भाई साहब को बचपन से ही ‘बड़ा आदमी’ बनने की ललक लग गई थी. तभी उन्होंने देख लिया था कि बड़े आदमियों के जलवे हैं. जहां देखो उन्हीं का बोलबाला है. सब उन्हीं की बातें करते हैं. हीरो तो वे ही होते हैं, बाकी तो बेचारे सहायक कलाकारों की भूमिका में रहते हैं.
बड़े लोगों के पास ताकत, पैसा और रुतबा होता है. भाई साहब समझ चुके थे कि बड़े होने में ही जीवन की सार्थकता तथा सच्चा आनंद है. इंसान के रूप में जन्म लिया और बड़े न हो सके तो ऐसे जन्म का कोई लाभ नहीं. लोग बड़े आदमी के पीछे भागते हैं, उन्हें तलाशते हैं. उनकी एक झलक के लिये बेताब रहते हैं. बड़ा आदमी लोगों की जिंदगी बदल सकता है. छोटे आदमी को कौन पूछता है. उसकी ओर कोई देखना भी नहीं चाहता. उससे किसी को क्या मिलेगा. इसलिए जिसे देखो उससे पिंड छुड़ाने की कोशिश में लगा रहता है. इसलिए भाई साहब ने ठान लिया था कि कुछ भी हो जाये, जीवन में छोटा नहीं, बड़ा बनना है.
बाजार, सड़क, बस या रेलवे स्टेशन जहां देखो यह छोटा आदमी भीड़ की शक्ल में नजर आता है. उसका कोई चेहरा, कोई पहचान नहीं होती. बड़ा आदमी भीड़ से अलग होता है. उसे लोगों की ओर देखने की जरूरत नहीं होती. लोग उसकी ओर देखते हैं. वह लोगों के बारे में बात नहीं करता, बल्कि लोग उसके बारे में बातें करते हैं. उसे दूसरों के पास जाने की जरूरत नहीं होती. लोग उसके पास आते हैं.
भाई साहब के पास बड़े बनने के दो रास्ते थे. वे पढ़-लिखकर बड़ा अधिकारी बन जाते या राजनीति, सिनेमा, संगीत, व्यापार आदि के रास्ते बड़ा बन जाते. वे समझ गए थे, असली बड़ा तो वही होता है, जिसके पास शासन और कानून की ताकत होती है. पैसे से या कलात्मक प्रतिभा से कितना बड़ा बन जाओ. उससे किसी सरकारी अफसर के बराबर ताकत नहीं आती. उन लोगों को भी अधिकारियों के ही चक्कर लगाने पड़ते हैं.
भाई साहब भी प्रथम श्रेणी का बड़ा आदमी बनना चाहते थे. उसके लिए एकाग्र होकर पढ़ने-लिखने की जरूरत थी. लेकिन उनके लिये पढ़ना-लिखना केवल साधन था, साध्य नहीं. उन्होंने बहुत जल्दी पढ़ाई-लिखाई में भी शार्ट-कट का रास्ता पकड़ लिया और कामचलाऊ तरीके से आगे बढ़ते रहे. इस दौरान साथ के लड़कों के बीच ‘बड़ा’ होने के लिये उन्होंने छात्र राजनीति में भी हाथ आजमाया. अपने दायें-बायें दो-चार लड़कों को देखकर उन्हें लगता वे अभी से बड़े हो गये हैं.
उनके घर की हैसियत ऐसी नहीं थी कि वे व्यापार करके बड़े बन जाते. नीचे से मेहनत करते हुए ऊपर चढ़ने का धैर्य उनमें था नहीं. भाई साहब गीत भी अच्छा गा लेते थे. मगर अपने गीतों से वे कक्षा या कॉलेज के साथियों को तो प्रभावित कर सकते थे, लेकिन लोगों में असर डालने की प्रतिभा उनमें नहीं थी. पत्रकार होने की भी उन्होंने कोशिश की, मगर वहां जमने के लिए जिस धैर्य और झेलने की सामर्थ्य चाहिए होती थी, वह उनमें नहीं थी. राजनीति में भी वे तीसरी श्रेणी के ही नेता बन पाये. माने ऐसा व्यक्ति जिसे जानते और मानते तो सब हैं, मगर जो गांव-मौहल्ले से ऊपर नहीं उठ पाता.
अपनों अरमानों की पोटली को संभाले हुए भाई साहब बड़े आदमी तो नहीं बन सके, मगर तीसरी श्रेणी की प्रतिभा से तृतीय श्रेणी की सरकारी नौकरी में जरूर आ गए. यहां वे बड़े नहीं, सामान्य थे. यह कम दुःख की बात नहीं थी कि एक बड़ा आदमी छोटे आदमी की तरह जिये. बहुत जल्दी उन्होंने यहां भी बड़े होने का रास्ता ढूंढ़ निकाला. वे यूनियन में सक्रिय हो गए और उनका उठना-बैठना बड़े साहबों के बीच होने लगा. अब वे अपने जैसे तीसरी श्रेणी के लोगों को फटकार लगा सकते थे. अपने अगल-बगल चक्कर कटवा सकते थे. जब यूनियन नहीं होती वे प्रतिनियुक्ति पर चले जाते. इस तरह वे बड़े बने रहते.
भाई साहब का संकट यही है कि वे बड़ा तो होना चाहते हैं, मगर उससे जुड़ी जिम्मेदारी को नहीं समझते. मसलन वे नहीं समझते कि जिला कलेक्टर या पुलिस कप्तान होने का अर्थ गाड़ी, सुरक्षकर्मी या किसी को भी हड़काने की छूट ही नहीं होता, बल्कि उनके ऊपर पूरे जिले का दायित्व होता है. जहां लोगों की छोटा सा काम करने में जान जाती है. वहां पूरे जिले पर नजर रखना कोई मामूली बात नहीं है. इसी प्रकार विधायक, सांसद तथा मंत्री बनने का अर्थ अपने इलाके, राज्य की बेहतरी होता है ना कि कमीशनखोरी करके अपना घर भरना और सार्वजनिक चीजों को कमजोर करना.
भाई साहब अभी तक नहीं समझ पाये हैं कि बड़े होने का अर्थ देश, समाज तथा लोगों को अधिक देना होता है, न कि अधिक लेना. बड़ा होना जहां दूर से बड़ा आकर्षक लगता है, निकट से उतना ही कष्टकर होता है. बड़ों पर सबकी नजर होती है. उन्हें अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ता है. अपनी आजादी खत्म हो जाती है. कुछ भी बोल नहीं सकते. उनके शब्दों पर सैकड़ों लोगों की नजर रहती है. हिमालय बड़ा है. उसे अकेले खड़ा रहना पड़ता है. बड़े पेड़ को तूफान की मार भी सबसे अधिक झेलनी होती है. बड़ी नदी को अपना पानी अधिक लोगों तथा खेतों तक पहुंचाना होता है.
भाई साहब इस बात को भी नहीं समझते कि वास्तविक बड़ा व्यक्ति वह होता है, जो अपने कार्य को पूरी निष्ठा तथा प्रसन्नता से करता है. समाज किसी को बड़े-छोटे के रूप में नहीं देखता. यह भाई साहब का हीनता बोध है कि वे दुनिया को उनके कार्यों से नहीं बाहरी ताम-झाम से देखते हैं. इसीलिए एक बार जब उनको मंच से दर्शक दीर्घा में बैठा दिया गया तो वे आयोजकों से काफी नाराज हो गये. यह उनके अकल्पनीय था कि उन्हें आम लोगों के बीच गिना जाये.
फिलहाल भाई साहब का मन अपने काम में नहीं लगता. वे जैसे-तैसे बुझे मन से अपना काम करते हैं. मन लगाने के लिए वे अलग तरह के कामों में लगे रहते हैं. उन्होंने सोच रखा है, काम तो वे तभी करेंगे जब बड़े बन जायेंगे. उन्हें सबसे खूबसूरत काम लगता है, दूसरों को डांटना, उनकी गलतियां निकालना. उन्हें उनके छोटेपन का एहसास कराना तथा उनका कर्तव्य याद दिलाना.
पता नहीं भाई साहब ‘बड़े’ होने की इस बीमारी से कब निकलेंगे. निकल भी पायेंगे या नहीं. हो सकता है, इसी कसक के साथ विदा हो जायेंगे. गड़बड़ शायद बचपन से ही हो गई. हीनता और पिछड़ेपन से घिरे हमारे समाज को इस मानसिकता से उबरने में अभी समय लगेगा. दुर्भाग्य से शिक्षा की कामयाब दुकानें भी बच्चों को उनकी रुचियों का काम करवाने के बजाय ‘बड़ा आदमी’ बनाने की परियोजना में लगी हैं. मैं सोच रहा हूँ कि जब सभी बड़े बन जायेंगे तो पेंटर, प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, राजमिस्त्री, मजदूर, क्लर्क, सिपाही का काम कौन करेगा. मेरे पास कोई सटीक उत्तर नहीं है.
क्या पता भाई साहब इस बीच समझ जायें कि छोटा होने में ही बड़ापन छिपा होता है. दुनिया में कुछ ऐसे कमाल के व्यक्ति भी हुए हैं, जिन्होंने जानबूझकर छोटा या सामान्य होना स्वीकार किया तथा जीवन भर छोटे ही बने रहे. महात्मा बुद्ध, गांधी, कबीर, निराला और प्रेमचंद उनमें से ही थे. छोटे होने का भी अलग ही आनंद है. काश, भाई साहब इसे समझ पाते.
दिनेश कर्नाटक
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
View Comments
कर्नाटक सर आप का यह कालम बहुंत ही रोचक होता है हर बार हम यह समझते है कि सब कुछ कह दिया अब क् या रह गया है लिखने को, पर फिर एक रोचक दृश्य प्रस्तुत कर देना आ प के लेखन की मुख्य विशेषता ह्रै।प्रे२णात्मक सरल परन्तु अतयन्त गम्भीर बिषय होते है आपके लेखन में ।
Ha ha ha ha bhut steek bat h ye .aaj sayd adhiktr log isi jugad me lge rhte hn ki kisi trh wo isss kism ka bda aadmi bn Jay.
Ha ha ha ha bhut steek bat h ye .aaj sayd adhiktr log isi jugad me lge rhte hn ki kisi trh wo isss kism ka bda aadmi bn Jay.
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
आप की उत्साहवर्द्धक टिप्पणियों से लिखने का उत्साह बना रहता है।