काठगोदाम व रानीबाग के बीच ऊँची पहाड़ी पर शीतला देवी का मंदिर है. अब यहाँ चहल-पहल बढ़ गयी है लेकिन पहले यहाँ वीरानी रहा करती थी. इस स्थान को शीतलाहाट नाम से भी जाना जाता है. कहा जाता है कि चंद शासन काल में यहाँ एक बाजार भी हुआ करती थी तथा नदी के उस पार बटोखरी की प्रसिद्द गढ़ी थी. यहाँ से कोटाबाग तक घनी बस्ती थी. गोरखा शासनकाल में यहाँ की गढ़ी भी नष्ट हो गयी. इसकी खोज भी अभी तक नहीं की जा सकी है. पहले यहाँ से हल्द्वानी नगर की सीमित आबादी को पेयजल की आपूर्ति भी हुआ करती थी. Forgotten Pages from the History of Haldwani-28
गौलापार से आगे चोरगलिया नाम से जाना जाने वाला इलाका भी तब एक बस्ती के रूप में था. कुछ लोग कहा करते हैं कि यहाँ चार गलियां हुआ करती थीं. इसी लिए इसे चौर गलियां और बाद में चोर गलिया कहा जाने लगा. यह भी कहा जाता है कि ‘चोर’ मतलब यहाँ छिपा हुआ से है यानि जंगल में छिपे हुए मार्ग ‘गल्याँ’ यानि गलियों से यह शब्द बना है. वैसे भी इस नाम को यहाँ की बोली में चोरगल्याँ नाम से ही जाना जाता है. चोरगलिया में पहले शुक्रवार को बाजार लगा करती थी. इस क्षेत्र को लाखनमंडी के नाम से भी जाना जाता है.
पुराने समय में गौलापार से लेकर चोरगलिया और आस-पास का इलाका बीहड़ जंगलों से भरा हुआ था. यह शेर, हाथी और अन्य जंगली जानवरों का उन्मुक्त विचरण का क्षेत्र हुआ करता था. वर्तमान में भी कभी-कभी हाथियों का झुण्ड सड़क पर दिखाई दिया करता है. यहाँ पर बहने वाले नन्धौर नदी जीवनदायनी है मगर बरसात में यह कहर भी बरपा दिया करती है. चोरपानी, पीलापानी आदि स्थानों पर जंगलात की चौकियां भी यहाँ बनी हुई हैं. खालिस्तानी आतंकवाद के दौरान पीलापानी के जंगलों और जंगलात की चौकियों को आतंकवादियों ने अपना अड्डा बनाया था.
कहा जाता है कि पुराने जमाने में भाबर के इस इलाके में डकैतों के भी अड्डे हुआ करते थे. सुल्ताना डाकू, जिसका वर्णन कॉर्बेट ने अपनी किताब में किया है, को यहाँ हल्द्वानी मुखानी या लामाचौड़ में गिरफ्तार किया गया था. प्यारे खां, रुस्तम खां का नाम भी यहाँ के डाकुओं में आता है.
सुल्ताना ठिगने कद का, गठीले बदन का डाकू था. उसके मन में गरीबों के लिए हमदर्दी थी. उसने कभी किसी दुर्बल व्यक्ति से पैसा नहीं छीना. वह गरीबों, असहायों की मदद भी किया करता था. गरीबों के घरों की लड़कियों के विवाह में मदद किया करता था और महिलाओं का उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं कर सकता था.
कहा जाता है कि एक बार उसके दल का डाकू किसी नवविवाहिता को उठा लाया था जिसे उसने उपहार देकर ससम्मान घर भिजवाया और डाकू को कड़ा दंड भी दिया. इसलिए जगह-जगह उसके विश्वासपात्र खबरी हुआ करते थे. उनकी मदद से वह चालाकी से अपनी गिरफ्तारी से बच जाता था. उसका आतंक न सिर्फ तराई के इस क्षेत्र में था बल्कि वह अन्य प्रान्तों में भी डाके डाला करता था.
सुल्ताना के बढ़ते आतंक के कारण तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर पारसी विंढम के अनुरोध पर 300 चुने हुए पुलिसकर्मियों के साथ सरकार ने एक विशेष डाकू निरोधक दस्ता भेजा. यह दल तराई भाबर के पुलिस सुपरिटेंडेंट फ्रेड एन्डरसन (फ्रेडी यंग) के मातहत सुल्ताना को पकड़ने का प्रयास एक लम्बे समय तक करता रहा. जिम कॉर्बेट ने अपनी पुस्तक में सुल्ताना डाकू के विषय में बहुत कुछ लिखा है. कॉर्बेट सुल्ताना डाकू को पकड़ने वाले दल में भी थे.
सुल्ताना ने वर्तमान होतीलाल-गिरधारीलाल फार्म के तत्कालीन मालिक लाला रतनलाल के वहां चिट्ठी भिजवाकर 20000 रुपये की मांग कर डाली. उस समय हल्द्वानी में मोहल्ले के लोग सड़क में चारपाई लगाकर सो जाया करते थे. चिट्ठी भेजने के बाद स्वयं सुल्ताना ही आ पहुंचा और लाला से तिजोरी की चाभी मांगी. सड़क पर लगी चारपाई पर लेते लाला ने सुल्ताना को चाभी दे दी.
सुल्ताना ने तिजोरी खोली तो वह आश्चर्य से भर गया क्योंकि तिजोरी में बेशुमार धन था. सुल्ताना ने लाला से बोला कि ‘मैंने तो सिर्फ 20000 रुपये की मांग की थी फिर मुझे चाभी क्यों दी’ तब लाला ने कहा तुम्हारी जुबान पर भरोसा है तुम 20000 से ज्यादा नहीं लोगे. इसके बाद सुल्ताना बगैर पैसा लिए ही लौट गया. लेकिन लाला ने उस पैसे से मथुरा में कुंए खुदवाए, धर्मशालाएं बनवायीं. उसी पैसे से एम.बी. स्कूल के लिए भी जमीन ली गयी. Forgotten Pages from the History of Haldwani-28
जारी…
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इस किस्से को पढ़कर हैरत होती है कि ऐसे ( सुल्ताना ) डाकू रहे हैं !! और एक आजकल के समाजसेवी, नेता हैं, जिनके बारे में सोचकर ही मन में डर - गुस्सा भर जाता है ।