईद अहमद, मौलवी सुलेमान अहमद, दान सिंह दर्मवाल आदि शामिल थे. वह बताते हैं जिस जगह (ललित महिला इण्टर कालेज के करीब) यह रहते हैं पहले मुख्य स्थान था. पुराने बाजार में रेलवे बाजार, सदर बाजार, पटेल चैक, मीरा मार्ग भी थे. पीपलटोला की तरह की भुलवा गली (ताज चैराहे के पास) में कोठे थे और नाच गाना होता था. लोग तहज़ीब सीखने वहां जाया करते थे. रियाज साहब बताते हैं कि स्वतंत्रता सेनानी व केन्द्रीय शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम पर वनभूलपुरा का नाम आजाद नगर और रफी अहमद किदवई के नाम पर किदवई नगर नाम रखा गया. गौला के पुराने ठेकेदारों में मोती सिंह का बड़ा नाम था.
उत्तराखण्ड के प्रमुख शहर हल्द्वानी के बसने की कहानी में बंजाराना बिरादरी का बड़ा योगदान है. अंग्रेजों के जमाने में आई इस बिरादरी ने घोड़ों से व्यापार करने के साथ ही अपने हुनर का लोहा मनवा लिया. आलीशान भवनों से लेकर नक्काशीदार कामकाज को पसंद करने वाले इन बुजुर्गों के तुजुर्बे का लाभ शहर को हुआ. बात करते हैं अब्दुल्ला परिवार की, जिसमें आज भी सौ साल उम्र के पांच बुजुर्ग हैं और बड़ा कुनबा. ताजपुर, बिजनौर से 1860 के करीब हल्द्वानी आये अल्लाबख्श साहब से यह कहानी शुरू हो जाती है. बरेली रोड़ पर 42 बीघे पर अल्लाबख्श के नाम का बगीचा बना, घने जंगलों से घिरे हल्द्वानी में खेती-किसानी से लेकर घरेलू कारखाने जैसे कार्य यहां होने लगे. इनके पुत्र अब्दुल्ला साहब भी बड़े नामी आदमी हुए. अब्दुल्ला साहब के भाई अब्दुल रज्ज़ाक, अब्दुल सलाम, अब्दुल कय्यूम और दो बहनें थीं. ये सभी हुनरमंद और तजुर्बेकार लोग रहे हैं. अब्दुल रज्ज़ाक साहब के 60 वर्षीय पुत्र अब्दुल माज़िद ने जो अपने बचपन में देखा और जो बुजुर्गों से सुना उसे वह सुनाते हुए भावुक हो जाते हैं और शहर के अतिक्रमणकारियों को देख गुस्सा भी जाहिर करते हैं.
अब्दुल माज़िद बताते हैं कि जब उनके बुजुर्ग इस हल्द्वानी में आये, आज जो बरेली रोड है तब यहां गौला का रेला था. आज गौला सिमट कर रह गई है. शहर के बीचों बीच पीने के साफ पानी की व्यवस्था के लिए नहर थी. ब्रिटिश काल में बनी इस नहर में हर पांच सौ मीटर पर पानी पीने व भरने के लिए सीढ़ी बनाई गई थी. उस समय कानून सख्त था कि कोई भी पानी को गन्दा न करे. इतना ही नहीं पतरौल आकर बराबर नहर का निरीक्षण करते थे. निरीक्षण भी ऐसा वैसा नहीं होता था, कर्मचारी नहर के भीतर उजाला लेकर चैक करता था और फंसे हुए पत्थर-पत्ते हटाता था. आज तो शहर का भगवान ही मालिक है. उस सुन्दर शहर को नहीं संभाल पा रहे हैं, साफ पानी की नहरों को गन्दे नाले में बदल दिया गया है. कुदरत की चीज को बर्बाद करने वालों को सजा जरूर मिलती है. उस समय इलाके की आबादी करीब डेढ़ हजार रही होगी. तब पढ़ाई-लिखाई के लिए घरेलू पाठशाला ही पर्याप्त थी. लोग हुनर को महत्व देते थे. माजिद साहब बताते हैं कि उनके परिवार का पूरी तराई में अकेला बड़ा कारोबार था. सन 1962 में चीन की लड़ाई के समय अब्दुल्ला साहब बने मुख्यमंत्री को कहा था — पहाड़ में गल्ले की कमी नहीं होने देंगे. तब घोड़ों से नैनीताल, बीरभट्टी सामान जाया करता था. बुजुर्गों के लाड़-प्यार में पले माजिद साहब को वह सब याद है जो उनके बुजुर्गों ने सुनाया था. वह बताते हैं कि अंग्रेजों के जमाने में जब बंजारा बिरादरी हल्द्वानी आई उनके पास घोड़े भी थे. कालाढूंगी चौराहे में सैयद बाबा की मजार के पास इनका पड़ाव था. हर समय घोड़े-खच्चरों की हिनहिन से परेशान अंग्रेजों ने दर्जी लाइन में घुड़साल खुलवा दी. वर्तमान में यह सब अतिक्रमण की चपेट में आ चुका है और पुराने निशान भी नहीं रहे. तब बाजार की खाली जगह को अंग्रेजों ने मस्जिद के लिए दिया. अंग्रेजों की दूरदृष्टि ने जिस प्रकार की व्यवस्था की थी आजाद भारत में नगरपालिका हल्द्वानी के अध्यक्ष डीके पाण्डे ने उसे समझते हुए कार्यान्वित किया. आज के वनभूलपुरा के जम-जमाव के बार में वह बताते हैं कि डीके पाण्डे जी ने आजाद नगर बसाने में मेहनत की थी. इसमें हर चार लाइन के बाद एक फायर लाइन दी गई. तब झोपड़-पट्टे पर लोग रहते थे और आग लगने से नुकसान होने का खतरा बना रहता था. इसलिए आजाद नगर में 16 लाइनें बनाई गई और चार लाइन के बाद जो फायर लाइन थी, वर्तमान में वह मुख्य सड़क का काम कर रही हैं. ‘बिलाली मस्जिद’ भी पुरानी है. सड़क के बीचों-बीच होने के बाद भी इस जगह को छोड़ दिया गया था, जबकि फायर लाइन बनाने में अन्य झोपड़ियों को हटाकर दूसरी जगह बसाया गया.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 54
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