4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – 48 (Column by Gayatree arya 48)
पिछली किस्त का लिंक: नींद में भी दूध पीने की कला में बच्चे माहिर होते हैं
आज मैं तुम्हें तुम्हारे जन्म के दिन की कहानी बताने जा रही हूं रंग. अपने लेबर पेन की कहानी, लेबर रूम की कहानी.
4 सितम्बर 2009 की सुबह हुई, रात भर दर्द में जागते हुए. तब तक तुम्हारे पिता और मेरी सास भी जग चुके थे. तुम्हारे पिता एंबुलेस को फोन कर चुके थे. रात भर से होते-होते मेरा दर्द अब काफी बढ़ चुका था. दर्द का एक सर्कल सा था, जब भी वो सरकल पूरा होता मुझे बेहद-बेहद तेज दर्द होता. मैं बस कराह के रह जाती, झुक जाती. बैठ जाती. इस दर्द की कर्राह के बीच मैं तेजी से अपने बालों में नारियल का तेल लगाती जा रही थी. क्योंकि अब मेरे अस्पताल में जाने का समय आ गया था और अगले कई दिनों तक मेरे बालों में कंघी नहीं होने वाली थी. मेरे बाल भयानक तरीके से उलझते हैं, सो मैं उन्हें उलझने से बचाने के लिए, ढेर सारा तेल पिला रही थी.
जो बैग मैंने 2-3 सप्ताह पहले ही हॉस्पिटल के नाम का तैयार करके रखा हुआ था, उसमें अपना ब्रश वगैरह रख रही थी. मैं दर्द से कर्राहती जा रही थी और धीरे-धीरे चलते-चलते ये सारे काम करती जा रही थी. मैं जब-जब तेज दर्द से कर्राहती, तो सास मेरे कंधे पर हाथ सांत्वना देने के लिए हाथ रखती. फिर उन्होंने 100 रुपये का नोट मेरे चेहरे के चारों तरफ घुमाकर रख दिया. शायद कुछ और भी किया था उन्होंने शगुन के तौर पर, लेकिन मुझे याद नहीं. दर्द पेट के निचले हिस्से में, वैजाइना से थोड़ा ऊपर हो रहा था. मेरी कमर में उस वक्त भी दर्द नहीं था,पर जहां दर्द था वो जानलेवा था. एंबुलेंस आई पहले मैं उसमें बैठी थी, फिर लेट गई. तुम्हारी दादी मेरे साथ ही थी. तुम्हारे पिता अपनी बाईक से आ रहे थे.
दर्द की हडबड़ी में मैं अपने प्रेगनेंसी की रिपोर्ट भी लाना भूल गई थी. कागज पूरे न होने के कारण हॉस्पिटल की नर्स बेहद गुस्सा हुई. मेरा दर्द और कर्राहट बढ़ती ही जा रही थी. मैं भयानक तरीके से बढ़ रहे दर्द पर और तेज से कर्राह रही थी. सास ने कहा ‘अभी तो दर्द और बढ़ेगा,’ आवाज मत निकालो.’ मैंने मन ही मन कहा ‘और कितना दर्द?’ और मैं मुह दबाकर कराहने लगी.
नर्स मुझे लेबर रूम में ले गई जहां दो बैड थे. एक पर पहले से मोटे पेट वाली एक महिला लेटी हुई थी, जो बीच-बीच में जोर-जोर से कराह रही थी. दूसरे बैड पर महरून रंग की गंदी सी रबर की शीट बिछी थी, मैं उस पर लेट गई. हम दोनों स्त्रियों की चिल्लाहट और कर्राह से वो कमरा भरा हुआ था, लेकिन वहां घूम रही नर्स और दाइयां उस दर्द के शोर से ऐसे अनछुए थे. जैसे दर्द से कराहते किसी इंसान का कोई दृश्य न्यूज चैनल पर आ रहा होता है और हम हल्की सी नजर टीवी पर डालकर अपना काम निपटाते रहते हैं. मेरे दर्द के कारण तुम्हारे पिता बेहद परेशान और घबराए हुए थे, इसी घबराहट व परेशानी में उनका किसी नर्स से झगड़ा भी हो गया था. इसकी खबर मुझे भीतर ही दो नर्सों के आपस में बात करते हुए मिली.
दर्द हर चीज से बेखबर बढ़ रहा था, अपनी रफ़्तार से. उफ्फ कितना बेरहम था दर्द. हम दोनों औरतें भी एक-दूसरे को दर्द में कराहते, चीखते बिल्कुल तटस्थ भाव से देख रही थी. हम दोनों अपने-अपने दर्द में इतनी बेचारी, थकी-हारी, पस्त और मजबूर थी, कि दूसरे को कुछ कहा ही नहीं जा सकता था, बस दोनों ही अपने-अपने लिए थोड़ी संवेदना और पुचकार चाहती थीं शायद, लेकिन उससे भी पहले दर्द से मुक्ति चाहती थीं, जो कि हमारे हाथ में नहीं था. इस बीच मुझे गाउन पहनने को कहा गया. मैं तुम्हारे पिता से गाउन लेकर, रोती, लड़खड़ाती, कराहती लगभग घिसटती हुई कमरे के बगल वाले बाथरूम में चली गई. मेरी स्थिति कैसी थी क्या ही कहा जाए. मैं दर्द के अथाह समंदर में अकेले थी. लग रहा था जैसे इसी दर्द में मर जाऊंगी और मैं जैसे उससे मुक्ति के लिए मरना भी मंजूर कर लेती.
रोते, कराहते मैंने गाउन बदला और वापस उसी बैड पर लेट गई. दर्द और कराह के उस विशाल कुंड में शर्म की कोई जगह नहीं थी मेरे बच्चे, एक बूंद भी शर्म नहीं. तभी एक दाई आई, उसने मेरा गाउन ऊपर किया और मेरे ‘सृजन द्वार’ के बाल रेजर से साफ करने शुरू कर दिये. दर्द के उस सैलाब में गोते लगाते-लगाते मेरी ‘योनी’ अब ‘सृजन द्वार’ में ही तो बदल गई थी, तुम्हारे जन्म का ‘सजृन द्वार.’ रेजर के ब्लेड से हो रही आवाज और बाल खुरचने में हो रहा दर्द बता रहा था, कि वो ब्लेड पहले भी बहुत बार यही काम कर चुका है. उफ्फ्फ वो सरकारी ब्लेड.
इसी बीच 2-3 नर्सों के लश्कर के साथ एक सांवला सा मोटा-ताजा डॉक्टर मिलट्री ड्रेस में आया. मेरे पास पहुंचने तक नर्स उसे कागज व कोई रिपोर्ट न लाने वाली बात बता चुकी थी, जिस कारण डॉक्टर गुस्से से खौलता हुआ ही मेरे पास आया और आते ही ‘आउट-आउट’ चिल्लाने लगा. ‘जाओ कहीं बाहर कराना डिलीवरी! पढ़ी हो? कहां तक पढ़ी हो?’ उसका गुस्सा देखकर मेरी बची-कुची हिम्मत जवाब दे गई थी. मैं चुप, डॉक्टर फिर गुर्राया ‘कहां तक पढ़ी हो?’ मैंने जवाब दिया ‘ग्रेजुएशन, ’लेकिन मुझे लगा कि आठवीं-दसवीं ही बताना चाहिए था.
डॉक्टर की आंखे लाल थीं, चेहरे पर ढेर सारी शिकायत और आवाज में बेहद गुस्सा. मुझे लग रहा था कि वो मेरी डिलीवरी करने नहीं मुझे पीटने आया है. जो डॉक्टर उस वक्त मुझे देवता लगना चाहिए था, वो मुझे यमदूत लग रहा था. बेशर्मी का जो आलम कुछ देर पहले शुरू हुआ था, अब वह आगे बढ़ चला था. डॉक्टर के आने से कुछ देर पहले ही नर्स मेरे सृजन द्वार में हाथ डालकर, तुम्हारी स्थिति का अंदाजा लेकर, कागजों पर कुछ नोट कर चुकी थी. फिर डॉक्टर ने भी वही प्रक्रिया दोहराई. दर्द से मेरे चिल्लाने पर, उसने मुझे बुरी तरह डांटा और कहा कि यदि बच्चे को कुछ हो गया तो उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है. मैंने भी लगभग गुस्से में जवाब दिया, ‘ठीक है.’
गुस्से का सारा जहर उगलकर, डॉक्टर ने घड़ी देखकर कहा, ‘साढ़े बारह बजे तक देखते हैं, नहीं तो फिर सिजेरियन ही करना पड़ेगा.’ डॉक्टर चला गया. साढ़े आठ से साढ़े बारह, घड़ी के हिसाब से इनके बीच चार घंटे का ही फासला था. पर वे ‘सिर्फ’ चार घंटे नहीं थे मेरे बच्चे! तुम्हारी आमद के उन चार घंटों का इंतजार, चार जिंदगियों पर भी भारी था. वे चार घंटे नहीं मेरे बेटू, वे दर्द की चार सदियां थी, जिसमें मैं अकेली थी, निपट अकेली. कोई नहीं था दूर-दूर तक उस दर्द के रेगिस्तान में. बस मैं थी और दर्द में निचुड़ी मेरी देह और रोती, कराहती, टूटी आवाज.
उफ्फ्! दर्द की तेजी ऐसे बढ़ रही थी जैसे जेठ की दुपहरी में सूरज चढ़ने से दिन की तपिश बढ़ती ही जाती है. सच में नहीं लग रहा था रंग, कि उस दिन में दोपहर के साढ़े बारह कभी बजेंगे.
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उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.
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