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आदिम संस्कृति और समाज के लिए संघर्ष करता जौनसार बावर का त्यौहार – बूढ़ी दिवाली

पूरे देश मे दिवाली कार्तिक माह की अमावस्या के दिन मनाई जाती है लेकिन उत्तराख़ण्ड के जिला देहरादून के जनजातीय श्रेत्र जौनसार बावर और हिमाचल के सिरमौर जिले लाधेई क्षेत्र के कुछ गावों में यह ठीक एक माह बाद मार्गशीष महीने में पड़ने वाली अमावस्या के दिन मनाई जाती है. मौसमी विविधताओं और उंचाई वाले इन इलाकों में फ़सलों की देरी से आमद को भी इस महीने भर बाद मनायी जाने वाली दिवाली का एक प्रमुख कारण माना जा सकता है. तथाकथित सभ्य होते समाज ने यहाँ के आदिम रिति-रिवाजों को लगभग गौण कर दिया है.

उत्तराखण्ड के जनजातीय श्रेत्र जौनसार बावर में देश की शिक्षा व्यवस्था के चाकरी प्रोत्साहन ने पिछ्ले चालीस वर्षों में इस श्रेत्र की परंपराओं, मान्यताओं एवं प्राकृति के प्रति स्थानीय लोगों के अगाध विश्वास को तहस-नहस कर दिया है. एक जमाने में महीने की संक्रान्त को भी उत्सव के रुप में मनाने वाले इस इलाके में अब नाम-मात्र के पारम्परिक त्यौहार रह गये हैं. पशुपालन एवं कृषि से संबंध रखने वाले यहाँ के निवासियों की संस्कृति एवं समाज में विषमताओं के बावजूद भी शानदार सामंजस्य देखने को मिलता था. दिन-रात खेत एवं जंगल में खटने वाले स्थानिकों के लिए यह वार-त्यौहार नवचेतना एवं ताजगी का माध्यम थे. कृषि एवं पशुपालन को हाशिये पर रखने वाली इस नौकरपरस्त शैक्षिक व्यवस्था ने जाती जरूरतों की पूर्ति के साधन बदलते ही सदियों से चली आ रही सामाजिक एवं साँस्कृतिक परम्पराओं को ग्रसित करना शुरू कर दिया है. फ़लस्वरूप यहाँ मनाये जाने वाले उत्सवों के मतलब और मायने अलग दिख़ाई देने लगे हैं.

आधिकारिक तौर पर लौखण्डी जौनसार बावर को दो भागों मे विभक्त करता है. लौखण्डी से नीचे का हिस्सा जौनसार और ऊपर का हिस्सा बावर कहलाता है. उत्तरकाशी के दूणागिरी से उठती इस पर्वतश्रृंखला, जो एक तरफ़ तो यमुना नदी तथा दूसरी ओर टौंस नदी के किनारों तक घाटी के रूप में उतरती है, दोनों तरफ़ सदियों से कई सभ्यतायों और समाजों को प्रश्रय देती आ रही है. लौखण्डी इसी पर्वत श्रृंखला का मध्य बिंदु माना जा सकता है. लौखण्डी से पश्चिमोत्तर को निकलती पहाड़ी के उत्तर क्षेत्र की तरफ़ ढलान में बसा क्षेत्र भरम जौनसार बावर का ही एक भाग है. भौगोलिक रूप से दुरूह लेकिन प्राकृतिक रूप से सम्पन्न एवं सुन्दर यह क्षेत्र अपनी सामाजिक एवं साँस्कृतिक गतिविधियों को आज भी ठेठ पारम्परिक तौर तरीकों से निभा रहा है. यहाँ के निवासी समूचे जौनसार बावर में परम्परागत खेती-बाड़ी एवं पशुपालन में पारंगत है. जहाँ जौनसार बावर के बाकी क्षेत्रों में मनायी जाने वाली बूढ़ी दिवाली का मूल स्वरूप बदलने लगा है वहीं इस क्षेत्र के लोग आज भी इस मेले की पुरानी परंपराओं को जिन्दा रखने के लिए संधर्षरत है.

पूरे देश मे मनायी जाने वाली दिवाली के ठीक एक महीने बाद जब अमावस की रात अपने चरम पर होती है, इस क्षेत्र के हर गाँव के किशोर, युवा, प्रोढ और वृद्ध लकड़ी की मशालें जलाकर गीत गाते हुए जलूस की शक्ल मे नाचते हैं. जलूस गाँव की सामाजिक एकता को प्रदर्शित करता है. पूरी रात आस-पास के श्रेत्रों के अनैतिक तथा अवैध संबंधों को बखान करते अश्लील गीत गाये जाते हैं. हो सकता है गुणीजन इस बात को पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ लें किन्तु यह सब आज से नहीं, सदियों से चला आ रहा है. इन गीतों के पीछे का तर्क सामाजिक एवं जातिगत व्यवस्थाओं को मनोवैज्ञानिक तरीके से नियन्त्रित करना दीख पड़ता है. भले ही यह सिरे से खारिज किये जाने वाली मान्यतायें एवं परम्परायें हो लेकिन यहाँ इन गीतों के माध्यम से बदनामी एवं सामाजिक वहिष्कार का डर प्रत्येक इंसान को जरूर भयभीत करता होगा. रात खुलते समय का पारम्परिक गीत ‘सीताहरण’ गाया जाता है. इस गीत में जहाँ जीवन में प्रकृति एवं सुबह के महत्व के दर्शन को गाया जाता है वहीं लक्ष्मण का बारह बरस तक तूम्बे से पानी ढोना और फ़िर मना करना तथा सीता का राम से हिरण के चर्म का वस्त्र मोह और लक्ष्मण के लिए मात्र खाल के बचे टुकड़ों से बनी टोपी देने की बात आदर्श रामायण पर सवाल खड़े करती है. सूरज के आगमन के साथ पुरखों की बहादुरी के उपलक्ष में गायी जाने वाली बुढ़ियाच पर योद्धाओं के स्वाँग करते युवक और गीत गाते बुजुर्गों को देखना सुखद महसूस करवाता है.

नाथ संप्रदाय को समर्पित मतेउड़ा, जिसमें गुरु गोरखनाथ की स्तुति गायी जाती है. दिन के समय महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला गीत भिरुड़ी भाई-बहन के रिश्तों के प्रति समर्पण को बयान करता है. उसके बाद गाया जाने वाला गीत बिरसू महासू देवता को समर्पित गीत है. गीत के अनुसार बिरसू, जो महासू देवताओं का कारिन्दा था और इसी क्षेत्र में वसूली के लिए आते हुए टौंस नदी पार करते हुए टौंस नदी में गिर जाता है, बिरसू को तो महासू के नायब बचा ले जाते है किन्तु अनाज नापने का बर्तन (डोरिया) जो चाँदी का बना होता है, टौंस और यमुना में बहता हुआ दिल्ली पहुँच जाता है. वहाँ मछुआरे के हाथ लग यह बर्तन मुगल बादशाह के खजाने तक पहुँचने की घटना बादशाह को उसकी वजह से हुई शारीरिक तकलीफ़ फ़िर उसका इस पवित्र बर्तन को ससमान्न हनोल हर वर्ष घूप-दीप के वादे के साथ पहुँचाने की घटनाओं के वर्णन गीत के माध्यम से बड़े सहज एवं सरल भाव से किया जाता है. तदोपरान्त, केदरबाछा, जिसमें पाँडवों से नाराज केदार बछड़े का रुप धर कर उनको उनके कर्म गत फ़ल भोगने का वर्णन होता है. गाँव भर के किशोर, युवा, प्रोढ एवं वृद्ध इन पारम्परिक गीतों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. हर गीत अलग चाल एवं सुर में गाया जाता है. यह यहाँ की वैदिक प्रक्रिया है जो ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है. गीतों के साथ-साथ मेहमान नवाजी का दौर रहता है. गाँव एवं घर मे आये अथितियों का श्रेष्ठ सम्मान होता है. पूरा का पूरा श्रेत्र जातिवाद से ग्रसित है. ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य सभी गाँववासी घर में बनाई शराब मेहमानों एवं गाँव के मौजिज लोगों को परोसते हैं. शराब का सेवन व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर करता है, स्त्री, पुरुष इच्छानुसार सेवन के लिए स्वतंत्र है. खाने में माँसाहार के साथ-साथ पारंपारिक व्यंजनों को बनाया एवं परोसा जाता है. युवक एवं युवतियाँ इस दिन भी देर रात तक सामुहिक रूप से समसामायिक गीत गाते हैं और पंक्तिबद्ध नृत्य करते हैं.

अगला एवं अन्तिम दिन भी पारंपरिक एवं समसामायिक गीतों के साथ-साथ गाँव एवं श्रेत्र की हल्की फ़ुल्की घटनाओं पर स्थानीय कलाकार स्वाँग कर मेहमानों एवं गाँव वालों का मनोरंजन करते हैं. इस तरह यह कार्यक्रम दिन को पार करता हुआ पूरी रात चलता है. अन्तिम पहर में लकड़ी के लठ्ठों एवं कपड़े की चादरों से हाथी का पुतला बनाया जाता है. गाँव वाले उस हाथी को कँधों पर उठा कर राजा का वेश धारण किए गाँव के मुखिया को नृत्य करवाते हैं. सामन्तवादी परंपराओं के प्रतीक इस हाथी एवं हरिण नृत्य को अधिकतर गाँवों ने तिलाँजली दे दी है.

मैं इस दौरान जिस गाँव मे था वहाँ हाल के दिनों मे सड़क पहुँच गयी है. जहाँ सड़क से गाँव को जोड़ती पगडंडी के दोनों तरफ़ सरकारी ख़र्चे पर निर्मल ग्राम की तुकबन्दियाँ, जो मकान की दीवारों एवं पत्थरों पर लिखे सफ़ाई के नारों के रूप में विद्यमान देखी जा सकती है वहीं उसके आसपास खुले में विसर्जित मल न चाहते हुए भी देखना पड़ता है. कुछ एक परिवार है जिनके घरों में शौचालय बने हैं बाक़ी तो सब ऐसे ही चल रहा है. आज़ादी पूर्व महात्मा गाँधी का चलाया स्वच्छता अभियान वर्तमान प्रधान मन्त्री नरेन्द्र भाई मोदी के हाथों तक पहुँच चुका है किन्तु मेरे इस पड़ोसी गाँव को नौकरी परस्त शिक्षा व्यवस्था के अलावा फ़िलहाल में बनी यह सडक मिली है जिसकी वजह से इनकी थोड़ी बहुत तकलीफ़ें कम हुई है. इससे होने वाले नुक़सान तो भविष्य में नज़र आयेंगे जब चपरासी एवं बाबू की नौकरी के लिए गये युवा की वापसी नहीं होगी, जब सड़क बनाने के लिए उधाड़ी गयी ज़मीन दरकने लगेगी, जब गाँव के मौजीज शख़्स धरम सिंह का यह डर यक़ीन में बदल जायेगा कि बुढ़ापे में उसे कोई पानी पिलाने वाला भी नसीब न होगा. शिक्षा की चौपट व्यवस्था एवं भ्रामक प्रचार-प्रसार करते टेलीविजन से प्रभावित अर्ध शिक्षित युवक, युवतियाँ खेती बाड़ी एवं पशुपालन को अभिशाप समझते हैं. वो क़स्बों और शहरों में रहना चाहते हैं. युवक कुर्सी के तथा युवतियाँ सज-धज कर हाथ बाँधे दरवाज़े पर खड़ी हो पड़ोसन से रोज़मर्रा के इतिहास पर चर्चा करने के सपने देखती है. मेहनतकश समुदाय की यह भावी पीढ़ी इस छदम् विकास की बली वेदी पर क़ुर्बान होने को है.

 

स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.

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Sudhir Kumar

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