काफी समय बाद बस से यात्रा की. यात्रा देहरादून से रानीखेत की थी. मैदान से पहाड़ों की बसों में बजाए जाने वाले गीत कुछ इस प्रकार होते हैं— उदाहरण के तौर पर देहरादून से हरिद्वार तक देशी छैल छबीले गीत, हरिद्वार से नजीबाबाद तक निरपट धार्मिक गीत, नजीबाबाद से हल्द्वानी तक 80 के दशक के रोमांटिक गीत और हल्द्वानी से रानीखेत तक सिर्फ पहाड़ी गीत. पूरी रात, मैं इन गीतों से लगभग ऊब चुकी थी और अब पूरी रात यात्रा के बाद बस पहुंचने वाली ही थी. (Column by Neelam Neel)
हल्द्वानी में गाड़ी एक घंटा रुकती है. अतः हल्द्वानी से निकलने के बाद मैंने कंडक्टर से पूछा “भाई सुबह कितने बजे रानीखेत पहुंचेंगे” इस पर वह बोला “एक जगह चाय के लिए रुकते हैं ताकि थोड़ा समय निकल जाए. शायद हम एक दम अंधेरे में नहीं पहुंचेंगे.” ‘अच्छा ठीक है’ कहकर मैं आश्वस्त हो गई.
चाय की दुकान में पहुंचते हुए पौने चार बज चुके थे. करीब आधा घंटा चाय के लिए रुकने के बाद फिर गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली. अरे ये क्या? गाड़ी पांच बजकर तीस मिनट पर ही के. एम. ओ. यू. स्टेशन रानीखेत पहुंच गई. मैंने बाहर देखा तो धुप्प सा अंधेरा. मेरा घर मुख्य बाज़ार में तो है नहीं, बाजार से एकदम नीचे गहराई में उतरना होता है. कैंट क्षेत्र के अधिकतर आवारा कुत्ते वहीं गश्त करते हैं. मैंने मन को समझाया कि कोई बात नहीं चली जाऊंगी. सुबह-सुबह कुत्तों के झुंड लगातार भौंक रहे हैं. थोड़ा ढलान से उतरने के बाद मैंने सोचा कोई दुकान खुले तो कुछ देर वहां बैठ जाऊं किन्तु कोई भी दुकान खुली ही नहीं है. पिताजी ने घर भी गधेरे में क्यों बनाया होगा मन ही मन सोचा. फिर सोचा कि ईजा को बुलाऊं लेकिन मन ने कहा नहीं यह सही समय नहीं रहेगा, इतने अंधेरे में कहीं वह गिर गई तो.
बहुत पहले यहां रात्रि का चौकीदार घुमा करता था. ‘जागते रहो,’ ‘जागते रहो’ की आवाज सुनाई देती थी, लेकिन शायद अब ऐसा कुछ नहीं है. मुझे लगा साढ़े पांच बजे के बाद शायद कुछ लोग सुबह की सैर पर निकलते तो होंगे लेकिन कोई प्राणी सड़क पर दिख ही नहीं रहा था.
बचपन में हम ऐड़ी की कहानियां सुनते थे, ऐढ़ी एक उल्टे पैर वाला भूत. मैं सोच रही हूं अभी ऐड़ी ही मिल जाता तो घर तक छोड़ देता. इन भौंकते आवारा कुत्तों से तो ऐड़ी ही लाख गुना अच्छा होता. घर के पास ऊपर वाले खेत तक जैसे ही पहुंची तीन चार कुत्ते बहुत तेज आवाज के साथ मुझ पर भौंकने लगे. अभी मैं उनसे बचने का उपाय सोच ही रही थी कि अचानक मां की आवाज सुनाई दी, तभी मेरी जान में जान आयी. मां के कान तो बाहर की हर आवाज लगे थे, मेरे ही इंतजार में.
विगत समय को याद करो तो लगता है इस पहाड़ में, हमने आग से भी पेट भरा है. भूख के साथ-साथ ठंड भी हड्डियों के अंदर जाकर जागरण करती रही है. एक अदद जलती हुई अंगेठी आधा पेट भर देती थी. रात दिनभर की उबासियों के साथ ठंडी होकर निस्तब्ध गति से अपनी गहनता में मग्न है. मुझे शुरू से ही दिन में भी ठहरी हुई सी आवाजें अनंत एकांत में गूंजती हुई प्रतीत होती रही हैं और रात एक अजीब सी गहराती आवाजों में कुछ कहने की पुरजोर कोशिश करती लगती है.
बहुत से लोग चले गए उनके कर्म भी उसी गति से मंद होकर इतिहास की किसी ओट में मुंह ढक कर कभी दिखाई नहीं देने की शर्त पर खामोश हैं और मैं घड़ी की टिक-टिक के साथ अंधेरे को सुनने का प्रयास कर रही हूं.
बचपन की एक सहेली, अनब्याही लड़की, जो अब मेरी ही तरह चार दशक के जीवन के खेल को देख चुकी है और अपने कुंवारेपन पर व्यंग करती हुई अचानक हंसने लगती है. उसकी हंसी में यौवन की खिलखिलाहट नहीं बल्कि उम्र का तजुर्बा है और किंचित तनाव भी है. वह विचलित करती हंसी मुझे अचरज में डाल देती है.
वैसे इतनी अधिक रात भी नहीं हुई है, किन्तु पहाड़ जल्दी सो जाते हैं. ऐसे में रात के सन्नाटे को चीरती हुई उसकी हंसी मुझे व्यग्र कर रही है अपने जैसे अधेड़ हो आए भाई के साथ, गुजर गए माता पिता से लेकर उस बाखली के हर एक गुजरे हुए प्राणी को याद करते हुए वह उनकी खोखली जिंदगी पर मजाक बनाते हुए कहती है— कि यहां से गुजर जाने वाले सब भूत बनकर उसकी हंसी सुन रहे होंगे. एकाएक वह एक चुप्पी ओढ़ लेती है. लड़की का चेहरा ज़र्द पड़ गया है… अब लड़की बारिश सी हंसी नहीं बरसाती! अब वह सर्द जाड़े सी जम रही है… उसने बाहर झांका तो उसे इतने अंधेरे में भी पहाड़ों पर बर्फ की मोटी जमी हुई सफेद चादर की चमक दिख रही है.
सोने से पहले लड़की उठकर एक बार फिर से दरवाजे की कुण्डी को जांच लेती है, फिर अचानक ठहाका लगा कर कहती है “साले जिंदा में कौन सा किसी का कुछ बिगाड़ सकते थे, जो मरने के बाद शक्तिशाली भूत बनेंगे.” फिर वह अपने भाई को संबोधित करती हुई कहती है “चल सोने से पहले बाहर हो आते हैं, ऐसे मरे हुए भूतों से क्या डरना. ज्यादा रात को बाहर जाने पर कुकरी बाघ का डर भी है. कुकरी बाघ करता तो कुछ नहीं है, एक ढूंग मार कर भगा दूंगी, वैसे भी जो खुद मरना चाह रहा हो उसको कोई कैसे मार सकता है?”
एक सांस में कही हुई उसकी अजीबोगरीब बातें उसकी मनःस्थिति बयां कर रही थी.
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उस निडर लड़की की हर बात पर मैं सोच रही रही हूं कि यह घर जो अपने लगभग सौ वर्ष पूरे कर चुका है, इस बीच कई लोगों के आने जाने को करीब से देख चुका है. इसकी हर दीवार उन लोगों की बातें सुनकर उनको जीवन के अनन्य दुखों में साहस तो देती ही हैं किन्तु उदासियां भी बहुत देती है. मेरा यह घर कैसा भुतहा सा हो चुका है. चारों ओर सिसौण की झाड़ियों के उग आने से अब दूर से इसकी सिर्फ छत दिखाई देती है. बचे हुए लोग यंत्रवत वही काम कर रहे हैं जो आज से चालीस साल पहले से करते रहे हैं. शाम को अंगीठी के धुएं के बीच ‘दौ पै’ कहती हुई मां यही कहना चाहती है— अब बचा भी क्या है बस दिन ही तो काटने हैं किसी तरह से कट ही जाएंगे.
किन्तु दिन क्यों काटने हैं मां? मैंने प्रश्न दागा. फिर खुद ही उत्तर दिया— ध्यान क्यों नही कर सकते? ध्यान चेतना में प्रत्येक जीवन को आपके समक्ष रख कर यह एहसास दिलाएगा कि सालों से एक प्राण यही सब करते-करते थक गया है. बरसों से आने-जाने वाले प्रिय लोग, जीवन के कई मोड़ों से गुजर फिर से हमसे मिलने वाले हैं, अतः उनके दु:ख में खुद को भूल जाना भी सही नहीं. ध्यान चेतना में हमको हमारे हर जीवन के हिसाब किताब से अलग सहज स्वागत योग्य मृत्यु के लिए मानसिक, भावनात्मक रूप से तैयार करता है.
मां को कुछ समझ नहीं आया तो बोली “ध्यानै ध्यान छू, राति बटि ब्याव तक कामैं काम छू, तू लगा ध्यान भियान. म्यर ध्यान अब भलिके लगौल.”
क्या कहूं मां को, यह सोचकर मैं पुरानी अलमारी के ऊपर रखी पिता की पुरानी तस्वीरों को गौर से देखने लगती हूं. ऐसा लगा कि हर तस्वीर रात को ज्यादा सक्रिय हो जाती है. वे जैसे आसपास ही रहती होंगी और सौ वर्ष के अपने घर को सलाम करती होगी.
10 बजे पहाड़ के हिसाब से आधी रात हो चुकी है, मैं फिर भी मां से सवाल कर रही हूं— सो गई क्या? बोलते-बोलते जब मां सो जाती है तो मैं कई बार आशंकित होकर उसे झकोर कर उठा देती हूं. इस पर मां कहती है तूने क्या सोचा? कि मर गई मैं. फिर हम दोनों खिलखिलाकर हंसने लगती हैं.
सोते हुए वह धीमी आवाज में कह रही है सो जा तू भी आधी रात हो गई है. तू सो चाहे न सो, पर इस रात को ही चैन से सोने दे. तू तो अर्ध रात्रि की भूत है. आजकल पता नहीं चलता कब रात ब्या जाएगी, सुबह उठना होता है.
आह! मां अनजाने में कितनी सुंदर बात कह गई कि रात को भी सुबह उठना होता है और रात कब ब्या जाए. मां नींद की गुप्त बातों में खो चुकी है अब मां के कानों में मेरी आवाज बस गूंज रही थी और वह हां, हूं करके मुझे अनसुना करने लगी थी. मुझे लगा कि अब मेरा सो जाना ही इस निश्तब्ध निशा से लड़ने का एक मात्र विकल्प है.
उस लड़की की हंसी और पूर्वजों पर किया जाने वाला मजाक जारी था और मैं सन्नाटे को ध्यान से सुनने का प्रयास कर रही थी. गहराता सन्नाटा— किसी मेले के उजड़ जाने के बाद सा, इक वही काश! का पछतावा सा और किसी के लिए चेतना जाग्रत करने का उत्तम समय. अन्धकार के विकट बैरी अंशुमाली के निकलने से पहले पूरी बाखली अपनी उसी दिनचर्या को दोहराने के लिए तैयार हो जाती है.
कोई दिवास्वप्न ऐसा नहीं है, जो उस विशेष वर्ग को इस दिनचर्या से विलग कर स्वयं को किसी अंतः पृष्ठभूमि पर देखने भर की चेष्टा करता हो. मैं भी मूक होकर मां की उस दिनचर्या का हिस्सा होना स्वीकार कर रही हूं पर जानती हूं इस बीच समय हम पर मुस्करा रहा होता है जैसे कह रहा हो अन्धकार गया, रात गई, प्रातः कालीन संध्या भी गई और अब भास्कर निकल आने को तत्पर है. किन्तु भास्कर के निकल आने पर भी कई लोग बहुत पीछे छूट गए या सोए रह गए. समय कहता है, ये रात इस लोक से चली जाएगी और रात के साथ कई लोग भी. कुछ रातें बहुत लंबी होती है उनमें सुबह की खोज करने वाले कई बार गुम हो जाते हैं. अत्यंत दुःख अथवा अत्यंत सुख में मनुष्य पतन के मार्ग पर भी जा सकता है और जीवन के उच्च सोपानों की समझ पर यह समय मनुष्य को अध्यात्मिक भी बनाता है. दु:ख की भूमिका इसमें अधिक महत्वपूर्ण है. जब जिंदगी से तंग आ जाओ तो सही मौका होता है इससे निवृत्त होने का. हर उस बुरी आदत से निवृत होने का अवसर जिसके आप और हम आदि हो चुके होते हैं. यह समझ समय को खोने के बाद ही बनती है.
सामने हिमाच्छादित हिमालय शिव स्वरूप साक्षी बने हुए हैं हर परिवर्तन के. सौ साल के इस टूटते हुए घर ‘दुर्गाभवन’ की कई स्मृतियां आगे भी जारी रहेंगी…
भितेरोक भीनेर दप दप करूरों
जाण कतु दिन जगमगाल
आज छू, भौ नैह जाल
कतु नैह गयीं, उनार आत्मा यती रैजै
मकान खंडहर जास है जानि
हर ढूंग क्ये कुण चां
कोई मनल सुणौलौ तो सुण सकूं.
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नीलम पांडेय ‘नील’ देहरादून में रहती हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं छपती रहती हैं. काफल ट्री में प्रकाशित नीलम पांडेय ‘नील’ के अन्य लेख:
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