कुछ लोग बड़े करिश्माई व्यक्तित्व के होते हैं. जटिल से जटिल परिस्थिति में भी सटीक समाधान देते हैं. समाज से उनका सीधा संपर्क बना रहता है, जिसके चलते वे छोटी-छोटी बातों में भी दूर की कौड़ी ढ़ूँढ़ लाते हैं. (Column by Lalit Mohan Rayal)
छह फुट ऊँचा हृष्ट-पुष्ट शरीर, रोली लगा उच्च भाल, सिर पर श्वेत टोपी, सुदीर्घ नासिका, कानों में झूलते वृहदाकार स्वर्ण-वलय, चौड़े कंधे, लाल कुर्ता-सफेद धोती, उन्होंने आजीवन यही बाना धारण किया.
ताऊ जी का वाह्य व्यक्तित्व इलाके में किंवदंती बन चुका था. दुःखी, तिरस्कृत व अपमानित व्यक्ति उनके सानिध्य में आत्मबल से परिपूर्ण व योद्धा सा सामर्थ्यवान बन जाता. पाश्चात्य चिंतक उन्हे अराजक व विद्रोही घोषित करने में क्षण भर का विलंब न करते.
पर्वतीय अंचल के गांवों के विवाद-बिंदु खेत की मेंड़, फसल में भेड़, चारा पत्ती का पेड़ या सिंचाई की गूल व दुर्गमता में सिमट जाते हैं.
एक वैवाहिक कार्यक्रम में बारात-वापसी के समय मार्ग में सांस्कृतिक संकट उत्पन्न हो गया. हुआ यूँ कि नदी के पार स्थित वधू-गृह से बारात-विदाई सकुशल संपन्न हुई. वधू की सखि ने वधू से एक गोपनीय शर्त बदी थी- कि वधू श्वसुर गृह में ही डोली से भूमि पर उतरेगी.
मोटर मार्ग से गाँव बहुत दूर था. मार्ग पैदल, संकरा और सीधी चढ़ाई वाला था. उस अंचल में कहारो द्वारा पालकी ढोने का चलन नही था. वधू की पालकी के वाहक वधू से पारिवारिक रिश्ते में कनीय पदधारक (प्रायः देवर-भतीजे-भानजे) ही हो सकते थे. इस श्रमसाध्य मार्ग में दुल्हन की प्रथम ससुराल यात्रा में परम्परा-निर्वहन व व्यावहारिकता दोनो पक्षों का ध्यान रखा जाता था अर्थात् आधा रास्ता वधू पालकी में तय करती थी. तीक्ष्ण ढालयुक्त मार्ग पर नववधू पैदल चल कर अपने नए संसार के यथार्थ को ग्रहण करते हुए गाँव की सीमा में प्रवेश करती थी. गाँव शुरू होते ही वह पुनः सुसज्जित पालकी में बैठती, जिसे वाहक उत्साह से श्वसुर-गृह की द्वार-पूजा के कार्यक्रम में सकुशल पहुँचाते थे.
प्रसंगगत बारात में वधू ने पालकी से न उतरने का आंतरिक संकल्प धारण किया हुआ था. सो वह पद-यात्रा हेतु नियत प्वाइंट पर न उतरी. वाहकों ने वधू के उत्तम स्वास्थ्य, वधूपक्ष की संपन्नता, तदनुसार हृष्ट पुष्ट होने के रहस्य इत्यादि बिंदुओं पर वधू को तरह-तरह से उतरने के संकेत दिए. उधर वधू संकल्पबद्ध थी. कितने उलाहने दिए, वह न उतरी. संकेत भाषा के पश्चात् वाहक स्पष्ट अनुनय-विनय पर उतर आए. याचक स्वरों से भी वधू अप्रभावित रहीं . संस्कारवश वाहक चलते रहे.
क्रमशः तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर ढाल आती गयी. वाहक स्वेदसिक्त थे और उनके कंधे छिलकर ज्वलनशील हो गये. प्यासे वाहकों ने पालकी उतारी. वधू संकल्पवश थी, तब भी पालकी से बाहर न निकली. जल-ग्रहण करते हुए अन्य बारातियों में हल्के स्वर में विचार विनिमय हुआ.
ताऊजी ने सांस्कृतिक पहलू के इस व्यावहारिक पक्ष पर दृष्टिपात किया और स्वयं वधू से परोक्ष आग्रह करने का निश्चय किया. ताऊ ने पालकी के सम्मुख जाकर अपने सिर पर ‘कपड़े का डील’ बाँध कर आग्रह किया कि वधू पालकी सहित मेरे सिर पर विराजे . वधू ने इस आग्रह पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, न वे पालकी से ही उतरी.
अगले विश्राम बिंदु पर पुनः पालकी उतरी. वाहकों के क्लांत शरीर भू लुंठित होने की अवस्था को प्राप्त कर चुके थे. पुनः ताऊ जी ने उच्च स्वर में बारातियों को संबोधित कर (नववधू को भी सुनाई देने योग्य स्वर में) निष्कर्ष दिया कि नववधू का इसमें कोई दोष नहीं है. एकमात्र दोष है तो वधू के श्वसुर का. उसने अपने हृष्ट-पुष्ट, सर्वांग सुंदर पुत्र के लिए ‘दिव्यांग’ वधू का चयन क्या सोचकर किया. इस युक्ति के पश्चात् नववधू ने क्षणभर का विलंब न किया. सधे कदमों से मार्ग की शेष दूरी निर्बाध रूप से तय की.
ताऊ जी में अजीब किस्म का फक्कड़पन था. वे सामाजिकता के प्रबल पक्षधर थे. एक बार छोटी दादी क्रोधित होकर सुदूर सेवारत अपने पुत्र को विकट-बीहड़ एवं मौलिक शाप देते हुए चली आ रही थी. वह पगडंडी पर चलते-चलते उच्च स्वर में अपने पुत्र के अनिष्ट की कामना कर रही थी.
हुआ यूँ कि सुदूर सेवारत उनके पुत्र ने दादी को चिठ्ठी भेजी. दादी चिठ्ठी पढ़वाने स्कूल मास्टरनी के पास जा पहुँची. मास्टरनी ने सस्वर वाचन कर दादी को मज़मून सुनाया. पत्रारंभ में दादी को चरण स्पर्श कहा गया था व आशीर्वाद की कामना की गयी थी. सिलसिलेवार पैराग्राफ्स में बच्चों की शिक्षा, गृहणी का उल्लेख कुछ अधिक था. दादी पत्र में स्वयं के विषय में उल्लेख मात्र से विचलित हो उठी.
वह वहाँ से चुपचाप निकल आई और सेकेंड ओपिनियन के लिए किसी छात्रा के पास चली गयी. छात्रा के सस्वर वाचन में दादी की रिपोर्ट पॉजिटिव आनी ही थी.
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्तियों के गठबंधन में शक्तिशाली मुल्क की भूमिका सीमित कर देने पर, वह मुल्क जो संभव प्रतिक्रिया दे सकता है, निःसंकोच देता है. किसी महत्त्वपूर्ण संधि में उल्लेख मात्र होने पर बिग पावर्स में शुमार मुल्क विश्वयुद्ध के मुहाने पर जाने में भी संकोच नहीं करता. फलस्वरूप दादी ने गृहयुद्ध आरंभ करने का बीड़ा उठाया.
ताऊ जी पगडंडी पर आमने-सामने आते हुए इस घटना के साक्षी बने. जब दादी ने प्रतिक्रियावश गृहयुद्ध की पूर्व योजना को घोषित किया व शत्रु की ईंट-से-ईंट बजाने का संकल्प लिया, तो ताऊ जी ने अपनी काकी से विनाश के संकल्प का हेतुक जानना चाहा. उनसे पत्र पढ़ने को माँगा.
उन्होंने पत्र का सस्वर वाचन किया. दादी ने संपूर्ण वाचन सुना. वाचन गति नैसर्गिक थी, किंतु परिणाम पूर्व परिणामों से पूर्णतः भिन्न थे. मज़मून में माँ का नित्य प्रातः स्मरण, माँ को निश्चिंत रहने की प्रार्थना, अतीत के अभाव’ में माँ के त्याग व समर्पण की गाथा, माँ के अपने पुत्र को कठोर अनुशासन में रखकर काबिल बनाने का असाध्य कर्म संपन्न करने का विवरण, माँ से नियमित पथ्य-सेवन की प्रार्थना, माँ के गृहणी व बच्चों की एकमात्र अभिभावक होने की घोषणा व अर्थाभाव की चिंता त्यागकर अमुक (वाचक) से निःसंकोच अग्रिम लेने का सुझाव व संपूर्ण नीति नियंता माँ को घोषित किया गया था. संक्षेप में मदर इंडियानुमा माँ का खाका खींचा गया था.
पत्र में दादी का उल्लेख छियानबे प्रतिशत हिस्से में था. पत्र-वाचक ने पत्र की समाप्ति पर पत्र को फाड़ दिया. उन्हें फोर्थ ओपिनियन की आशंका थी.
जब दादी ने उन्हें मास्टरनी व छात्रा के वाचन का स्मरण कराने की चेष्टा की तो ताऊजी ने यह कहकर पटाक्षेप किया कि काकी शिक्षा का लोप हो गया है. मास्टर कुछ जानते ही नहीं, तो बच्चों को क्या सिखाएँगे. ताऊ जी जनश्रुतियों में क्षिप्र गति के आशु कवि कहे जाते थे. चलते-चलते बात गढ़ना उनके लिए बाएं हाथ का खेल होता था.
वे बलिष्ठ शरीर व विकट जीवट के स्वामी थे. कौतुक में भी सोद्देश्य आचरण करते. लोग मजाक सोचते लेकिन हर मजाक के पीछे भी उनका कोई सार्थक उद्देश्य रहता था.
एक बार फसल बुवाई के नियत कार्य हेतु वे स्वयं व छह अन्य सहयोगियो के लिए पर्याप्त भोजन सामग्री ले कर नियत समय पर पहुँच गये.
घड़ी भर प्रतीक्षा करने के उपरांत भी जब आमंत्रित सहयोगी नही पहुँचे तो ताऊ जी ‘एकला चलो’ के सिद्धांत पर स्वयं जुट गए. प्रति खेत की तैयारी व बुवाई के पश्चात् वे एक व्यक्ति की खुराक लेते. फिर काम में जुट जाते. क्रमशः सांध्य काल तक समस्त खेत की बुवाई व समग्र भोजन उन्होंने निज पौरुष से ही संपन्न किया.
नकदी फसलों के उत्पादन के प्रति उनका प्रबल आग्रह रहता था. एक बार उनकी प्याज व लहसुन की फसल लहलहा कर आयी. ग्राम्य जगत में स्वयं की फसल छोड़ कर पड़ोसी के खेत से फसल उखाड़ना व प्रसारित करना कि मेरी फसल को तो चोरों ने बरबाद ही कर दिया है, का फार्मूला अघोषित रुप से सनातन काल से जारी है.
इस प्रथा के मूल में ‘इनफिल्ट्रेशन’ अथवा ‘फ्री हार्वेस्टिंग एरिया’ जैसे सिद्धांत काम नहीं करते वरन् सहज प्रेम की भावना प्रेरक होती है. ताऊ जी के खेतों की प्याज-लहसुन से कोई प्रतिदिन गहन अनुराग जता रहा था.
उन्होंने उपाय सोच लिया. सांयकाल पौरोहित्य कर्म के लिए प्रस्थान करते हुए पगडंडी तक पहुँच कर ताऊ जी ने जोर से आवाज लगाते हुए पारिवारिक सदस्यों को आगाह किया कि आज रात मैं पूजन के लिए अमुक गाँव जा रहा हूँ. कल सुबह फसल को उखाड़ने का कार्यारंभ होगा व सांयकाल तक फसल की ढुलाई गोदाम तक संपन्न की जाएगी. अतः मानसिक रुप से तत्पर रहें. यह घोषणा करके उन्होंने एकसाथ दोहरा उद्देश्य साध लिया.
यजमानी में पहुँच कर उन्होंने पूजन-डमरू-थाली वादन से दैवीय शक्ति का आह्वान किया. अधिकृत व्यक्ति पर आरोहण आरंभ कराया व आगे की प्रक्रिया अपने पट्ट सहायक के सुपुर्द कर गृह-वापसी के लिए कूच किया.
रजत चाँदनी रात थी. ताऊ जी अपने घर-आँगन में पहुँचे तो उन्होंने देखा कि उनके खेतो में फसल से मोहासक्त व्यक्ति एक निश्चित अंतराल से फसल उखाड़ रहा है.ः
ताऊ जी ने उसका नाम से संबोधित कर कहा कि फसल एक तरफ से समूल उखाड़ना शुरू करो, बीच-बीच से नहीं. मैं तुम्हारे लिए निश्चित अंतराल पर चाय-तंबाकू लाता हूँ. जल्दबाजी ठीक नहीं. सब्र रखोगे तो तुम्हारे लिए उचित रहेगा, चूँकि फसल को गोदाम तक भी तुम्हें ही ढोना है. इस प्रकार उन्होंने तेनालीराम पैटर्न से एक अज्ञात व्यक्ति से मनमाफिक काम ले लिया.
वे माँ काली के उपासक थे. स्थानीय मंदिर में पशुबलि उन्मूलन के लिए उन्हें वधस्थल के यज्ञयूप-चक्र में मूक पशु के स्थान पर अपनी ग्रीवा रख कर वधिक को यज्ञबलि संपन्न करने का निर्देश देना पडा.
मामूली श्रेणी की घटनाएँ जिन्हें सजग व्यक्ति टाल देता है, उपेक्षा कर आगे बढ़ जाता है, उनका मार्ग अवरुद्ध कर देती थी.
एक बार यूँ हुआ कि वे वरपक्ष के पुरोहित थे. वर पक्ष के मंडप में अवांछित माँग पर अड़ जाने से विध्वंसक स्थिति उत्पन्न हो गई. कन्या पक्ष के माली हालात उन्हें बहुत अच्छे नहीं दिखे, तो उन्होंने कन्या पक्ष के कुलशील की रक्षा के लिए अपने स्वर्णकुंडल उतार कर मंडप में अर्पित कर दिए. तब जाकर स्थिति सामान्य हो पाई.
विरोध में आने वाली समस्त टिप्पणियाँ उनके सम्मुख आकर निरर्थक हो जाती थी. कुछ प्राणी ऐसे स्वभाव के होते हैं कि बिना द्वंद्व किए उन्हें दिवस निरर्थक सा महसूस होता है. एक संभ्रांत महिला थी, जो हरसमय कुपित रहती थी. एक दिन वह अकारण शाप देने वाले पोज में ताऊ जी से संभाषण कर रही थी, तो क्या देखते हैं कि वे अपने कुर्ते का पल्लू फैलाये अविचलित भाव से समस्त रोष को ग्रहण कर रहे हैं. (लोकमत के अनुसार वृद्धा सुषुप्तावस्था में भी कुपित ही रहती थी.)
वे लोकमंगल हेतु शारीरिक-वैचारिक हस्तक्षेप तो अनिवार्यतः करते ही थे, अपरिहार्य परिस्थिति में दैवीय हस्तक्षेप से समाधान का विधान भी जानते थे. उस दौर में मांगलिक कार्यों में पंक्ति-भोज दिया जाता था. इसके अतिरिक्त अशक्त वृद्ध जनों के लिए ‘घर परोसा’ नाम से भोज्य पदार्थ पहुँचाने का विधान था. किसी संपन्न गृहस्वामी ने इसे चलन से बाहर करने का यत्न किया तो इन्होंने षोडशोपचार विधि से लोगों को उनके हव्य का निदान दिलाया.
उनका वाद-संवाद हमेशा सार्थक व उत्तेजक रहता था. परिवार की एक वधू की वे भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे, कि समस्त कार्यों को वह सहर्ष स्वीकार कर लेती थी, किंतु-परंतु का नुक्ता नहीं लगाती थी. भले ही वह एक भी निर्देश का क्रियान्वयन न करे (वे करती भी नहीं थी).
चंपूशैली में रचित उनकी कविता आबालवृद्ध की जुबान पर रहती थी. कविता की पंक्तियाँ अंग्रेजी व गढवाली में निःसृत की गयी थी.
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उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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वाह ललित जी कलम को नमन, ताऊ जी के किरदार को कितने सांचे में गढ़ कर कंगूरे तक पहुंचाया। आदर्श व्यक्तित्व को नमन, कास की ऐसी कुशाघ्र बुद्धि भगवान सबको दे। आपको पढ़ना बहुत सुखद लगा। धन्यवाद टीम सुधीर जी और टीम काफल ट्री।
आपका शब्द भंडार,जमीन से जुड़ाव और वर्णन शैली सब आपके लेखन को मनोरम बनाते हैं ........बधाई