वैश्वीकरण और बाजारीकरण की आंधी में लोकोत्सवों, स्थानीय त्यौहारों का वजूद ख़त्म होता जा रहा है, या फिर उनका मूल स्वरुप लुप्त होता जा रहा है. उत्तराखण्ड के भी कई मेले, त्यौहार अपना मूल स्वरुप खोते जा रहे हैं या फिर विलुप्त होने के कगार पर हैं. करवा चौथ एक ऐसा त्यौहार है जिसे उत्तराखण्ड में कुछ साल पहले तक नहीं मनाया जाता था. सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इसका कोई वजूद नहीं है. तिलिस्मी टेलीविजन धारावाहिकों और हिंदी सिनेमा में इस त्यौहार को परोसे जाने ने 90 के दशक में इसे देश विभिन्न शहरों, कस्बों के साथ-साथ उत्तराखण्ड की महिलाओं के बीच भी लोकप्रिय बना दिया. अब यह त्यौहार उत्तराखण्ड के कई शहरों-कस्बों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है.
करवा चौथ से ही मिलता-जुलता त्यौहार हैं वट सावित्री. इस त्यौहार को उत्तराखण्ड समेत कुछ राज्यों में पारंपरिक रूप से मनाया जाता रहा है. यह कहना गलत न होगा कि अब यह त्यौहार विलुप्त होने की कगार पर पर है. यह त्यौहार ज्येष्ठ मास, कृष्णपक्ष में मनाया जाता है. पति की दीर्घायु, अखंड सौभाग्य, पुत्र-पुत्रों द्वारा वंश वृद्धि और परिवार की सुख, शांति, समृद्धि के लिए महिलाओं द्वारा यह त्यौहार मनाया जाता है.
इसमें वट वृक्ष और सावित्री दोनों का अपना विशिष्ट महत्त्व है. वट वृक्ष अपनी विशालता और चिरायु के लिए जाना जाता है. भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. यथा इसे ज्ञान एवं निर्वाण का प्रतीक भी माना जाता है. पुराणों में वट वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का वास बताया गया है. इसीलिए भी पति की दीर्घायु और सौभाग्य के लिए इसे पूजे जाने की परंपरा है. इस त्यौहार में महिलायें व्रत रखकर वट वृक्ष की परिक्रमा कर इसके चारों ओर सूत का धागा लपेटती हैं.
वट सावित्री में वट वृक्ष का पूजन कर सावित्री-सत्यवान की कथा का पाठ किया जाता है. हिन्दू परंपरा में सावित्री को एक ऐसी सौभाग्यशाली महिला के रूप में जाना जाता है जिसने यमराज से अपने पति को छीन लिया था. वट वृक्ष के नीचे ही सावित्री ने अपने पति सत्यवान को पुनर्जीवित किया था. सावित्री की पूजा किये जाने के विधान के कारण इसे वट सावित्री कहा जाता है. सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी माना जाता है.
सावित्री के जन्म के बारे में कहा जाता है कि भद्रदेश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी. संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने अठारह वर्षों तक मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं. इससे प्रसन्न होकर सावित्री देवी ने प्रकट होकर उन्हें एक तेजस्वी कन्या के पैदा होने का वर दिया. सावित्री की कृपा से जन्म लेने वाली कन्या नाम भी सावित्री रखा गया. इस रूपवान कन्या के बड़े हो जाने पर भी कोई योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे. उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा. वर की तलाश में सावित्री तपोवन में भटकने लगी. वहां साल्व देश के सत्ताचुत राजा द्युमत्सेन रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था. उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण करना चाहा. सावित्री के पिता को भी सत्यवादी, सर्वगुण संपन्न सत्यवान अपनी पुत्री के वर के रूप में पसंद था. वेदों के ज्ञाता सत्यवान अल्पायु थे इसी वजह से नारद मुनि ने सावित्री को सत्यवान से विवाह न करने की सलाह भी दी थी इसके बावजूद सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया.
एक वर्ष बीत जाने के बाद पिता की आज्ञानुसार सत्यवान लकडियां और फल लेने वन में गए. उनके साथ सावित्री भी थीं. यहाँ नियतिनुसार सत्यवान की वृक्ष से गिरकर मौत हो गयी. यमराज ने उनके सूक्ष्म शरीर को लेकर यमपुरी को प्रस्थान किया तो सावित्री भी साथ चल पड़ी. यमराज ने सावित्री को समझाया कि मृत्युलोक के शरीर के साथ कोई यमलोक नहीं आ सकता अतः अपने पति के साथ आने के लिए तुम्हें अपना शरीर त्यागना होगा. सावित्री की दृढ निष्ठा और पतिव्रतधर्म से प्रसन्न होकर यम ने एक-एक करके वरदान के रूप में सावित्री के अन्धे सास-ससुर को आँखें दीं, खोया हुआ राज्य दिया, उसके पिता को सौ पुत्र दिये और सावित्री को लौट जाने को कहा. परन्तु सावित्री अपने प्राणप्रिय को छोड़कर नहीं लौटी. विवश होकर यमराज ने कहा कि सत्यवान को छोडकर चाहे जो माँग लो, सावित्री ने यमराज से सत्यवान से सौ पुत्र प्रदान होने का वरदान मांग लिया. यम ने बिना सोचे प्रसन्न मन से तथास्तु भी कह दिया. यमराज के आगे बढ़ने पर सावित्री ने कहा- मेरे पति को आप साथ अपने लेकर जा रहे हैं और मुझे सौ पुत्रों का वर दिये जा रहे हैं. यह कैसे सम्भव है? मैं पति के बिना सुख, स्वर्ग और लक्ष्मी, किसी की भी कामना नहीं करती. बिना पति के मैं जीना भी नहीं चाहती।. वचनबद्ध यमराज ने सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को सावित्री को लौटा दिया और सत्यवान को चार सौ वर्ष की आयु भी प्रदान की.
इसी पतिव्रता सावित्री की पूजा का विधान वट सावित्री में किया जाता है. परंपरा के अनुसार पूजा गृह की दीवार पर वट सावित्री का चित्रण किया जाता है. आजकल इस चित्रण के कागजी पोस्टर बाजार से खरीदकर दीवार पर लगाया जाता है. इस पोस्टर में सावित्री, सत्यवान और यमराज चित्रित किये होते हैं. एक वट वृक्ष के नीचे सावित्री सत्यवान का सर अपनी गोद में लिए यमराज से याचना करती बैठी होती है. सत्यवान के मृत शरीर के आगे कुल्हाड़ी व काटी हुई लकड़ियों गट्ठर बना होता है. यमराज सत्यवान की आत्मा कि डोर को थामे हुए रहते हैं. इस सावित्री पट्ट की सस्वर पूजा की जाती है. श्रृंगार का सामान्य अर्पित कर सौभाग्य की कामना की जाती है. सावित्री के आशीर्वाद की प्रतीक डोर भी गले में पहनी जाती है. इस तरह वट सावित्री का यह त्यौहार उत्तराखण्ड की महिलाओं की आस्था एवं विश्वास प्रतीक है.
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