(जगमोहन रौतेला की रपट)
कुमाउनी लोकजीवन के ऋतुरैंण, न्योली, छपेली, धुस्का व चैती आदि विभिन्न विधाओं की लोकप्रिय लोकगायिका रही कबूतरी देवी के जीवन पर आधारित वृत्तचित्र ‘अपनी धुन में कबूतरी’ का पहला प्रदर्शन 16 सितम्बर 2018 को राजकीय आदर्श कन्या इंटर कॉलेज, तल्लीताल, नैनीताल में किया गया. उत्तरा पत्रिका, युगमंच, नैनीताल फिल्म सोसाइटी और फ्लोमिंग फिल्म्स द्वारा संयुक्त रुप से तैयार की गई इस दस्तावेजी फिल्म में कबूतरी दीदी के लोकजीवन में झॉकने की कोशिस की गई है. वृत्तचित्र का सम्पूर्ण फिल्मांकन उनके पिथौरागढ़ के गॉव में ही घर पर किया गया है. जिसमें उनसे बातचीत के आधार पर उनकी लोक गायिकी और उनके जीवन सन्दर्भों के विभिन्न आयामों को आमजन के सामने रखा गया है.
उत्तराखण्ड के चम्पावत जनपद के लेटी गॉव में कबूतरी दीदी का जन्म 1939 में हुआ था. एक मीरासी परम्परा वाले परिवार में जन्म लेने के कारण लोकगीत व संगीत उन्हें विरासत में मिला था. उनके पिता देवी राम व मॉ देवकी देवी भी लोकगायक थे. कबूतरी देवी ने बचपन से ही अपने कानोें से घर में ऋतुरैंण, न्योेली, छपेली के मधुर स्वर सुने. जो उम्र बढ़ने के साथ ही उन्हेम अंदर से आह्लादित करने लगे. उन दिनों छोटी उम्र में ही शादी हो जाती थी. सो कबूतरी दी की शादी भी 13 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही 1952 में पिथौरागढ़ जिले के क्वीतड़ गॉव के दीवानी राम के साथ हो गई थी. दीवानी राम उस जमाने में मीडिल तक पढ़े थे और लोकगायन में उनकी भी रूचि थी. शादी के बाद उन्होंने ही कबूतरी देवी को अपना गायन जारी रखने को प्रेरित किया. उनके चचिया ससुर भानुराम सुकोटी भी मीरासी परम्परा के अद्भुत गायक थे.
अपने पति द्वारा प्रेरित किए जाने के कारण ही कबूतरी देवी के गीत 1970-80 के दशक में आकाशवाणी के लखनऊ, नजीबाबाद, रामपुर, मुम्बई केन्द्रों में रिकार्ड हुए और जन – जन तक पहुँचे. जब भी आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से गीतों की रिकार्डिंग के लिए कबूतरी दीदी को बुलावा आता तो वह अपने पति के साथ ही जाती थी. दीवानी राम को राजनीति का भी शौक था. इसी कारण वह लोगों में नेता जी के नाम से जाने और पहचाने जाते थे. फक्कड़ प्रवृत्ति के दीवानी राम ने कभी भी अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने की ओर ध्यान नहीं मिला. पति – पत्नी को आकाशवाणी के गायन से जो भी मेहनताना मिलता उसे वे लोगों की आव – भगत में खर्च कर देते थे. इसी कारण कबूतरी देवी का परिवार हमेशा आर्थिक तंगी से जूझता रहा. इसी बीच उनके पति का आकस्मिक निधन हो गया तो घर में बच्चों के पालन – पोषण में ही कबूतरी देवी का समय व्यतीत होने लगा और साथ ही सार्वजनिक रुप से उनके गायन पर भी धीरे – धीरे विराम लगता चला गया, क्योंकि बच्चों के अकेले होने के कारण कहीं से बुलावा आने पर भी वह गाने के लिए नहीं जा पाती थी.
पति की मौत के बाद घर के काम की अधिकता के कारण बीमार रहने लगी. उन्हें कई तरह की बीमारियों ने घेर लिया. बाद में संस्कृति कर्मी हेमराज बिष्ट, उत्तरा महिला पत्रिका की सम्पादक उमा भट्ट के प्रयासों से कबूतरी दीदी एक बार फिर से उत्तराखण्ड के विभिन्न शहरों देहरादून, हल्द्वानी, पिथौरागढ़ व दिल्ली, गाजियाबाद, मुम्बई, भोपाल, चंडीगढ़ आदि स्थानों में गायिकी के कार्यक्रम होने लगे, जिनमें उनकी छोटी बेटी हिमन्ती उनके साथ जाती थी.
वृत्तचित्र में अपने साक्षात्कार में कबूतरी दीदी ने स्वीकार किया कि बच्चों को पालने के लिए उन्होंने हाड़तोड़ मेहनत व मजदूरी की. सिर में पत्थर ढोकर घर का निर्माण किया. अपने स्वभाव के बारे में कहती हैं कि वह बचपन से ही बेहद शर्मिले स्वभाव की थी और शादी के बाद अपने पति से भी बोलने में भी उन्हें पॉच साल लग गए थे. अपने गायन के प्रति वह इतनी समर्पित थी कि जब भी आकाशवाणी से गाने का बुलावा आता तो वह दो दिन पहले से खाना छोड़ देती थी, केवल पानी ही पीती थी. वह कहती हैं कि खाना खाने के बाद गाना गाने से उनका सॉस फूसने लगती थी और वह ” अन्दर ” से नहीं गा पाती थी. भूखे रहकर वह जब भी गाती तो गीत के स्वर जैसे नाभी से निकलते थे, तब ही उन्हें भी गाने में आनन्द आता था.
‘कबूतरी अपनी धुन में’ वृत्त चित्र में कबूतरी दीदी को बोलते, चलते और गीत गाते हुए देखना एक सुखद अहसास तो कराता है, लेकिन उनका पूरा साक्षात्कार हिन्दी में होने के कारण यह भी लगता है कि जैसे अपने जीवन के बारे में बताते हुए वह खुलकर नहीं बोल पाई, क्योंकि हिन्दी उनकी अपनी बोलचाल की भाषा बिल्कुल नहीं थी. वह उन्हें मजबूरी में घर से बाहर जाने पर बोलनी पड़ती थी. इसी वजह से उनका जीवन वृत्त देखते हुए लगता कि जैसे बहुत कुछ उनके बारे में अनकहा रह गया. उनके द्वारा गाए गीत व उनको विरासत में मिले संगीत का पक्ष भी खुलकर सामने नहीं आ पाया. उनके विभिन्न स्थानों में दिए गए कार्यक्रमों के दृश्यों को भी वृत्तचित्र में शामिल नहीं किया गया, पता नहीं क्यों ? इसके अलावा उनके बारे उनके नजदीक के लोगों व उनके समकालीन कुछ लोकगायकों से भी बात की जाती तो और बेहतर होता. वृत्तचित्र की समयावथि को 42 मिनट से अधिक रखकर इस सब की पूर्ति की जा सकती थी.
इस तरह की अपेक्षा इसलिए है कि एक लम्बी बीमारी के बाद गत 7 जुलाई 2018 को कबूतरी दीदी हम सबसे हमेशा के लिए विदा हो गई और अब उनके बारे में कोई वृत्तचित्र नहीं बनाया जा सकता है. ऐसा वृत्तचित्र जिसमें वह खुद बोल रही हों. इसके बाद भी निर्देशक संजय मट्टू, निर्माता उमा भट्ट, साउंड मिक्सिंग आर्टिस्ट अशहर फारुखी व निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण राय देने वाले रंगकर्मी जहूर आलम की सराहना इसलिए की जानी चाहिए कि उन्होंने एक दौर में गुमनाम हो चुकी कबूतरी दीदी पर वृत्तचित्र बनाकर उन्हें हमेशा के लिए जीवन्त कर दिया है. जिसमें वह बोलती हैं, हँसती हैं, गाती हैं, हारमोनियम बजाती हैं, चलती हैं और अपने जीवन के कई तरह के पलों को सिद्दत के साथ याद करती हैं.
(सभी फोटोे :—- जगमोहन रौतेला)
जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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