गीता गैरोला

चटोरे जवाईं की लोककथा

मुझे अक्सर अपने दादा, दादी, चाचियाँ, माँ बहुत याद आते हैं. आप कहेंगे इसमें नई बात क्या है. अपनी जिंदगी में हम जिन लोगों को खो देते है वो तो सभी को बहुत याद आते हैं. मेरी बात नई है या नहीं ये कहना बहुत मुश्किल है पर मुझे वो लोग इसलिये याद आते हैं कि उनके साथ दो पीढ़ियों के जीवन अनुभव, उनके समय की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियां भी गुम हो गयी. अगर उस वक़्त मुझे समझ होती तो उनसे बातें कर कितना कुछ समझा, सुना जा सकता था, लिखा जा सकता था. शायद आज जो भी हम याद कर पाते हैं वो उन्होंने इसीलिए हमें सुनाया होगा.

प्रश्न ये है कि जो उन्होंने सुनाया हमें उतना सब याद है. हम कितना क्रम से याद रख पाते हैं. कितना लिख पाते हैं. आज मैं अपनी गंगा फूफू के साथ ये सब बातें करती रही. उस पीढ़ी की जिंदगी को याद करने के लिए. जो भी लोक से कहा-सुनी कथाएं लगाने को जिद करती. तो आज की कथा सुने गंगी फूफू से…

लगा फूफू कथा लगा… त सुन भुलु एक और कथा सुन.

किसी गाँव के किनारे वाले यकुलांश (अकेले) वाले घर में प्यारी नाम की औरत रहती थी. उसकी बेटी पारु जब दो बरस की थी और प्यारी 20 बरस की, प्यारी के पति की गांव में फ़ैली हैजे की महामारी से मौत हो गयी. पति के मर जाने के बाद सास, ससुर, जेठ, जिठानी ने बिना कोई हिस्सा किस्सा दिए पारू को घर से बाहर निकाल दिया.

पारू के मायके वाले दोनों माँ-बेटी को कब तक पालते. सब तो गरीबी में दिन काटते थे. उन्होंने पारू के ससुराल वालों से बहुत मिन्नतें कि पारू को उसके पति के हिस्से की जमीन और रहने के लिए एक ओबरा दे दें, पर वो लोग टस से मस नहीं हुये. पारू के बाबा, भाइयों ने जब गाँव में पंचायत करवाई तब जा कर पारू को गांव से दूर एक टूटी हुई छानी रहने के लिए मिली.

दिन रात खेतों में जुते रहने के बाद दोनों माँ-बेटी को दो बगत का खाना मिल जाता. मेहनती प्यारी ने जैसे तैसे उधार पगाल करके एक भैंस मोल ली. भैंस की खूब घास पानी, देखभाल करके दूध घी बेच कर टूटी छान को रहने लायक बना दिया.

होते करते दिन बीतने लगे. दोनों माँ बेटी ने इतनी गरीबी देखी कि एक-एक पाई को दांत से पकड़ के रखती. रखना ही था भुलु नहीं तो दिन कैसे काटते. बगत बीता अर पारू जवान हो गयी. अब प्यारी को पारू के ब्याह की चिंता हो गयी. प्यारी चाहती थी बेटी के मंगदारे नजदीक के गाँव से ही आएं. गढवाली लोग तो बहुत गए-गुजरे हुये बाबा. जिस बेटी का बाप न हो, भाई न हो, माँ रांड-मूंड हो, उस घर से रिश्तेदारी कौन करता.

अर रिवाज ऐसा था कि लड़की को मांगने लड़के वाले आते थे. अब पारू के मंगदारे इस बात से पीछे हो जाते कि बाप भाई कोई नहीं है. पर बगत कब रुका जो पारू के लिए रुकता. बहुत दूर के इलाके से एक ऐसे लड़के का रिश्ता आया,जिसका बाप मर गया था. छोरा छपरा था बाबा, काका, बोडा कैसे भी लड़के का ब्याह करना चाहते थे. टी एक दिन पारू का भी ब्याह हो गया.

बेटी को ब्याह के प्यारी अकेली रह गयी. रिवाज ही ऐसा था भुलु, पारू की ससुराल में सब कुछ ठीक था. खाते-पीते लोग थे. चैन पशुओं से गुठ्यार भरा था. खेती पाती नजदीक थी, घास, लकड़ी के लिए बण दूर नहीं जाना पड़ता. प्यारी को अपने जंवाई में बस एक बात जरा अखर गयी.

पारू का जंवाई भरा-पूरा जवान था पर खाने का बहुत लालची था. ससुराल आते ही वो अपनी सासू जी से तरह-तरह के पकवानों की फरमाइश लगा देता. बेटी देकर प्यारी को एक बेटा मिल गया था. प्यारी सोचती अब मेरे घर में मर्द नमान तो ये जंवाई ही है. जो काम हम औरतें नहीं कर पाती वो काम ये निपटा दे तो मैं गांव के बाकी मर्दों की खुशामद क्यों करूँ.

पर जंवाई राजा एक आध महीने में ससुराल पंहुच जाते. बरामदे में चटाई बिछा के लेट कर दिन भर एक खुट्टी के ऊपर दूसरी खुट्टी रख के हिलाते रहते.

सासू जी चाय बना दो, तीन तोल की चा बनाना. दूध, चा, पत्ती, अर चीनी बराबर होनी चाहिए, जो टप-टपी लग जाये. सासू जी पत्यूड़ बना दो जरा नमक, मिर्च चरचरी, बरबरी डालना. सासू जी जरा पटुड़ी वाला फाणा बना दो. फाणे में दही खूब डाल देना. सासू जी स्वाली भूड़ी (पूरी पकोड़ी) बना दो. भूड़ी जरा गदगदी बनाना.

सासू जी निरपणी दूध की पाइस बना दो भौत लसपसी. जंवाई बोलता जाता और उसके मुँह से लार की पिचकारी छूटती सररर से. जवाई के आने से प्यारी को सहारा तो क्या ही मिलता. उसके चटोरपने से परेशान हो जाती. दो-चार दिन खूब खा-पी के जंवाई अपने घर जाता अर पन्द्रहवें दिन उसकी माँ कहती…

जा रे छोरा! अपने ससुराल जा, इकलौता जंवाई है तू. तेरी सासू तुझे खूब रीझ-बूझ के खिलाती है अर तेरी मुखड़ी पर पानी आ जाता है. हे राम! मेरा छोरा यहाँ इस गृहस्थी में काम के बोझ से मर गया. दो चार दिन आराम कर के आ जायेगा अपनी ससुराल से. फिर जंवाई जी सासू जी के पास अपनी ससुराल चल देते.

पूस के महीने की बात है. प्यारी के घर में दूध देने वाली न भैंस थी न गाय. दोनों भादौ के महीने बियाने वाली थी. प्यारी बेचारी को बिना दूध की काली चाय पीनी पड़ रही थी. अब ये जवाई और आ गया. क्या करे, क्या न करे. प्यारी सोच में पढ़ गयी.

आ गए जी जंवाई राजा बन-ठन के और लगा दी खाने की फरमाइशों की झड़ी. जो भी घर में रखा था वो सब प्यारी ने जंवाई जी को खिलाया. क्या जो करती, बेटी के ससुराल की बात थी. बाहर झमाझम की बर्फ पड़ रही थी. सासू जी ने बांज के करकरे कोयलों से भर कर अंगीठी सुलगा के जंवाई के पास रख दी.

गोर-बाछी को घास पानी दे कर ओबारे में बांध दिया. रसोई में घुस के चूल्हा सुलगाया और खाना बनाने लगी. जब सारा खाना बन गया तो जोर से जंवाई को आवाज लगाई.

हे जवैं! आओ खाना खा लो. इस बार जंवाई को सब रूखा-सूखा लग रहा था. खाने की थाली मुँह के सामने आई तो जंवाई बोला, सासू जी और कुछ नहीं है तो तुमने घी बना के तो रखा ही होगा. वही दे दो.

कुछ दिनों बाद पारु भी मायके आने वाली थी. प्यारी ने जंवाई से छुपा के दो माणी घी के लिए रखा था. प्यारी ने सोचा अगर मैं इस छिपाये घी में से जंवाई को देती हूँ तो ये सुबह शाम मांग-मांग के सब घी खा जायेगा. इसलिये प्यारी घर में घी रखने की बात से साफ़ मुकर गयी.

कख जवै कहाँ है घी. गाय भैंस को बिसगे तो महीनों बीत गए. अब जब दोनों ब्यायेंगी तब दूध घी देखने को मिलेगा. जंवाई को सास की चालाकी सब समझ में आ रही थी. बहुत कहने के बाद भी बुढ़िया घी न होने की बात से टस से मस नहीं हुई.

दूसरे दिन जैसे ही प्यारी कुछ काम से घर से बाहर गयी, जंवाई ने दूध-घी रखने के सारे ढ़ैपरे (दूध घी रखने का आला) में खरा खोद लगाई. क्या देखता है की अंदर छुपा के सास ने दो माणी घी रखा है. ठंडा होने के कारण घी पट्ट जम गया था. जंवाई ने एक माणी निकाली और चूल्हे के ऊपर रख दी. चूल्हे की आंच की गर्मी से घी गल गया.

सासू जी के आने से पहले जंवाई ने घी की माणी फिर ढ़ैपरे में रख दी. प्यारी ने खाना बना कर जंवाई को आवाज लगाई आओ हे जवैं! खाना खा लो. जंवाई ने फिर से घी माँगा. सासू जी देख लो क्या पता थोड़ा-भौत कहीं रखा होगा. प्यारी को पता था कि घी तो पट्ट करके जमा होगा.

उसने कहा तुम्हारी सौं जवैं कुछ कत्त नहीं है माणी में. ये देखो ह्या अर प्यारी ने माणी निकाल के जंवाई की थाली के ऊपर उल्टी कर दी. अब क्या जंवाई ने तो पहले ही घी पिघला दिया था. माणी से निकल कर घी के डले जंवाई की थाल में गरागर गिरने लगे.

अब प्यारी अचण चक. उसने आव देखा न ताव जंवाई की थाली से घी बटोरने लगी. जंवाई बोला अरे सासू जी घी तो जूठा हो गया. प्यारी फटाफट घी बटोरती बोली… हे जंवाई! क्व रांड च ज्व जवैं कु जुठु नी खांदी (कौन है जो जंवाई का जूठा नहीं खाती)

इधर जंवाई घी को खाने में रलाता रहा, उधर सास सरासर जंवाई की थाली से घी के डले बटोरती जाती.

-गीता गैरोला

देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. काफल ट्री की नियमित लेखिका.

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Sudhir Kumar

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