हिंदी साहित्य में छायावाद के प्रमुख कवियों में पंत, प्रसाद, निराला व महादेवी वर्मा का नाम सभी जानते हैं लेकिन छायावादोत्तर काल में जिन पर्वतीय कवियों ने अपनी कालजयी रचनाओं से हिंदी कविता को एक नई दिशा दी और लोक में एक नया चिंतन विकसित किया उनमें कवि चंद्रकुंवर वर्त्वाल और डॉ पार्थसारथी डबराल का नाम अग्रणी पंक्ति में है. यह दोनों महाकवि सुमित्रानंदन पंत की परंपरा से अनुस्यूत हैं. यही कारण है कि पंत जी ने जहां डॉ पार्थसारथि डबराल की काव्य-प्रतिभा की प्रशंसा की वहीं महाकवि निराला ने चंद्रकुंवर की सराहना की है. Dr Partha Sarthi Dabral
इन दोनों परवर्ती कवियों की कविता में हिमालय और उसकी संस्कृति की छटा तथा रूप विभव का सहृदय संवेद्य चित्रण का पाया जाना है. पंत जी ने “डबराल में मर्मव्यथा का दंश और भावना का वैभव है” यह पंक्ति लिखकर उनके महत्व को स्वीकार किया है तथा उनकी कविता की विशेषता का भी आकलन कर दिया. उनके शोध प्रबंध को प्रख्यात आलोचक प्रो शंभू प्रसाद बहुगुणा ने डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल के बाद दूसरे नंबर पर प्रतिष्ठित करते हुए उनके पाण्डित्य एवं श्रम भूरि-भूरि प्रशंसा की.
छायावादोत्तर काव्य के व्यंग्य लेखकों में काका हाथरसी, ग़ज़लकारों में वीरकुमार अधीर और शेरजंग गर्ग ने भी डबराल की प्रतिभा की सर्वत्र सराहना की है. महान कथाकार शैलेश मटियानी और क्रांतिदर्शी कवि श्रीराम शर्मा प्रेम ने इन्हें युगपुरोधा कवि मानकर उनकी कविता के स्वर को दून घाटी में वासन्तिक कोकिल के समान सत्कृत किया.
डॉ डबराल ने संस्कृत और हिंदी दोनों में अबाध गति में लिखा और अपने लिए स्वयं मार्ग निर्माण किया. उन्होंने अनेक नवोदित साहित्यकारों का पथ प्रशस्त किया था. ऋषिकेश में साहित्यिक जागृति लाने के लिए उन्होंने लोकप्रिय साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना की थी. समालोचना के क्षेत्र में उनकी स्पष्ट दृष्टि थी. वे साधक कवियों के प्रशंसक थे तथा बिना श्रम के कवि बनने और बनाने वालों से असंतुष्ट रहते थे. उनकी वाकपटुता के सभी कायल थे. Dr Partha Sarthi Dabral
डॉ लक्ष्मी विलास डबराल ‘पार्थसारथी’ का जन्म 25 फरवरी 1936 को तिमली गांव, डबरालसयूँ पट्टी, पौड़ी गढ़वाल में हुआ था. इनके पिता पंडित वाणीविलास शास्त्री अपने युग के प्रसिद्ध कथावाचक रहे वहीं इनके दादा पंडित सदानन्द डबराल बीसवीं सदी के संस्कृत के विद्वानों में अग्रणी थे. उनके संस्कृत महाकाव्य नरनारायणीयम, रास विलास और कीर्ति विलास, दिव्य चरित् आदि प्रसिद्ध हैं जो आज भी विद्वानों में चर्चा का विषय बने हुए हैं.
डॉ डबराल को अपनी सनातनी सरस्वती वंश परंपरा से स्वयमेव अद्भुत प्रतिभा प्राप्त हुई थी. वे धाराप्रवाह संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू और बंगला बोलते थे. हिंदी के तो वो एक सफल भूचाल माने ही जाते थे. उनकी कालजयी कृतियों में धरती से पृथ्वी, निर्वासित सेनापति, रेत की छाया, नारीतीर्थ और चित्रपतंग आदि उल्लेखनीय हैं. चित्रपतंग में उनकी कल्पना की उड़ान है. द्विपान्तरा उनका प्रकाशित हिंदी महाकाव्य है जिसमें कवि कौंडिल्य की कथा को रचित कर डॉ डबराल ने वर्तमान समय की सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक समस्याओं को समाधानित करने का प्रयास किया है.
इस महाकाव्य रचना के बाद यह महाकवि 7 फरवरी 2002 को अपने वृहद साहित्य को यहीं छोड़कर स्वयं यशः काय बन गया उनके जयंती के अवसर पर छायावादोत्तर काल के इस प्रतिभासंपन्न कवि को साहित्य-जगत नमन करता है. Dr Partha Sarthi Dabral
डॉ नागेंद्र ध्यानी ‘अरुण ‘
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