Featured

बुजुर्गों के दिल में बसता है पहाड़

अल्मोड़ा के छोटे से गाँव में रहती थी रजुली ताई. पति सेना में थे तो रजुली ताई भी अपनी जवानी के दिनों में उनके साथ हिमाचल, असम, मुम्बई, राजस्थान जैसी जगहों में काफी रही. अलग-अलग शहरों में रहने की वजह से रजुली ताई के पास रोचक किस्से-कहानियों का भण्डार था, सभी को ये किस्से सुनने को मिलते थे.  (Story by Deepali Suyal 2)

खूबसूरत रजुली ताई गोरी और लंबी थी. काले लंबे घने बालों वाली रजुली को जवानी के दिनों में सजने, संवरने का भी खूब शौक था. सिंदूर से लंबी-चौड़ी मांग भरना. माथे पर लाल रंग की बड़ी सी बिंदी सजाना. गले में दो मंगलसूत्र. भर बांह मोटी लाल चूड़ियाँ पहनना उसे खूब ही भाता था.

पति के रिटायरमेंट के बाद दोनों ने गाँव में ही बसने का फैसला लिया था. लेकिन पति की असमय मृत्यु के बाद रजुली ताई गाँव के बारह कमरों के मकान में अकेली रह गयी. अब न माथे पर बिंदी, न मांग में वो लाल रंग का सिंदूर. सिर्फ गले में लाल रंग के मूंग के साधारण से दानों की माला और हाथ में पीतल के कंगन पहन लेती थी. मिजात में रहने वाली राजुली ताई अब बिल्कुल साधारण सी रहने लगी थी. बुढ़ापे ने भले ही चेहरे में लाख झुर्रियां डाल दी हों लेकिन खूबसूरती आज भी उतनी ही थी.

कहने को तो रजुली के चार बेटे और एक बेटी थी. एक बेटा अमेरिका में कार्यरत था, दूसरा दिल्ली, एक राजस्थान और एक बैंगलोर में अफ़सर. बेटी की शादी भी दिल्ली के एक अच्छे घर में करवा दी थी. अपने बेटों की कामयाबी पर रजुली ताई को बड़ा गुमान था. वैसे भी वह कौन‌ माँ होगी जिसे अपने बेटे की सफलता में खुशी नहीं होगी.

अक्सर बात-बात पर वह सबसे कहते रहती ‘म्यर चार च्यल छी.’

यूँ तो कहने के लिए चार, मगर कोई भी अपना नहीं, इस वृद्ध अवस्था में किसी को भी उसे अपने साथ रखने का ख़याल तक नहीं था.

रजुली ताई को सभी गाँव वाले बहुत प्यार करते थे. रजुली ताई का जो भी छोटा-मोटा काम होता था, सब गाँव के लोग ही करते थे. अगर कभी वो बीमार पड़ गई तो कोई दवा ले आता, और कोई खाना खाना दे जाता. यहाँ तक कि रजुली ताई की दोस्त बचुली ताई अपनी बहू से छुपते-छुपाते एक गिलास दूध रोज रजुली ताई के घर पहुँचा दिया करती थी. जिसके घर में पसंद की सब्जी बनी रजुली ताई खुद ही मांग लेती. जब भी चाय का अमल लगे रजुली ताई हिट देती बाखेई में बैठने.

सुबह समय से उठना, खुद पानी भरकर लाना. नहा-धोकर समय से मन्दिर जाना. अपने शोर से पूरी बाखेई को जगा‌ना. किसी के खेत में गाय भैंस घुस गये तो उस खेत के मालिक को बताना. एक भीमू का‌‌ सिकौड़ पकड़ कर बंदर को हंकाना. सतत्तर साल की उम्र में भी वे अपने ज्यादातर काम खुद ही करना पसंद करती थी.

बेटों से तो कोई उम्मीद रही नहीं. हो भी कैसे, उनके पास अपनी बूढ़ी माँ के लिए 2 मिनट की भी फुर्सत नहीं थी. ‌घर का खर्च तो पति की पेंशन से चल जाता था.

रजुली ताई थी खूब रौनकी. शादी-ब्याह में जमकर नाचना गाना. स्वांग रचना, खूब हँसी मजाक करना, सबके दुख-सुख में वह सबसे पहले शामिल हो जाती. गांव के बच्चों से भी उन्हें बहुत लगाव था. जो भी खाने को आता इधर-उधर से सब बच्चों में बांट देती थी.‌ गाँव-घरों के बच्चे भी हमेशा यही कहा करते ‌थे — “अम्म आज के दिन लाग रै छै हमूके.”

फिर भी कुछ था जो सालता रहता. हर साल गर्मियों की छुट्टियों वह बस यह आस लगाए रहती कि मेरे बेटे आएंगे और मुझे अपने साथ ले जाएंगे. मगर साल बीत गए, न बेटे आए न उनकी कोई खैर खबर. आज वर्षों बाद तीसरे बेटे की राजस्थान से चिट्ठी आई है — ” ईजा में घर आंण लाग रू, त्यर नाति कुण लागरौ दादी को देखना है. तू त्यार रये ईजा मैं तुके अपण दगड़ ली जुल.” थोड़ा बहुत पढ़ना जानने वाली रजुली ताई का यह पढ़कर खुशी का ठिकाना नहीं रहा. पूरे गाँव में खबर फैला आई थी, ‘म्यर पनु आण लाग रौ मिकी लीजाण. मोटे रो या पत्त नी वयिसिक छु. अब आरामल भै बे खुल में वा, बुडियन काव काम नी हूं मैंथी यों. घुनंम पीड़ भी मस्त रये म्यर. पनुएक जांण पछाणक ठुल-ठुल डॉक्टर होल वा, उहेणी कुल दिखा दे जरा मिके.’ आँखो में खुशी के आँसू, मन में अनगिनत ख़्याल और न जाने कितनी उम्मीदें लगा बैठी थी.

गाँव में सन्नाटा था, उनकी रजुली ताई जो जा रही थी. सब गाँव वाले रजुली ताई को भेंटने आये. भावुक होकर कहने लगे “कुशल-बात दिते रया हमुके अपेणि अब को हसाल हमूकू, गोक एक कुड़ी तुमुन आबाद कर री छी अब इमें ले ताव लाग जाल.” सच में सब बहुत प्यार करते थे उसे पूरे गाँव वाले‌‌. आखिर वह दिन भी आ गया जब उनका बेटा उन्हें लेने अपने गाँव पहुँचा. चार साड़ी और छोटे-मोटे सामान के साथ गाँव की अनगिनत यादें लिए भीगी आँखों के साथ चल पड़ी रजुली ताई गाँव से शहर की ओर. अपनों के संग रहने की ख़ुशी उसे भावुक किये जा रही थी.‌

लेकिन वास्तव में ‌दिल से कौन अपना था? वे गाँव के लोग जो उसके लिए अपनी जान न्यौछावर करते थे‌. या फिर बन्द दरवाजों में रहने वाले शहरी, जहाँ किसी को किसी से कोई मतलब ही नहीं.

बेटा-बहू दोनों सुबह आफिस साथ जाया करते थे. शाम को काम की थकान की वजह से रजुली ताई से बात करना तो दूर की बात, उनके पास खुद के बच्चे के लिए टाइम नहीं होता. रजुली ताई को गाँव से शहर बुलाने का कारण भी पोते की देखभाल करना ही था, न कि बेटे को अपनी माँ की याद आना. सप्ताह में एक दिन मिलता, उसमें भी बेटा-बहू घूमने या पार्टी में निकल पड़ते. घर के सभी कामों के लिए एक आया रखी थी, जो रजुली ताई को बिल्कुल भी पसंद नहीं थी. “मर जाल इनर, इतुक काम ले नी हुण लागरो इनहुण.” हमेशा रजुली ताई का यही डायलाग रहता. अकेलापन बस पोते के साथ समय बिताने से ही टूटता. ‌दादी और पोते की खूब बनने लगी और बने भी क्यों न. कहते ही हैं बेटे से ज्यादा पोता प्यारा होता है. बेटे की चाहत का नशा भी न जाने कितने घर उजाड़ देता है

धीरे-धीरे रजुली ताई को गाँव की बहुत याद सताने लगी. बेटे से कहकर एक फोन भी मंगवा लिया. जब भी गाँव की याद आती तो किसी को भी फोन कर लिया करती. किसकी गाय दूध देती है? किसके वहाँ सब्जियाँ लगी हैं? किसके बच्चों की शादी हो गई? सब खबर रजुली ताई फोन में ही ले लेती. शहर में रहते हुए भी उसका सारा ध्यान गाँव में ही रहता. दो बरस बीत गए थे अब रजुली ताई के प्रति बेटे और बहू का व्यवहार चिड़चिड़ा होने लग गया, क्योंकि अब रजुली ताई अपनी तबीयत खराब होने की वजह से पोते का ख्याल सही ढंग से नहीं रख पा रही थी.

रजुली ताई को भी अपने बेटे और बहू की मंशा का एहसास हो गया. पोते को दादी की याद नहीं उन्हें उसकी देखभाल के लिए बुलाया है. अब वह बेटे से रोज एक ही बात कहने लगी —“पनुवा मैके पहाड़ छोड़ दे त, उती अपण आप जानी म्यर प्राण. या को भयो म्यर, वां पुर गौं छू म्यर.” मगर बेटे के पास इतना समय कहा था कि वो अपनी बूढ़ी माँ को एक दफा गाँव ले जा सके. एक समय ऐसा आया जब रजुली ताई ने बेटे के कालकोठरी नुमा घर में ही अपने प्राण त्याग दिए.

 “पनुवा एक बार मैको म्यर गौं लीजे दे” आखिरी शब्द भी रजुली ताई के मुख से यहीं निकले.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

बैलपड़ाव, कालाढूंगी, नैनीताल में रहने वाली दीपाली सुयाल ने पी. एन. जी. पी. जी. कॉलेज रामनगर से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर किया है. कविताएँ, कहानियां लिखती हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

कानून के दरवाजे पर : फ़्रेंज़ काफ़्का की कहानी

-अनुवाद : सुकेश साहनी कानून के द्वार पर रखवाला खड़ा है. उस देश का एक…

3 days ago

अमृता प्रीतम की कहानी : जंगली बूटी

अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की…

5 days ago

अंतिम प्यार : रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी

आर्ट स्कूल के प्रोफेसर मनमोहन बाबू घर पर बैठे मित्रों के साथ मनोरंजन कर रहे…

6 days ago

माँ का सिलबट्टे से प्रेम

स्त्री अपने घर के वृत्त में ही परिवर्तन के चाक पर घूमती रहती है. वह…

1 week ago

‘राजुला मालूशाही’ ख्वाबों में बनी एक प्रेम कहानी

कोक स्टूडियो में, कमला देवी, नेहा कक्कड़ और नितेश बिष्ट (हुड़का) की बंदगी में कुमाऊं…

1 week ago

भूत की चुटिया हाथ

लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने…

1 week ago