ओए नागरिक… अमाँ बाशिंदे… अबे देसवासी
जियो… बसो… फलो
तुम्हारी भेजी चिट्ठी मिली. चलो इस ज़माने में भी चिट्ठी पत्री बची हुई है चाहे जिस भी रूप में हो. तुम तो बेटा स्लैंग पर उतर आए. पर हमें अच्छा लगा. अपने बेटे से दोस्ती अच्छी लगती है बेटा. पुराना ज़माना याद आ गया. हम जवान थे तब. जिस्म से भी, ज़ेहन से भी. अब तो…
हमने तुम्हें नहीं बल्कि तुम लोग हमें विस्मृत कर चुके हो और बेकार ही नारे लगाते हो भक्ति के. हम तो आशिकों पर जान छिड़कने वालों में से हैं. हमन को इश्क़ मस्ताना… वो छोरा याद है जो तीखी मुस्कान के साथ फंदे को चूम कर हमारे लिए… उस बुड्ढे का इश्क़ याद कर लो जो हमारी बेड़ियां टूटने के दिनों में भी तुम्हारे भाईयों की अंधी हवस को मिटाने भूखा-प्यासा… या उस सनकी नौजवान को याद कर लो जो हमारे लिए नौजवानों की फ़ौज अकेले दम पर बना बैठा था… उस सिरफिरे को ही याद कर लो जिसने उस किताब की जिल्दें बाँधने में आँखे फोड़ रक्खी थीं जिसकी राख से तुम उंगलियां… तुम क्या खाकर इश्क़ करोगे. तुम तो बस दर्द…
तुम्हें क्या लगता है हमें दर्द नहीं होता. होता है. तुमने फांसी के फंदे का ज़िक्र किया. बेटा तुम नहीं समझ सकते. ये कन्धे बूढ़े होते जाते हैं अपने बच्चे की लाश उतारते. इन आँखों में झुर्रियां उतर आती हैं जब सिर कटी लाश गोद में लेकर… कोई बच्चा भूखा सोता है न, तो निवाला मेरे ही गले नहीं उतरता… ये अजीब शक्ल हमारी ऐसे न हुई है. मैंने अपने बच्चों की लाशें ढोई हैं, उनके कफ़न सिये हैं, उनकी कब्रें खोदी हैं. तुम इन कांपते हाथों पर मत जाना. ये हाथ अब भी काबिल हैं. देखते हैं अभी और कितने बच्चों की मिट्टी उठानी है. कहाँ तो बेटा बाप को और कहाँ… बदल गया बेटा सब. रोल रिवर्सल यू नो!
देखते देखते मुहावरे बदल गए बेटा, भाषा से अर्थ छीन लिए गए, आँखों का पानी मर गया. हम जानते हैं बदलाव तो शाश्वत है लेकिन ये क्या कि सच के मानी बदल दिए गए. तुमने या किसी तुम्हारे भाई ने ही तो किए ये शार्ट सर्किट्स.
कैसा ये शार्ट सर्किट कि एक घर में इतना उजाला भर लिया कि बस्ती की बस्ती अँधेरे में डूब गई. इतनी सीढ़ियाँ चढ़ गए लोग कि खाई सी बन आई दिलों के बीच.
दरअसल पहचान के मानी बदल गए, आईने बदल, गए चश्मे बदल गए. झूठ की एक बड़ी मोटी परत सी जम गई है हर तरफ. तुम भी जानते हो बिना पत्तों के पेड़, बिना बूँद की नदी और बिना चाँद वाला आकाश कितना भी सितारों की चकाचौंध से भर दो सच्ची खुशी नहीं दे सकते. हम खुश नहीं है बेटा.
बेटा कहीं किसी ऊंचाई पर नहीं हैं हम. हम तुम्हें सेंसेक्स के कन्धों पर नहीं उस तोतले बच्चे के कन्धों पर झुके मिलेंगे जिसके ख़्वाब पंख लगने से पहले ही कुतर गए. सेल्फ़ी हम अपनी नहीं तुम्हारी खींचते हैं. ताकी सनद रहे. ये दिन तारीखों में कोयले से लिखे मिलेंगे. कल जब राख़ और मलबे में कोई टाटोलेगा तो उसकी उँगलियों पर हमारी शक्ल के कुछ ख़्वाब टकराएंगे. चलता हूँ बेटा. किसी नई कम्पनी का कसाईखाना खुल रहा है. निमन्त्रण है. सेल्फ़ी लेने जाता हूँ. नींद खुले तो जाग जाने की कोशिश करना, ख्वाब देखने के लिए जागना ज़रूरी है. ख़्वाब में कहीं मुझे भी रखना.
इधर यहाँ देखो. कहाँ ढूंढ रहे हो हमें… तीन रंगीन पट्टियों में, गीतों में, नारों में, कुछ तारीखों में. वहां से तो कब का कूच कर गए थे हम.
आंकड़ों में, भाषणों में, टोपियों में, कुरतों में? वहां तो अब परछाईं भी नहीं रही हमारी.
पर्वत में, नदियों झीलों, समन्दर में, वहां तो झलक के साए भी मिट गए हमारे.
यहाँ देखो… हां, वहीं. झाँककर देखो. अपने अंदर देखो… इसके अंदर… उसके भी. हम वहीं हैं, हम वही हैं जो तुम हो, तुम सब.
तुम्हें मिल जाओ तुम तो हमारी तरफ से भी कह देना हैप्पी रिपब्लिक डे!!
(अव) शेष मिलने पर! (भाषा के कुछ खिलवाड़ हम भी!) लोल!!
तुम्हारी ही बदरंग शक्ल में
तुम्हरा देस
आपका मुल्क़
तेरा राष्ट्र
जवाब देना तो ये भी सॉल्व करके भेज देना-
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है.
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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