गायत्री आर्य

दुनिया में पोर्नोग्राफी पूरी तरह खत्म होनी चाहिए

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – इक्कीसवीं किस्त

पिछली क़िस्त का लिंक:  मां और खुशबुओं के बेर

मैं अभी कई सवालों से जूझ रही हूं मेरे बच्चे. जाहिर है इन भयानक दिमागी उलझनों से तुम भी कहां बच पा रह होगे मेरे भीतर. देखो जरा, जहां तुम इस पूरी दूनिया में सबसे ज्यादा सुरक्षित हो सकते हो, वहां तक भी कितनी जटिलताएं, कितने सवाल, कितने दबाव, कितनी उलझनें पहुंच रही हैं. गर्भपात की बाधा से परे एक बच्चा मां के गर्भ से ज्यादा सुरक्षित शायद कहीं नहीं होता. लेकिन दुनिया भर की गंदगी, सड़ांध मेरे दिमाग से रिसकर अभी से तुम तक पहुंच रही है. हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार और अनैतिकता की राजनीति, वंचितों पर हमला, सैनिकों की शहादत या कहूं हत्या, उनकी बेवाएं, बच्चे.

प्लासेंटा की मोटी दीवार और खून की परत भी इस सब सवालों और चिंताओं की छनी हुई महीन गर्द से तुम्हें नहीं बचा सकती मेरी जान. ये वो धूल है, जो प्लासेंटा और खून के गीलेपन से बिना चिपके वैसी की वैसी तुम तक पहुंच जाएगी, पहुंच रही है. मुझे नहीं पता ये सही हो रहा या गलत, ऐसा होना चाहिए या नहीं? ये बहुत पेचीदा सवाल है. तुम्हारी मां इन बड़े सवालों के लिए बेवकूफ, नासमझ और भोली है मेरे बच्चे. मैं तो बस इतना ही सोच पाती हूं कि जब अंततः तुम्हें इस जकड़न भरी, जटिलता भरी, पेंच भरी, सवालों, शंकाओं, हिंसा और अविश्वास के अनंत समंदरों से भरी दुनिया में आना ही है तो फिर तुम्हारी बुनावट को, तुम्हारे दिमाग और शरीर के तंतुओं को इस उलझन भरे रेशों से दूर भला क्यों रखा जाए? दूर रखूं भी तो कैसे? कहां तक? और कितना?

अब मैं तुमसे एक अश्लील, गोपनीय, वर्जित विषय पर बात करने जा रही हूं मेरी बच्ची. संभव है इस विषय पर मैं तुमसे आमने-सामने बात न कर सकूं कभी, या हो सकता है कभी कर भी सकूं. आज एक कम्पयूटर पर मुझे एक ब्लू फिल्म दिख गई. दिख गई इसलिए कह रही हूं, क्योंकि मेरी उसे देखने की न तो जरा भी इच्छा थी और न ही कोई प्लान. मुझसे पहले जो भी उस कम्प्यूटर पर बैठा होगा उसने उसे कुछ इस तरह से, किसी ऐसी जगह कम्प्यूटर पर छोड़ा, कि वो फिल्म मेरे कम्प्यूटर पर काम करना शुरू करते ही मेरे सामने आ गई. मैं इतनी सफाई शायद इसलिए दे गई, क्योंकि हमारे समाज में इसे देखना अच्छा नहीं समझा जाता. पर सच ये है मेरी बच्ची, कि पोर्नोग्राफी का विरोध ज्यादातर लोग सिर्फ ऊपर-ऊपर से ही करते हैं, वर्ना तो अधिकतर लोग उसमें कम या ज्यादा लेकिन लिप्त जरूर हैं, और मौका मिलते ही देखते हैं. जहां तक मेरा सवाल है मुझे ब्लू फिल्म देखना सही नहीं लगता. लेकिन मेरे इस लगने के किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. लोग देखते हैं और इसे जरूरी तक कहते हैं. ब्लू फिल्म किस उम्र में देखना सही है और किसमें गलत? किनका देखना सही है और किनका नहीं? कैसी फिल्म देखना सही है और कैसी नहीं? मेरे पास इन सब सवालों के ठीक-ठीक जबाव नहीं हैं. मैं नहीं जानती कि ऐसी फिल्में देखना कितना गलत, अनैतिक, अश्लील, जरूरी या गैर-जरूरी है? मुझे ये भी नहीं पता कि गलत-सही, नैतिक-अनैतिक, श्लील-अश्लील, जरूरी-गैरजरूरी कौन तय करता है या किसे तय करना चाहिए? मेरे दिमाग के लिए ये सवाल बेहद बड़े, पेचीदे और उलझन भरे हैं.

मैं बस इतना चाहती हूं कि दुनिया में पोर्नोग्राफी पूरी तरह खत्म होनी चाहिए, क्योंकि ये चीज स्त्री को ‘सेक्स टॉय’ बनाने और बनाये रखने में खतरनाक हद तक सहयोग करती है. समाज और परिवारों में बढ़ रही यौन हिंसा को बढ़ाने में इसका बेहद बड़ा हाथ है. पर बात यहां फिर से उलझ जाएगी बेटू, क्योंकि बहुत सारे लोगों का तर्क ये है कि समाज में यौन हिंसा घटाने में पोर्नोग्राफी का बड़ा हाथ है! ऐसा ही कुतर्क ऐसे लोग वेश्यावृत्ति के बारे में देते हैं, कि “कुछ लड़कियां/स्त्रियां वेश्याएं हैं, इसलिए हमारी बहू-बेटियां सुरक्षित हैं!” पर वे कौनसी, किस घर की बेटियां/स्त्रियां होनी चाहिए जो कि पूरे समाज के मर्दो की अतिकामुकता का भार झेलेंगी, इस बारे में किसी को कुछ नहीं कहना है! क्या सब अपने घरों की एक बेटी/स्त्री को पार्ट टाईम के लिए इस काम में भेज सकते हैं, ताकि बाकि घरों की बेटियां/स्त्रियां सुरक्षित रह सकें?

पूरी दुनिया में जिस हद तक पोर्नोग्राफी, वेश्यावृत्ति, बाल-वेश्यावृत्ति बढ़ रही है, उस हिसाब से तो आज की तारीख में पूरे विश्व में बलात्कार और हर एक किस्म के यौन हमले बंद हो जाने चाहिए थे! नहीं क्या? लेकिन सच ये है मेरी बच्ची, कि हर किस्म की वैश्यावृत्ति बढ़ने के साथ-साथ; पूरी दुनिया में बलात्कार और हर किस्म के यौन अपराध खतरनाक तरीके से बढ़ ही रहे हैं! मेरी बच्ची, उस ब्लू फिल्म को देखने का मेरे ऊपर क्या असर हुआ, मैं सिर्फ उसकी बात तुमसे करने जा रही हूं. कुछ शुरूआती पल मुझे उत्तेजक जरूर लगे थे, लेकिन उसके बाद के सीन देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई. मुझे मितली जैसा अहसास हुआ. अब तक मेरी सारी उत्तेजना हवा हो चुकी थी. वो कोई ब्लू फिल्म न होकर शायद किसी फिल्म का सीन था या पता नहीं क्या था? संभवतः वो एक युवा पादरी था जो किसी युवती के साथ मनचाहे तमाम तरीकों से ऐसे सेक्स कर रहा था. जैसे मानो वो लड़की जिंदा न होकर प्लास्टिक की हो! सारा सुख, सारी उत्तेजना उस पादरी के चहेरे पर थी. मेरी दिमागी नसें तन रही थी, घृणा और गुस्से का एक अजीब घालमेल मेरे दिमाग में शुरू हो चुका था और मेरा पहला रिएक्शन था, ‘हे भगवान मेरी कोख में लड़का न हो!’ अचानक से मुझे लगने लगा की युवा होने पर वो लड़का भी शायद कुछ-न-कुछ ऐसा करेगा किसी के साथ! मैं कभी नहीं चाहूंगी कि मेरे गर्भ से जन्मा लड़का किसी लड़की के साथ ऐसा व्यवहार करे.

मैं जानती हूं कि ये एक एक्स्ट्रीम रिएक्शन था. इस दुनिया के अधिकतर मर्द कामी और लंपट होने के बावजूद भी, मैं इस बात को मानती हूं मेरी बच्ची, की सारे पुरुष कामी और लंपट नहीं हैं. और मैं ये भी समझती हूं कि प्रकृति ने स्त्री-पुरुष को एक साथ जीने के लिए कंपैटिबल बनाया है. लेकिन दुनियाभर के समाजों में कुछ ऐसी हवा बह रही है कि पुरुषों को स्त्रियां भोगने की ही चीज लग रही हैं सिर्फ. जन्म से नर होने भर से पुरुष स्त्री को अनंत तरीकों से सताने का न सिर्फ अधिकारी हो जाता है. बल्कि औरत को अधिक से अधिक तरीकों से इस्तेमाल करना ज्यादातर पुरुषों की नैसर्गिक इच्छा बन गई लगती है!

मुझे नफरत है ऐसे माहौल से. मुझे ऐसे पुरुषों की दुनिया में कतई दिलचस्पी नहीं, बल्कि मुझे नफरत है ऐसी दुनिया से, जहाँ औरतों /बच्चियों/लड़कियों को हर वक्त पुरुषों और पितृसत्ता की किसी न किसी तरह की हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है! मैं जानती हूं कि लड़की रूप में जीवन बेहद-बेहद मुश्किल है मेरी बच्ची, लेकिन मादा रूप में जन्म लेने भर से तुम बहुत सी अमानवीयताएं ‘करने’ से बच जाओगी! क्योंकि ये दुनिया, समाज किसी भी लड़की को, लड़के की तुलना में कम हिंसक बनाता है या बनने की अनुमति देता है.

ये कहना गलत नहीं होगा कि समाज पुरुष को खूंखार शिकारी बनने की शह, सलाह और सहयोग देता है, जबकि लड़की को शिकार बनना सिखाता है! बेवजह और निर्दोष लोगों पर हमला करने वाले शिकारी बनने की जगह, मैं एक शिकार बनना पसंद करूंगी!!…और ऐसा ही बीज मैं अपनी कोख से पैदा करना चाहूंगी. पर एक लड़की के रूप में मैं तुम्हें शिकार बनना कभी नहीं सिखाऊंगी मेरी बेटी, बल्कि अपने शिकारी पर टूट पड़ना सिखाऊंगी! हिम्मत से लड़ना और जीना सिखाऊंगी. क्योंकि ये एक जीवन बड़ी नेमतों से तुम्हें या किसी को भी नसीब होता है. जीवन को सिर्फ हिम्मत से, जोश से, बेबाकी से, मस्ती से जिया जाना चाहिए. आकंठ जिया जाना चाहिए.

इस पल जब मैं ये सब तुम्हें लिख रही हूं दुनिया भर में असंख्य ब्लू फिल्में बन रही होंगी, बनने की तैयारी हो रही होगी. लेकिन मेरे दिमाग में इस सवाल ने उत्पात मचा रखा है, कि क्या इन ब्लू फिल्मों के बिना दुनिया बहुत नीरस होती, फ्रस्टेटिड होती या इनके होने से दिक्कतें बढ़ रही हैं? क्या आदमी-औरत का संबंध इन फिल्मों के बगैर अधूरा रह जाता या फिर उतना सरस नहीं होता? मुझे ऐसा नहीं लगता.

जब तक हम लोग दूरदर्शन देखते थे, हमें कभी उसका कोई प्रोग्राम बुरा नहीं लगा. न ही उबाऊ या बोरिंग. आज जब हमारे सामने 100 तरह के चैनल हैं तब हमें दूरदर्शन के प्रोग्राम सुस्त, बोरिंग, हास्यास्पद, अजीब लगते हैं. कल को जब तुम 14-15 साल की उम्र में ही ब्लू फिल्में देखने लगोगी/लगोगे तब मैं किस आधार पर तुम्हें गलत ठहराऊंगी, जबकि तुम्हारा तर्क होगा कि तुम किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे, सिर्फ मजा ले रहे हो! तो मैं कैसे तुम्हारे मजे को गलत ठहरा पाऊंगी भला? लेकिन मेरा सवाल ये है कि जब तक इन फिल्मों और ऐसी तमाम चीजों (पोस्टर, सिनेमा, सीरियल, विज्ञापन) में बार-बार एक लड़की/स्त्री को सिर्फ को मजा देने वाली, संतुष्ट करने वाली चीज के रूप में ही देखा जाता रहेगा, तब तक कैसे मैं औरत के इंसान होने के हक का दावा कर सकती हूं? मेरा दावा कितना रूखा, बेसिर-पैर का, अजीब और मजाकिया होगा! ये दुनिया जी भर के लड़कियों के मजे ले रही है और उन्हें मजा चखा भी रही है मेरे बच्चे! जहां हर तरफ लड़कियों और स्त्रियों की ब्लू फिल्में दिखाई जा रही हैं, देखी जा रही हैं, जहां उन्हें सिर्फ यौनक्रिया के लिए उकसाने वाली और सेक्स की पूर्ति करने वाली चीज के तौर पर दिखाया जा रहा है; मैं कैसे तुम्हारे दिमाग में बैठाऊंगी कि नहीं ये गलत है! तुम भला कैसे यकीन करोगे कि पूरी दुनिया गलत और सिर्फ एक तुम्हारी मां सही? नंगी लड़कियों की नाचती तस्वीरें जब 24 घंटे तुम्हारी आंखों के आगे टीवी, कभी अखबार, कभी इंटरनेट, कभी पत्रिका, कभी पोस्टर में दिखा-दिखाकर तुम्हें उत्तेजित करती रहेंगी; मैं कैसे तुम्हें समझा पाऊंगी कि लड़की या स्त्री सिर्फ उत्तेजित करने वाली, मजा देने वाली, संतुष्ट करने वाली कोई चीज या यंत्र भर नहीं है. वो भी वैसा ही हाड़-मांस का पुतला है, वैसे ही हंसने-रोने वाली इंसान है. वो भी तुम्हारी तरह ही जीने की, प्यार की, सम्मान की, न्याय की इच्छा रखती है. वो भी जीवन के मजे लेना चाहती है. मेरे बच्चे! इस जंगली, बर्बर, हिंसक समय में तुम्हें एक शिकारी होने से बचाना और शिकार बनने से बचना ये दोनों ही चीजें सच में मुश्किल है मेरे लिए, कुछ भी आसान कहां है.

ये जीवन ही बड़ा जटिल है मेरी बुलबुल! लेकिन इसके बावजूद भी इसे आकंठ जीने का, मौत से भागते रहने का मन करता है. हालांकि जीवन की तकलीफें और दर्द ऐसे हैं, जो जीते जाने का हौंसला तोड़ते हैं कभी-कभी. लेकिन फिर भी, फिर भी हम जीवन की आखिरी बूंद तक को चूस लेना चाहते हैं. क्योंकि जीवन से बढ़कर कोई नशा नहीं मेरे बच्चे!

मधुशाला वही नहीं, जहां पर मदिरा बेची जाती है, भेंट जहां मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला…

उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

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Sudhir Kumar

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