कुमाऊँ का प्रवेश द्वार हल्द्वानी व्यावसायिक नगर के साथ-साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भी अग्रणी रहा है. शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में विद्वानों की महफिलें आज भी यहाँ जुटती हैं. यद्यपि व्यावसायिक प्रवृत्ति के चलते हलके-फुल्के फूहड़ कार्यक्रमों की भी यहाँ बाढ़ आयी हुई है लेकिन साधना के बल पर अपने अभियान में जुटे कलाकारों ने यहाँ फूहड़ता को हावी नहीं होने दिया है. इसके पीछे यहाँ कलाकारों की एक लम्बी और समृद्ध परंपरा का ही हाथ है.
हल्द्वानी के इतिहास में ‘संगीत कला केंद्र’ ही सबसे वह पुरानी संगीत संस्था है, जिसने इस नगरी में शास्त्रीय संगीत के पैर जमाने की पहली कोशिश की. कला केंद्र की स्थापना 1957 में हुई. अनिरुद्ध कुमार गुप्ता ने 1965 में इस संस्था को अपने अधिकार में लिया. बाद में उन्होंने इसे तिकोनिया स्थित अपने आवास में ही स्थापित कर दिया.
1980 में ‘हल्द्वानी संगीत समिति’ नाम से एक संस्था का गठन हुआ. शास्त्रीय संगीत के विकास, प्रचार तथा जनता में रुचि पैदा करने के लिए इस संस्था ने सुप्रसिद्ध धमार गायक स्व. पं. चंद्रशेखर पन्त की स्मृति में 1982 से इस क्षेत्र में शास्त्रीय गायन तथा वादन की प्रतियोगिता प्रारंभ की. संस्था द्वारा देश के प्रसिद्ध कलाकारों को नगर में आमंत्रित किया गया. प्रथम बार 1980 में प्रसिद्ध तबला वादक मुन्ने खां तथा अन्य कलाकारों ने यहाँ कार्यक्रम किया. 1981 में कुछ समस्याओं के चलते आयोजन रुका लेकिन 1982 में नैनीताल के कलाकारों ने मंच पर कार्यक्रम किया. 1983 में ग्वालियर घराने के एल. के. पंडित से नगर का परिचय हुआ. इसी साल सरोद वादक सुप्रभात पाल व तबला वादक शीतल प्रसाद मिश्र (लखनऊ) ने भी नगर में अपनी कला का प्रदर्शन किया.
हल्द्वानी संगीत समिति के संयोजक मनोहर लाल साह ‘मुन्ना काकू’ का 10 जून 90 में निधन हो जाने से संगीत प्रचार कार्यक्रम को काफी ढाका लगा. इसके बाद 1982 में पं. चंद्रशेखर पन्त समिति का भी गठन हुआ. थोड़े बहुत प्रचार के बाद यह संस्था दुर्भाग्य से टूट गयी. मुन्ना काकू आजीवन शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित रहे, वे संगीतज्ञ होने के साथ-साथ अच्छे खिलाड़ी भी थे.
1982 से 1987 तक चंद्रशेखर जयंती समारोह करवाने में मुख्य संयोजक मुन्ना काकू ही थे. कार्यक्रम के लिए एक वार्षिक पत्रिका भी चाप करती थी. उस समय देश के विख्यात कलाकारों ने यहाँ अपनी प्रस्तुतियां दीं.
महेश नेपाली वायलिन के उन प्रवीण कलाकारों में से हैं जिनकी संगत जाने-माने पारखियों-उस्तादों में रही. उनके दादा धर्मवीर थापा नेपाल से पिथौरागढ़ आये और बाद में अल्मोड़ा पलटन बाजार में रहने लगे. वे आजाद हिन्द फ़ौज में सक्रिय हुए. उनके पिता बहादुर सिंह थापा भी आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहे. महेश नेपाली का बचपन बहुत अभाव और कष्ट में बीता. पिता की असमय मृत्यु के बाद उनकी माँ हरिप्रिया बच्चों को लेकर हल्द्वानी आ गयी. बाद में वे नैनीताल में नौकरी करने लगीं. उन दिनों नैनीताल में गुणी कलाकारों का जमावड़ा हुआ करता था. अध्यापिका स्मृति सान्याल की संगत से ही उनका रुझान संगीत की तरफ हुआ.
एक जमान गुजर गया जब शहर के हीरा बल्लभ पन्त नगर तथा आस-पास के संगीतज्ञों को जोड़ कर होली से पहले ही अपने आवास पर संगीत की महफिलें सजाया करते थे. इस महफ़िल में नगर के सभी होल्यार आया करते थे. छरड़ी के दिन विशुद्ध पहाड़ी खड़ी होली का आयोजन हुआ करता था. अंत में भोटिया पड़ाव के शिवमंदिर में होली विसर्जन के साथ कार्यक्रम संपन्न होता था.
जब शास्त्रीय संगीत की बात हो तो सुक्खन लाल को भला कैसे भुलाया जा सकता है. ग्वालियर घराने से ताल्लुक रखने वाले सुक्खन लाल का संगीत की पारंपरिक विद्या ध्रुपद, ख़याल गायकी में अधिकार था. वे अपने समय के सुरीले गायकों में माने जाते थे. हल्द्वानी की सड़कों में आवारा सा घूमता एक जानकार संगीतज्ञ भी हुआ करता था. मस्ताना बाबा नामक यह कलाकार गायन, वायलिन वादन में सिद्धहस्त था. बाद में लखनऊ में इनका निधन हो गया.
( जारी )
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 31
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