कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है
मौसम बेमिसाल बेनज़ीर है
ये कश्मीर है, ये कश्मीर है
कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है
अरे, मौसम बेमिसाल बेनज़ीर है
ये कश्मीर है, ये कश्मीर है
पर्वतों के दरमियाँ हैं
जन्नतों के दरमियाँ हैं
आज के दिन हम यहाँ हैं
पर्वतों के दरमियाँ हैं
जन्नतों के दरमियाँ हैं
आज के दिन हम यहाँ हैं
साथी ये हमारी तकदीर है
कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है
ये कश्मीर है, ये कश्मीर है
इस ज़मीं से आसमाँ से
फूलों के इस गुलसिताँ से
जाना मुश्किल है यहाँ से
इस ज़मीं से आसमाँ से
फूलों के इस गुलसिताँ से
जाना मुश्किल है यहाँ से
तौबा ये हवा है या जंज़ीर है
कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है
ये कश्मीर है, ये कश्मीर है
ऐ सखी देख तो नज़ारा
इक अकेला बेसहारा
कौन है वो गम का मारा
ऐ सखी देख तो नज़ारा
इक अकेला बेसहारा
कौन है वो गम का मारा
मुझसा कोई आशिक़ ये दिलजीर है
अरे, कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है
ये कश्मीर है, ये कश्मीर है…
आनंद बख्शी के लिखे इस गीत में कुदरत के हर पहलू को बयाँ किया गया है. सैलानियों का कश्मीर-दर्शन का अपना एक खास अनुभव है. घाटी का नजारा है, पर्वतों की चोटियाँ हैं, ये हरी-भरी वादियाँ उनके मन को मोह लेती हैं. वहाँ पर अपनी मौजूदगी को वे एक खास अवसर की तरह लेते हैं—
आज के दिन हम यहाँ हैं
साथी ये हमारी तकदीर है
कहने का मतलब है कि हम खुशनसीब हैं, कि वहाँ पर हैं. वहाँ पर अपनी मौजूदगी को वे अपनी तकदीर से जोड़ते हैं. बड़ा मोहक सा अनुभव है. वादियों की खूबसूरती ने उन्हें इस कदर बांधकर रखा है कि
-जाना मुश्किल यहाँ से
तौबा ये हवा है या जंजीर है…
चाहे वो अमीर खुसरो की लाइन हो या जहाँगीर की, कश्मीर की खूबसूरती की सबने खुले मन से प्रशंसा की है.
सिनेमा समाज में घट रही घटनाओं से काफी हद तक प्रभावित होता है. हर कला की यही खूबसूरती होती है कि वह कंटेंपरेरी को अपने आप में समाहित करती चली जाती है.
कश्मीर के नैसर्गिक सौंदर्य ने सिनेकारों को खूब लुभाया. चाहे वो ‘कश्मीर की कली’ की बात हो या ‘जब- जब फूल खिले’ की, शिकारा हाउसबोट, हसीन वादियाँ रंग-बिरंगे फूल, सांस्कृतिक परिधान, कहने का मतलब है कि वहाँ की विषय वस्तु को सिनेमा का विषय बनाया गया. दर्शकों ने सिनेमा के माध्यम से ही कश्मीर के सौंदर्य को देखा.
‘जब-जब फूल खिले’ वो फिल्म थी जिसने शशि कपूर को पहलेपहल इतनी शोहरत दी. इसमें वे नाव खेने वाले एक कश्मीरी नौजवान के किरदार में थे.
आनंद बख्शी का ये ऊपर लिखा गीत फिल्म बेमिसाल (1982) का है. प्राकृतिक सुषमा ऐसी कि जो किसी के भी मन को हर ले. अमन चैन होगा, तभी तो सैलानी इतने खुश नजर आ रहे हैं.
इसके ठीक एक दशक बाद मणि रत्नम की फिल्म रोजा (1992) आई. विषय पूरा-का-पूरा बदल गया. दिल से (1998), मिशन कश्मीर (2000), मकबूल, फना (2006), हैदर (2014) जैसी फिल्मों का सिलसिला चल निकला. प्रेम और कोमल भावों का स्थान दहशत ने ले लिया.
किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है, विचार शून्य से पैदा नहीं होता. वह कहीं- न-कहीं से प्रेरित तो होता ही है.
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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