प्रो. मृगेश पाण्डे

छिपलाकोट अंतरकथा : जिंदगानी के सफर में, हम भी तेरे हमसफ़र हैं

चीना रेंज में घने जंगल के बीच में रांची बिल्कुल सुनसान जगह में था जहां फारेस्ट क्वाटर थे. हमारा घर थोड़ी ऊंचाई पर था तो बाकी क्वाटर उससे नीचे. ज्यादातर वन विभाग के लोगों की ही आवत-जावत होती. चहल-पहल भी खूब होती. हमारे घर भी खूब नाते रिश्तेदार आते. नीचे स्टॉफ वालों के यहां भी उनके गांव घर से लोग बाग आते रहते. गांव से खूब माल-ताल आता. कभी फल कभी दही की ठेकी. काला वाला घी जो बरम से आता तो नेपाल से भी पीला पीला घी. वहीं से च्युरे का भी घी आता जो जाड़ों में हमारे हाथ मुख में लगाया जाता. आमा तो अपने पाँव में पड़े कदया में इसे लगाती. वो चप्पल पहनती न थी कहती आनंद के बाबू जब से गये तब से छोड़ दी. और भी जो जो छोड़ा होगा. पर खाने में आधा बेली घी खाने की दम थी उसमें. वैसे भी घर में दूध घी की बहार होती. दो गाय तो हमारी हीं थी. आमा कहती दन्यालि तभे फलेलि जब जानवर खुश रोल. इसलिए गाय बछिया भोड़े की खूब सेवा होती. नीचे पतरोल लोहनजू के साथ नीचे जमन सिंह के घर तो मुर्रा भैंस थी .शेरराम ने तो बकरी भी पाली थी और कुकुड़ी भी. क्यारियां भी खूब थीं. खूब साग सब्जी होती.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)

उप्पर की ओर जंगल में भिड़े के पास पानी का सोत था. नाली बना कर वो पानी घर के पास बड़ी डिग्गी में भरा रहता. डिग्गी में मुर्गाबी भी आती. मेंढक भेकाने भी खूब.कागजोँ की खूब फाड़ फूड़ कर हम नाव बनाते. डिग्गी में तैराते. डिग्गी का पानी जब चुपचाप होता तो उसमें सामने वाले पहाड़ की हूबहू तस्वीर बनती छाया पड़ती . बस अंगुली की एक ठपुक से वह हिलने डोलने लगती.

उसी सामने वाले पहाड़ में घूरड़ कांकड़ भी थे. कभी कक्का जी का मूड बनता तो अपनी दुनाली ले पतरोल लोहन जू और जमन दा के साथ जंगल शिकार मारने चले जाते. शेरराम बोक के लाता. फिर उसको भड़ियाते. छी! मुझे तो बड़ी घिन आती. वैसे कक्का जी ज्यादातर दौरों में रहते. बप्पाजी कॉलेज जाते,महेशदा और दिनेशदा भी इसलिए ये लोग मुँह अँधेरे ही लौटते. दिन भर हम निगरगंड फिरते.

अंधेरा होते ही सारे घर में लालटेन जल जाती. बड़े कमरों में लम्बी सी चिमनी वाले लेम्प जगते. नहाने धोने के कमरों में लंफू और हगने मूतने वाली जगह में,जो घर से बाहर थीं वहाँ रात अधरात जाने के लिए यही लंफू माचिस पाड़ कर ले जाने होते. खाली मूतने के लिए जाने में मैं तो छिलुका जला लेता और उसे गोल गोल घुमा बाहर की तरफ आते. खाने के बाद जरुरी था कि हम लोग सही से निबट लें. फिर भी रोज सुबे ये बड़बड़ सुनाई देती कि रात भर भूँ-भाँ,पट्ट-पुर्र करते हैं. ये किसने आज भी बिस्तर में ही धरका रखी है. अब गर्मी की बात तो ठीक,बरखा और बरफ गिरने में में उतने मोटे गद्दे कहाँ सूखें. उनसे चुरेंन आ रही कह, सब नाख भों सिकोड़ते. आमा रोज कड़कड़ाती कि नानतीनों को काले तिल-गुड़ के लड्डू खिलाओ, रात को मुतभरीना बंद हो जायेगा. सुनना तो हुआ ही नहीं. पर सभी औरतें कहतीं दिनमान भर तो खाना पकाने लसर पसर में बीत जाता है,अब जो बनाए तिल के लड्डू. बुढ़िया की कड़कड़ेट तो होती ही रहेगी. मुझे तो वो काले लड्डू अच्छे भी ना लगते फस्स फस्स करते. उनको तो शेरू और भेरू भी मुख न लगाते. मैं तो अपने व बहनों के बिस्तर में बप्पाजी के बड़े लम्बे डब्बे वाला खसबूदार पोडर जम के छिड़क देता. डांठ भी पड़ती कि इतनी जल्दी पोडर कैसे खतम हो गया. कौन लगाता है मेरी चीजों मैं हाथ. मैं चुप्पे से कांच वाली डब्बी से क्रीम भी लगा लेता जिस पर अफगान स्नो लिखा होता. बहनों के मुख में भी घिस देता. सब गोरफरांग हो जाते.

उस रात बप्पा जी भौत ही खुश घर आए थे. नितुआ भी पीछे पीछे था जिसके झोले और हाथ में खूब माल-ताल था.अभी कुछ दिन पहले हमारी बुआ भी आईं थीं. उनका नाम पदी बुबू था. पदी बुबू के नाम को बोल छोटी बैणी सरिता फिस्स कर हंसती थी. मैं सब जानता था कि वह पदी को कहाँ जोड़ रही है. घर भर में खूब बड़े बूढ़ो जैसी सयानी होने से सरिता को भी सब बुआ कहते थे. मैंने भी कहा अब घर में दो- दो बुआ. एक पदी बुआ जो कान में हाथ लगा हैं- हैं करती हैं और दूसरी फुसकी बुआ जो फुस्स- फुस्स पादती रहती है.

पदी बुबू तो भौत ही अच्छी ठहरी. बस जरा सुनाई कम देता था.उनके साथ जीवन दा और जया दिद्दी भी आए थे और एक दिन के लिए भिंजू भी जो दूसरे ही दिन कहीं दिल्ली- विल्ली चले गये थे. दिनेश दा ने मुझे बताया कि वो खूब लिखते हैं. कहानी- नाटक. बम्बई पूना भी रहे हैं. अब दिल्ली में नौकरी लग गई है. उनका नाम गोविन्द बल्लभ पंत है. अब नाटक विभाग दिल्ली में नौकरी करेंगे. तभी जा रहे हैं.तब तक पदी बुबू यहीं रहेंगी. जया दी और जीवन दा भी. जीवन दा, महेश दा और दिनेश दा की खूब पटती थी.

हां,तो सारे घर में शांति पसर गई थी जब बप्पाजी के घर में आ जाने का पल आया. आज और दिनों से उनके आने में देर भी हो गई थी. छंचर भी हुआ आज, कल की छुट्टी होती इसलिए भी देर लगायी होगी. तो आगे- आगे बप्पा जी और पीछे अपने कंधे में झोले पकडे नितुआ. बप्पाजी सीधे उस कमरे में घुसे जहां पदी बुबू, ईजा चाची, मायादी सब बैठे खूब गप्प मार रहे थे. हैंss हैंss की आवाज के बाद वही बात फिर दुहराई जा रही थी .

बप्पा जी के आते ही सब अटेंशन हो जाते थे . ईजा, छोटी चाची, माया दी कमरे से बाहर जाने को उठे. तभी बप्पाजी ने बुआ से जोर से कहा कि महेश की फर्स्ट डिवीज़न आई है. पूरी आगरा यूनिवर्सिटी को हमारे महेश ने फिजिक्स में टॉप किया है.अब जो होता होगा ये फिजिक्स- विजिक्स. बुआ अब तक खड़ी हो गईं थी. हैंss!अच्छा हुआ भौत अच्छा. सब हरदा तेरी मेहनत है तेरा जस है. बप्पा जी के कपाल पर हाथ फेरते पदी बुबू अचानक रोने की आवाज में बोली, आज अगर बिष्णु होता, भौजि होती, जेठ बौजू होते.. और फिर वो डॉढ़ मारने लगी. बप्पा जी भी कुछ लड़खड़ा के बुआ को सँभालने जैसा लगे जो रोते-रोते गिरने वाली थी. उनकी नाख से भी पानी जैसा चू रहा था. बैणी तो ये सब अचानक हुआ देख ऐसा डरी कि उसने अपने सर पर हाथ रख लिया.. मैंने खट्ट से उसका हाथ सर से झटक नीचे कर दिया. ईजा और छोटी चाची ने बुआ को वही पटखाट में बैठा दिया. बप्पा जी भी टेड़े मेड़े हो धम्म से बुआ के बगल में पास बैठ गये और अचानक भीं-भीं-भी करने लगे. शायद उनको अपने दाज्यू विष्णु दत्त की याद आ गई होगी. मेरी तो खित्त से हंसी निकल गई. इत्ते बड़े लोग रोते कैसे हुडभ्यास जैसे दिखते हैं और बप्पाजी,उनकी खाप से से तो मुख में ठूंस रखे पान का रस भी निकल रहा था. अजीब जैसी बदबू-खसबू भी आ रही थी. अक्सर ये रात होते बब्बा के मुख से भी आती और कक्का से भी. बब्बा तो ऐसे में तो गाना भी गाने लगते और हारमोनियम को हवा देते. कक्का अक्सर गुस्से में आ जाते जब उनकी मनकसी न होती तो उनका मुख लाल हो जाता और वो अंग्रेज जैसे दिखने लगते. फिर वो शास्त्रियों को गाली देने लगते. मेरी ईजा और चाची दोनों शास्त्रियों के घर से आईं थीं. कक्का गुस्से में जोर-जोर से कहते ये सब शास्त्री हुए तो तेवाड़ी जो अंग्रेजों के पिट्ठू रहे. अब लिखने लगे शास्त्री. अंग्रेजों का हगा भी बटोरा इन्होने. खूब दे गये गोरे इन्हें भी शाहों की तरह. उनकी भेल धोई तो जमीन मिली, माफीदार बने. अब आजादी मिली तो कोंग्रेसी हो गये. आज तो कका दौरे में थे नहीं तो और बढ़िया नाटक होता.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)

अभी सामने बब्बा तो पीँ-पीँ, ढीं- ढीं कर वहीं पदीबुबू के पास लुढ़क-पुडक कर बैठ जैसा गये थे थे. बुआ सब बढ़िया हो गया,सब ठीक हो गया कह उनके सर पर हाथ फेर रहीं थी. मुझे खूब हंसी आ रही थी और मुँह को हाथ की उँगलियों से दबा में उसे रोकने की कोशिश में खित्त तो कर ही दे रहा था. अच्छा हुआ जो बहनों को छोड़ मेरा मुख और हंसी किसी ने ना देखी. इसी बीच पदी बुबू भी अपनी पतली सी आवाज में पीँ -पीँ जैसा करते कुछ कह रई थी.”आज विष्णू होता ना हरदा तो कित्ता खुश होता ददा. तूने हरिया आज बाप का फरज पूरा कर दिया. पहले अपने भाइयों को पढ़ा लिखा उनका घर बार बसाया अब भतीजों को सही बाट पे लगाया. सबको अपना माना. तभी सपड़ रा है सब.”

माया दी बप्पाजी के जूते मोज़े खोल बाहर को जाने लगीं थीं. ईजा अब तक नितुआ के हाथ में पकडे झोले-झंतर से मिठाई के दो बड़े डब्बे निकाल थाली में रख चुकी थी. कुछ फल -वल भी थे. दूसरे झोले में हाथ डाला तो नितुआ ने कुछ इशारा जैसा कर हाथ हिलाया तो ईजा ने उसे गुस्से से देखा. उस झोले से हाथ छटका जब ईजा थाली उठा ठ्या में ले गई और घंटी की टुन-टुन कानों में पड़ी तो मैं तुरंत नितुआ के पास पहुंचा और उसके हाथ में कस के पकडे झोले पर निगाह डाल बोला- इसमें क्या है बता? नितुआ ने बड़ी रुखाई से कहा तुम्हारे मल्लब की चीज नहीं कुन्नू बाबू. हाथ मत लगाना कहीं गिर गई तो फूट जाएगी. वैसे भी शाब ने बाटे में खोल चड़का दी थी. ये कह नितुआ बाहर की ओर वो झोला पकड़े जाने लगा तो कमरे से निकलते ही मैं बोला- दिखा दे नितुआ नहीं तो खायेगा एक गदेक. लो फिर यहां आओ झोला तो तुमारे हाथ में दूंगा नइं. लो देखो इधर. वहीँ कोने में छुपा-छुपु उसने गले में माला जैसे पड़े झोले में हाथ डाल इधर-उधर चा कर एक बोतल निकाली और बोला- साब लोगों की चीज है किसी को बताना मत. ये कह उसने आँख भी मारी. बोतल फिर खट्ट से झोले में डाल दी. रुक जा बे! उसके हाथ को झटका अब मैंने अपने हाथ को झोले में डाला और मजबूती से कस के बोत्तल पकड़ बाहर ही निकाल दी. उसमें लिखी अंग्रेजी के अक्षर जोड़-जोड़ के पढ़ भी दिए. हारकूलिस के बाद था तीन गुणे के निशान यानी तीन एक्स और फिर रुम. अबे ये तो हारकुलिस तीन अक्स रुम है जिसकी बदबू आ रई. “बदबू नहि कुन्ना बाबू,इससे ऐसी इ खशबू आती है अंगलेज़ी माल ठेहरा बिक्कुल चोखा, एक मचीस की तिल्ली पाड़ दो तो भक्क से आग. लो रख दो अब. मैं अलमारी में रख देता हूं कहीं टोटिल हो गई तो मेरी तो भेल फाड़ देंगे साब”. हीss!हीss s! हीs, उसकी इस बात पे मुझे बड़ी हंसी आई और बोतल झोले में सरका मैंने उससे फिर पूछा-क्या बोला था तू ये माल है? हाँ हो. माल अंग्रेजी. दारूss कैने वाले ठेरे इसे. बस-बस! मैं समझ गया अंग्रेजी माल यानी दारू. गिर गई तो तेरी भेल… मैं कुछ और कहता इससे पहले ही वो सटक गया.

वैसे भी सामने से ईजा आ रही थी. उसके हाथ में थाली थी. थाली में लड्डू. “ले कुनुआ. महेश फर्स्ट पास हुआ है उसका लड्डू खा. तू भी होगा न फर्स्ट पास”?हूं हूं. मुँह में लड्डू भर दिया था मेरे. आगे मैं क्या बोलता?

सुबह होते ही मुख -हाथ में पानी लगा मुझे याद आई कि बड़े दद्दा फर्स्ट पास हुए हैं. क्या मालूम इस खुशी में आज चटके खाने से बच जाऊं. कल जो गणित के सवाल उन्होंने दिए थे वो तो मैं करना ही भूल गया था और शाम तक मैंने ये सोच लिया था कि कह दूंगा कि सबाल तो मैंने पूरे कर रक्खे थे पर वो सबाल-जबाब वाली कॉपी बड़ी चाची ने पता नहीं कहाँ पर खोस्या दी. नहीं-नहीं, उनसे खोस्या दी नहीं,रख दी कहूंगा नहीं तो एक झपाट और पड़ेगा. वो तो ज्यादा अंग्रेजी के शब्द बोलते थे और मुझे समझा भी अंग्रेजी में देते थे. अब मेरा तो दिमाग ही पट्ट हो जाता था. अब खैर जल्दी से अपनी हिसाब की कॉपी बप्पाजी के कमरे में तखत में बिछे दन के नीचे घुसेड़ में निश्चिन्त हो गया कि ददा से कह दूंगा कि गुणा भाग वाले सारे बारा -तेरा सवाल तो मैंने कल ही कर दिए थे पर कॉपी पता नहीं चाची ने कहाँ गजबजा दी. बप्पाजी पूजा के कमरे में जा चुके थे. उनकी रात वाली भीं-भीं मुझे याद आयी.इस बखत तो बिल्कुल पंडित बने हैं. मुझे फिर खित्त हंसी आ गई.

पैजामा बदल और बालों में कंघी मार मैं महेश दा के कमरे की और बढ़ चला. पढ़ने लिखने के समय साफ सूफ बन-बैठना पड़ता था नहीं तो ददा एक चापड़ लगा कहता ये कैसी तेलैँन-गोबरेंन आ रही तुझसे? गाय के गोठ से आ रहा है क्या? अब इत्ती ठंड में सुबे-सुबे पानी में कौन हाथ लगाए अरड़ी जाने को. इसलिए आँख के गिदड़े-मिदड़े उंगली से निकाल अम्पोछे का एक सिरा पानी में लगा में मुखसाफ कर लेता था, नाख भी. वैसे भी सब सुबे नहा लेने वाले बनते थे. एक लोटा पानी भी डालते थे,जने नहीं नहाने में तो मजा तब आता जब बाहर के चूल्हे में सुलगी लकड़ियों में एक कंटर पानी चुड़कन कर लोहे वाले बड़े टब में डलवा लो. फिर खूब ठंडा पानी मिला और उसमें घुस छपा-छप करो आधेक घंटे. लाइफबो साबुन की टिक्की घिसते रहो. फिर और गरम पानी डलवा लो धनसिंह से उस बड़े से टब में.

हाथ में खाली पेंसिल पकड़े बड़े दद्दा के कमरे की ओर बढ़ा तो देखा कि सामने थाली के ऊपर चाय के गिलास पकडे जया दिद्दी आ रहीं हैं. उनको देख मुझको शरम आ जाती थी क्योंकि वो मेरे गलड़े अपने मुलेम हाथों से सहला गाल लाल कर देती थीं. मैं तेजी से महेश दा के कमरे मैं घुस गया. महेश दा कुर्सी पर बैठे थे. जीवन दा बिस्तर पर लधरे उनसे बात कर रहे थे. दिनेश दा अभी रजाई से मुंह ढके सोये ही दिख रहे थे. मैं उनके पैताने बैठ गया. तभी जया दिद्दी आ गयीं और सबकी चाय के गिलास टेबुल पर रख दिए. ‘अब आगे क्या सोचा है दा’. वह महेश दा से पूछ रहीं थीं. ‘आगे के लिए डॉ बापू ने बुलाया है. ऑब्ज़र्वेटरी के डायरेक्टर. कोडाइकनाल में थे अब यहाँ आये हैं कुछ समय के लिए. डॉ पंत तो रिसर्च ज्वाइन करने के लिए कह रहे हैं पर में तो एस्ट्रोनॉमी में ही इंटरेस्टेड हूँ. हरीश कक्का व मथुरा चच्चा को पहले ही बता दिया है, आज ही डॉ बापू से मिलने जाऊंगा ऑब्ज़र्वेटरी.’ महेशदा की बात ख़तम भी नहीं हुई थी कि मैंने फटाक से पूछा ये ऑब्ज़र्वेटरी क्या होती है?
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)

“ऑब्ज़र्वेटरी यानि वेधशाला. उसमें दूरबीनें होतीं हैं. उनसे चाँद सितारों को देखते हैं कुन्ना मास्टर.” जीवन दा ने मुझे बड़े प्यार से समझाया. फिर मेरे बालों में हाथ फेर बोले- बड़ा लम्बा हो गया है तू तो.

दिन में ही दिख जाते हैं चाँद –तारे, मैंने खट्ट से पूछा.

अरे नहीं,रात को. सब ग्रह देख सकते हैं जैसे वीनस,सैटर्न,मरकरी. यहाँ रामसे अस्पताल के ऊपर खुली है ऑब्ज़र्वेटरी देवी लॉज में. तुझे भी ले चलेंगे वहाँ कभी. तू क्या देखेगा दूरबीन से? – जीवन दा मुस्कुराये.

मैं तो वो पहाड़ देखूंगा सामने वाला. वहां कोई मुझे ले ही नहीं जा देता. मेरी इस बात पर सब हंसने लगे. जया दिद्दी भी. दिनेश दा ने भी रजाई से मुंह बाहर निकाल दिया. वो भी अपने टेढ़े मेड़े दाँत दिखा हँसने लगे. महेश दा कहते ये दिनुआ के दाँत तो गुरुदत्त जैसे हैं इसीलिए उसी की तरह बिना दाँत दिखाए बात भी करता है.

कई सालों के बाद जब मैं डी एस बी कॉलेज से अर्थशास्त्र में एमए कर रहा था तब हमारे प्रोफेसर डॉ गिरीश चंद्र पाण्डे ने भोटान्तिक समाज के व्यवसायगत ढांचे का विषय प्रोजेक्ट लिखने हेतु मुझे दे दिया. सबसे पहले तो ये प्रोजेक्ट हमारे क्लास की सबसे खूबसूरत और बड़ी होनहार रश्मि को दिया गया था. उससे सब आतंकित ही रहते क्योंकि उसके डैडी जी उत्तर प्रदेश पुलिस में बड़े ओहदे पर थे और राजधानी लखनऊ से अक्सर दौरों पर नैनीताल पधारते रहते थे. हर समय लोग-बाग उनके आस-पास दिखाई देते,सर झुकाये हाथ पीछे किये. इसी से उनके रुवाब का पता चलता था. सुना बड़े गुस्से वाले भी थे. बड़े क्रिमिनल्स के तो हाथ पाँव के नाख़ून उखड़वा सब राज उगलवा देते थे. उनकी मिसेस बॉब कट थीं. एकमात्र नखचड़ी बेटी ये रश्मि कान्वेंट की पढ़ी थी,हॉस्टल में ही रही थी और ज्यादातर अंग्रेजी बोलती थी. उससे ज्यादा संवाद इसी कारण मुंह में ही गल जाते क्योंकि बात जवाब अंग्रेजी में करने पर हमारी जबान लटपटा जाती थी. इसलिए ईंट का जवाब पत्थर से देने की नीति पर चलते उसके आगे पीछे हम जैसी भी हो पहाड़ी बोलने लग जाते थे. जिसे वह बड़ा ध्यान दे सुनती थी. लगी भी हमारे ही पीछे रहती थी. पर हम तो छह फुट छह इंच की थ्योरी पर चलने वाले हुए. जब तक दूरी छह फुट कितना ही बकतरी जाओ पर जहां दूरी छह इंच सीधे फुट लो.

रश्मि को जब पता चला कि प्रोजेक्ट में उतने दूर बॉर्डर के पास जाना होगा और कुछ फोटो भी रिपोर्ट में उसी इलाके के लगाने होंगे तो उसने डॉ एलहंस से कहा. फौरन उसका टॉपिक बदल गया. भोटिया इकॉनमी की सर्वे रिपोर्ट का काम डॉ पांडे ने मुझे दे दिया और कहा भी ये लड़कियों के बस का है भी नहीं. उसको टूरिज्म डेवलपमेंट इन नैनीताल का टॉपिक मिल गया. डॉ गिरीश पांडे जी ने मुझसे कहा कि धारचूला मुन्स्यारी के जितने बच्चे कॉलेज में पढ़ते हैं उनसे उनके इलाके के बारे में जानकारी लो. पांच-सात ऐसे मिल ही जायेंगे जो उनके व्यवसाय के बारे में और चीन युद्ध के बाद व्यवसाय में आ रहे बदलाव के बारे में काफी कुछ बताएँगे. सीमांत के परंपरागत पेशों के बारे में सब वहां के बच्चे जानते हैं क्योंकि ये काम पूरा परिवार अनूठे श्रम विभाजन से करता है. फिर लाइब्रेरी जाओ वहां हिमालयन गजेटियर है जिसे कुमाऊं के कमिश्नर एडविन टी एटकिंसन ने लिखा है. यह सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ है जिसके तीन भाग हैं. तीसरे भाग में एटकिंसन ने भोटिया महाल के रूप में इस इलाके की एक्सटेंसिव डिटेलिंग की है. उसे पढ़ डालो उसके रेफ़्रेन्स लो. अब ये आज के जितने भी हिस्ट्री वाले बड़ी बड़ी किताब लिख रहे हैं उस इलाके और कुमाऊं पर वो एटकिंसन के काम से ही टीपी हुई हैं. बी डी पांडे के कुमाऊं का इतिहास में भी वही सब है. हाँ,साथ में स्ट्रेची और ट्रेल का लिखा भी नोट करना. शेरिंग की भी जबरदस्त किताब है हिमालयन बॉडरलैंड पर. उसे भी पलटना. ये सब रेफ़्रेन्स ले मुझे दिखा. फिर आगे बताता हूँ कि प्रोजेक्ट कैसे पटपटाते हैं.

और हाँ ,तेरे तो चचा हुए फारेस्ट में. वो मथुरादत्त जी. ऐ.सी.अफ साब. कहाँ हैं आजकल?

 लोहाघाट ट्रांसफर हो गया है कक्काजी का,आजकल आये हुए हैं .

अच्छा,उनसे पूछ. मथुरा बहुत गया है उस इलाके में. ये कुमाऊं के कमिश्नरों का लिखा भी खूब पढ़ा है उसने.

 मैं बड़ा खुश हुआ. महेश दा से उनका रुसी कैमरा ले लूंगा जिसमें टेलीफोटो लेंस लगा है. है तो बहुत भारी पर दूर की चीज क्या पकड़ता है. बड़े दद्दा अब ऑब्ज़र्वेटरी में अस्ट्रोनॉमर थे. सोलर फिजिक्स वाले. पांच साल रूस में मॉस्को और कीव में पढ़ डॉक्टर की डिग्री मिली थी. अपने को कास्त्रोनौट कहते थे. उनके आने के बाद सोलर साइंस नाम का नया विभाग खुला था वहां. बहुत बिजी रहते थे. नई ऑब्जरवेटरी देबी लॉज से मनोरा पीक हनुमान गढ़ के पार बन गई थी. महेश दा वहीँ मनोरा पीक रहने लगे थे,खूब बड़ा घर था. हर जगह बस किताब ही किताब. अकेले रहते थे. पढते तो बहुत थे. अपने विषय के अलावा रुसी उपन्यास,वहां की कविताएं. अख़बार सिर्फ ब्लिट्ज पढ़ते थे. वो हफ्ते में आता था और मल्लीताल आर नारायण की दुकान में मिलता था. उसके बीच में उसके संपादक आर के करंजिया का एडिटोरियल होता था तो आखिरी पन्ना जो लाल स्याही से छापा होता में ख्वाजा अहमद अब्बास का पूरे पेज का आर्टिकल आज़ाद कलम. महेश दा ने ही मुझे कैपिटल सिनेमा में डॉक्टर ज़िवागो दिखाई थी. कैंसर वार्ड भी पढ़ने को दी थी. धीरे बहो दोन भी, स्पार्टाकस भी. ये सब उपन्यास अंग्रेजी में होते जो मुझे आधे-अधूरे ही समझ में आते. उनके पास एक रिसाला आता जिसका नाम उर्दू कहानियां होता. मैं जब भी मनोरा पीक जाता इसे जरूर पढता और मांग भी लाता. इस्मत चुगताई,जां निसार अख्तर, कुर्तुल एन हैदर,मंटो,फैज सब क्या लिखते थे. दुर्गा साह म्युनिस्पल लाइब्रेरी से भी उर्दू वालों के उपन्यास ढूंढ कर पढ़ता. वहां के लाईब्रेरियन शाह जी ऐसी किताबें देख कहते कि हिंदी और बांग्ला के उपन्यास भी पढ़ा करो. शक्तिपद राजगुरु की मेघ ढका तारा जो बिलकुल नयी आयी थी उन्होंने मुझे दी थी. उसी दौर में पत्थर और पानी भी पढ़ी थी जो नेत्र सिंह रावत की लिखी थी. उसे पढ़ मुझे लगा कि मैं पूरी दारमा घाटी की यात्रा कर आया हूँ. ऊँची चोटियों को छू आया हूँ. पंचचूली तो बिलकुल मेरी आँखों के सामने है.

कक्काजी जैसे ही थोड़ा लेट घर आये मैंने उन्हें घेर लिया. डायरी और पेन पकड़े उनके आगे जम गया. पर्वत पहाड़ की बात सुन उनका ख़राब मूड भी ठीक हो जाता था. उस दिन तो उन्होंने मेरे हाथ से पेन ली और डायरी पर बाकायदा नक्शा बना मुझे समझाने लगे. बताया कि पिथौरागढ़ में स्वामी प्रणवानन्द रहते हैं जिन्होंने कई बार इस पूरी घाटी के परे कैलास मानसरोवर की पैदल यात्रा की है वो भी कई बार. तुझे ले चलूँगा वहां और मिलाऊँगा स्वामी जी से. फिर वो बोलते रहे. बीच-बीच में लिखते रहे मेरी डायरी में और सिगरेट पीते रहे. खांसते भी खूब थे. बप्पाजी इस बात को ले उनसे बहुत नाराज भी रहते. कहते कि गेठिया और भोवाली के टी बी सेनिटोरियम में जब सड़ेगा तब पता चलेगा. घर में इतने छोटे बच्चे हैं पर कोई होश नहीं.ले सिगरेट पे सिगरेट. कक्का जी तुरंत मुहं पे लगी सिगरेट ऐशट्रे में डाल देते. थोड़ी ही देर में उनके कांपते हाथ फिर नयी बत्ती जला लेते.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)

कक्काजी ने सब बताया कि आज़ादी से पहले कुमाऊं के सीमांत का दारमा परगना- दारमा,व्यास और चौदास नाम की तीन पट्टियों में विभाजित था. जब 1872 का बंदोबस्त हुआ तब दारमा पट्टी को मल्ला दारमा और तल्ला दारमा के नाम की दो पट्टियों में बाँट दिया गया था. दारमा के उत्तरी भाग में पड़ता है हूँण देश यानि कि तिब्बत तो इसके पश्चिम में पंचाचूली और छिपला की विस्तृत चोटियां हैं. दारमा के पूरब में जो पहाड़ी धार है वह यिग्रनजंग की बीस हजार से ऊँची चोटी तक उठी है और दारमा पट्टी को व्यास घाटी और चौदास पट्टी से अलग करती है. वहीँ दक्षिण में छिपला की चोटी से पूरब की और काली नदी तक फैली हुई विस्तृत पर्वत श्रृंखलाएं हैं. पूर्वी काली नदी से ही भारत और नैपाल की सीमाएं तय होती रहीं हैं. जो व्यास पट्टी है इसके उत्तर में हूँण देश और भोट को अलग करने वाली पहाड़ी धार है. पूरब की तरफ भी यही धार है जो दक्षिण -पूर्व की तरफ मुद कर काली नदी के साथ साथ चली जाती है. काली नदी ही इसे नेपाल से अलग करती है यह भोट का पूर्वी सब डिविज़न है और इसमें कुटै-यांग्ती और काली नदी की घाटियां हैं जो अत्यंत मनमोहक व सुरम्य हैं तो उतनी ही कठिन और भयावह भी. यही वह घाटियां हैं जिनसे हूँण देश यानि कि तिब्बत तक जाने वाले वाले तीन दर्रे हैं. इनमें थान दर्रा थुरंग घाटी में तकलाकोट तक जाता है और इसे ही सबसे आसान दर्रा माना जाता रहा.

छोटी चाची ने फिर आकर कहा कि चौखे में खाना लग गया है. बप्पाजी भी आते ही होंगे. अब चलो. कल समझा देना. कक्का जी बेमन से उठे और मुझसे बोले- अब कल मेरे साथ चलना तू ऑफिस वहां अपने अकॉउंटेंट हैं बर्फाल जी. उनसे जानना उस सारे इलाके का इतिहास भूगोल और वहां के रस्मो-रिवाज. आदमी जितनी ऊँची जगह पर रहता है प्रकृति के बीच तो यही प्रकृति ही उसकी गुरु बन जाती है. बस ये याद रखना बेटा कि पहाड़ों की ऊंचाइयों को छूना तभी मुमकिन है जब झुक कर आगे बढ़ा जाये. कक्का जी बीच-बीच में फिलोसोफर भी हो जाते थे.

मल्ली ताल वन विभाग के ऑफिस में कॉलेज क्लास अटेंड कर मैं अयारपाटा वाले रस्ते चल दिया. साथ में गिरीश भी था जो इतिहास से एमए कर रहा था. तब हिस्ट्री डिपार्टमेंट में हेड डॉ द्विवेदी थे और उनकी पत्नी डॉ शाकम्भरी द्विवेदी भी. दोनों ने कुछ महीने पहिले ही लव मैरिज की थी जबकि दोनों पचास पार कर गए थे. मिसेज़ द्विवेदी तो शादी के बाद बिलकुल गुड़िया जैसी दिखने लगीं थीं. शादी के बाद पूरा महीना भर वो दोनों पहाड़ों में घूमते रहे थे. उनके साथ उनका चरणचाट चेला गिरीश रहा. गिरीश को पहाड़ों में घूमने का खूब शौक रहा. उसका गांव बागेश्वर से आगे कपकोट में हुआ. पिंडारी ग्लेशियर भी वो दो तीन बार जा चुका था. ऐसे ही भराड़ी के आगे अचानक ही वो डॉ द्विवेदी से टकरा गया जो भारी बारिश में फँस गांव के पधान के यहाँ रुक गए थे. पधान ने ही बताया कि तुम्हारे स्कूल के माट्साब हैं. दो तीन दिन से मेरे घर पे ही टिके हैं. जरा गुरूजी की सेवा टहल कर देना. एक तो बोलते बहुत कम हैं कहते भी अंग्रेजी ज्यादा हैं. तू गिरवा, जरा देखभाल कर, गुरुसेवा कब फल जाये. सब भाग हुआ. गिरीश ने गुरूजी की इतनी सेवा टहल की,ऐसा ख्याल रखा कि बस अब तो वह उनका खासमखास चेला हो गया.

वन विभाग के दफ्तर में गिरीश के साथ जा बर्फाल जी से भेंट हुई. छोटे कद के बर्फाल जी खूब प्यार से मिले और उन्होंने इतवार को अपने डेरे,जो खम्पा मंदिर के पास था बारापत्थर जाने वाले रस्ते में रामकृष्ण मिशन के आगे,आने का न्यूत दे दिया. कहा सब समझने में तो पूरा दिनमान भर लग जायेगा. सो नौ-दस बजे आ जाना और दिन का भोजन भी वहीँ करना. आज कल तो ऑडिट हो रहा ऑफिस में तो दो मिनट का टाइम नहीं होता.

 ठीक टाइम में इतवार को गिरीश के साथ बर्फाल जी के घर पहुँच गया. लकड़ी का गेट खोलते ही दो बिलकुल झक्क सफ़ेद तिब्बती कुत्तों ने पहले कोमल सी आवाज में भोंक स्वागत किया. अचानक ही वो चुप हो गए और दुम हिला आगे पीछे फिरने लगे. फिर गोद में चढ़ने और चाटमचूट करने का दौर चला. वो पहचान गए थे कि हम भी असल कुकुर प्रेमी हैं. बर्फाल जी के घर में तरह-तरह के मौसमी फूलों की खूब बहार थी. सामने क्यारियों में खूब साग पात. लौकी,तोरई,कद्दू और हाँ गेठी की बेलें भी लटकीं थीं. सामने के तखत पर दरी के ऊपर उनकी बेटी दन बिछा गयी. जिसमें दो ड्रैगन बने थे. ‘अब जूता खोल इसमें भेट जाओ और सब लिखते रहना आराम से,’ उन्होंने हमसे कहा. हम भी तुरंत मुलायम दन में विराजमान हो गए.

“आप को चाय पिलाते हैं नमकीन वाली ,बस तैयार है,हाँ बेटी सरुss ,ले आ. वो खजूरे भी ला और लाडू भी “.बर्फाल जी वहीँ जमीन में बिछे हुए फ़ीणे में बैठ गए जिस पर मुलायम सी कोई काली खाल बिछी थी शायद भेड़ की होगी. तभी सरू आयी और मुस्काते हुए हाथ में पकड़ी प्लेट तखत पर रख दी. उसके पीछे ही हाथ में पीतल के गिलास पकड़े एक भली सी महिला आई. बर्फाल जी ने बताया वह सरु की अम्मा है. उन्होंने हम दोनों के हाथ में गिलास पकड़ाए और बोली ,’चाखो कैसी लगती है?’ तुरंत ही मैंने गिलास मुंह से लगाया. पहली बार पी रहा था नमकीन चाय. ‘वाह ये तो बड़ी स्वाद है. वैसे ही कितली में उबाल के बनाते हैं क्या?’ ना,इसको बनाने के बर्तन अलग होते हैं. वह बोलीं. लकड़ी का बना ‘दोंगबू’ होता है जिसमें नमकीन चाय भी बनती है और मट्ठा भी फांटा जाता है. ऐसे ही मिट्टी का बना बरतन होता है जिसको ‘तिबरी’ कहते हैं. और तो और आदमी लोग गांव में जिस बर्तन में ये चाय पीते हैं उसे ‘लिंचै’ कहते तो औरत लोगों का बर्तन ‘मुल कचें’ कहलाता है. चाय को हमारे यहाँ ‘मरज्या’ कहा जाता है. नमकीन चाय बनाने में ‘स्यप्ली’ की झड़ी की जड़ पड़ती है जिसको खूब उबला जाता है फिर जो और चीजें पड़तीं हैं. वह बड़े स्नेह से बोलीं. बर्फाल जी ने बताया कि ए.सी.एफ साब को खूब पसंद है ये चाय. खाने-पीने के शौक़ीन हैं. सूखा मीट और मड़ुआ ‘कलं’ के साथ मड़ुआ ‘कुट्टो’ खूब पसंद है उन्हें. तभी सरु बोली,’कुट्टो का मतबल रोटी हुआ हाँ और कलं सूप ठहरा. आपको तो दिन में छाकू-दुमती खिलाएंगे हाँ ददा’. इससे पहले मैं आश्चर्य प्रकट करूँ वो बोली मतलब दाल -चावल. बिल्कुल काली वाली सीमि की दाल बनी है अभी भुदक रही है. अम्मा ने मरकुटु भी बनाया है बड़ा स्वाद होता है.

धारचूला जा कर वहां के हमारे काम धंधे,रहन-सहन के बारे में जानना है के बारे में जब बर्फाल जी ने अपनी पत्नी को बताया तो वह बड़े दुख से बोलीं- अब तिबत का व्यापार तो बंद ही हो गया. ऊन का काम होता था. अब तिबत की ऊन तो बड़ी मुश्किल से मिलती है. अब तो बच्चे पढ़-लिख नौकरी में लग जाएँ बस. सरु का ददा भी पीएमटी कर अब इलाबाद से पढ़रा. ‘इलाबाद नहीं अम्मा. इलाहाबाद मोती लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज से. मैं भी इस साल इंटर कर पीएमटी में बैठूंगी.’-  सरु बोली तो बर्फाल जी ने बताया कि ये तो लिखाई-पढाई के साथ खेल-कूद और घर के सीप में भी बड़ी होशियार है. आजकल अपनी मां के साथ लग दन जैसे छोटे आसन बनाना सीख रही है.

अब बरफाल जी हमें विस्तार से बताने लगे. पहले तो आप पहुंचोगे धारचूला. मेरे ख्याल से तो आपके लिए पिथौरागढ़ वाला रास्ता सही रहेगा. रात वहीँ रुक जाना. ज्यादा थके लग रही होगी तो एक दिन वहीँ रुकना. में फारेस्ट रेस्ट हाउस में बात कर लूंगा. वहां बोरा जी हैं उनको चिट्ठी भेज दूंगा. सब खाने-पीने रहने की व्यवस्था हो जाएगी वहां. वहीँ उल्का देवी का मंदिर हे .सूबे-सूबे वहां दर्शन करना. दूसरे दिन सुबे-सुबे पांच बजे डाक गाड़ी चलती है धारचूला को. वो सबसे सही रहेगी. आठ-दस घंटे लगेंगे धारचूला पहुँचने में. वहां भी हमारे रेस्ट हाउस में रुकोगे . अगले दिन से तो बस पैदल चलना होगा. फिर धारचूला से काली नदी के किनारे-किनारे होते आएगा तवाघाट. यहीं से दो बाटे फटते हैं. एक तो जायेगा नारायण आश्रम और दूसरा खेला,पलपला आदि.

काली नदी के पूरब में तिंकर नदी की घाटी है जहाँ नेपाल की बसासत है. इस घाटी के पूरब और दक्षिणी पूरब में ऊँची और बर्फ से भरी चोटियां हैं. यह पूरा इलाका व्यास घाटी का हिस्सा है. कुमाऊं में गोरखा राज होने से पहले तक यह हिस्सा नेपाल के जुमला में आता था पर बाद में बीती सदी के आखिरी दशक में अस्कोट के रजवाड़ों ने इसे जीत कर कुमाऊं में मिला लिया. ऊपरी व्यास का पहला गांव जो दस हजार फ़ीट से अधिक ऊंचाई पर है,गर्ब्यांग है जो काली नदी के पास है. इस गांव में बहुत पास-पास प्रस्तर खम्बे लगे हैं जो सजावटी दिखते हैं जिनका लगाया जाना हमारी इस इलाके की धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा है. यहाँ से कुछ ही दूरी पर छिंदू गांव के खंडहर हैं,कहा जाता है कि बहुत पहले काली नदी विकराल हो छिंदू गांव को बहा ले गयी थी. इस पूरी घाटी की तलहटी समीपवर्ती पहाड़ियों के मलवे और दलदल से बनी है. इनके बीच से ही काली नदी अपना पथ बनाते निकलती है. तट पर जो गांव हैं उनके लिए काली नदी विकराल है. मलवे की जो ऊँची तलहटी है उसे ‘छेतो पहाड़ी’ कहा जाता है जो बूदी गांव के ठीक ऊपर है. छेतो पहाड़ी के पूरब और पूरब -उत्तर में काली नदी इसे काट कर गुजरती है वहां ऊँची- ऊँची खड़ी चट्टानें बन गयीं हैं. इस इलाके के पश्चिम में सरस्वती घाटी है फिर धौली घाटी है जो चोरहोती दर्रे तक जाती है.

जुहार परगने में आने वाली गोरी घाटी है जहाँ से मिलम और ऊंटाधूरा होते हुए बाल्चा दर्रे में पहुंचा जाता है. बूदी व्यास घाटी का पहला गांव है. इससे आगे करीब तीन किलोमीटर की कड़ी चढाई पार कर आता है छियालेख का बुग्याल. बूंदी से आगे करीब पंद्रह किलोमीटर आगे पड़ता है गुंजी. व्यास घाटी के इस प्रवेश द्वार में जो भी आता है वह सबसे पहले भूमि देवता की पूजा करता है. ‘बढ़ानी पूजा ‘ होती है जिसमें चारों दिशाओं में चावल वारते हैं. चखती छिड़कते हैं. धूप अगरबत्ती जलाते हैं. जी रै,बची रै अर्थात दीर्घायु की कामना की जाती है. व्यास घाटी में भारत और नेपाल के नौ गांव हैं जिन सभी गांवों में बढ़ानी पूजा की जाती है और लम्बी उम्र की कामना करते बाल-गोपालों सहित सब को यह आशीष दी जाती है की “नावर की तरह उम्र हो तथा दिखने में हिरन की तरह खूबसूरत हो -वर गे छे ना छे राला ,व्यू गै नौ ना नौ रा लो”

मैंने देखा यह बात कहते और मंत्र जैसा पढ़ते बर्फाल जी उनकी पत्नी और बेटी सरु के हाथ जुड़े थे. अब उनकी पत्नी बोलीं- ये जो पूरी व्यास घाटी है न,वहां शिबजी के गण का रूप नमज्युंग परबत को माना जाता है. सब गावों में उधर इनकी पूजा होती है. गण का मतलब समझते होगे ना?’हाँ हाँ ! असिस्टेंट हुए’,बड़ी देर से बैठा गिरीश बोला जो सारी बातचीत के बीच सफ़ेद कुत्तों से खेलने में लगा था. मैंने कहा गण,आण-बाण इन सबका जिक्र मेरी आमा करती थी. अब हल्का सा मुस्काते वो बोलीं- छियालेख से आगे तो अन्नपूर्णा माता का परबत लग जाता है जिसको आपी पर्वत भी कहते हैं. अन्नपूर्णा माता की पूजा गेहूं के बाले से की जाती है. हमारे उधर गणेश जी को ‘प्येर’ कहते हैं. उनकी पूजा भी गेहूं की बाली से होती है. हमारे वहां दूध को ‘नू’ कहते हैं. उसके दूध का दही बना कर ‘छिरबे’ बनाया जाता है. उसका भी परसाद बनता है. चंवर गाय भी होती है. उसकी पूंछ देवताओं पर वारी जाती है. हमारे वहां कहते हैं कि कर्बी बुग्याल के पास एक औरत अपनी चंवर गाय का दूध लकड़ी के घड़े में दुह रही थी जिसको ‘पादें’ कहते हैं. अब दूध निकलने के बीच ही चंवर गे ने घड़े में लात चटका दी जिससे दूध के छींटे नौ जगह पड़ गए. कहते हैं जहाँ-जहाँ ये छींटे पड़े वहां वहां सफेद पानी के सोते फूट गए. दूध के पानी के नौ धारों वाली जगह को, ‘ग्वी दारू नू ती’ कहा जाता है. वो नम्पा से कुटी नदी के पार जो पानी का सोत है उसे भी ‘नू -ती’ कहते हैं. कहते हैं चाहे कितनी ही बारिश क्यों न हो जाये पर इस सोत का पानी हमेशा सफेद ही रहता है,कभी गन्दा नहीं दीखता’

छियालेख से आगे बाहर वाले विदेशी नहीं जा सकते. वहां से वो परबत दीखता है जिसको नमज्युंग पर्वत कहते हैं. वही भौत ही खूबसूरत टीला है जिसको सीता माता के नाम पर “सीता टीला ” कहते है. भौत ही किसम के पेड़ फल-फूल के बोटों से भरी जाग हुई ये. सब जगह भगवन शिब जो हुए वहां. उनको हमारे यहाँ ह्यागंगरी बोला जाता है.’ अब बर्फाल जी बोले जो इस बीच सिग्रेटे पी उसका ठुड्डा दूर फेंक चुके थे. ऐसे ही मानसरोवर को “मां -पांग छौ” कहते हैं तो छोटा कैलास को “मिदें गंगरी”और बड़ा कैलास को “गंगरी दी” बोला जाता है. सब की पूजा सब रीत निभा कर की जाती है. बढ़ानी पूजा इसीलिए होती है कि सब छोटे-बड़े एक हो कर रहें. ऐसे मौकों पर पर्व त्योहारों में,शादी-ब्याह में सब गांववाले,नाते रिश्तेदार,जान-पछान वाले साथ बैठ कर खाना कहते हैं रीत निभाते हैं. हमारे यहाँ बड़े सयाने कहते हैं पांडे जी कि – लन होम लन मो हम जिश्का मतलब हुआ कि अपने अकेले के निजी काम भले ही छोड़ दो पर कुनबा,राठ समाज के काम भूले से भी न छूटें.

अब दरच्यो की बात बताओ बबा. सरु बोली और खित्त से हंस दी. “रैss” कह बुरफल जी की पत्नी बोलीं- ये सरु तो बड़ी जानकार हो गई है,सब पता है इसे. गांव में खूब मन लगता है इसका. तो जो बुरी चीजों से बचाये,दर्दे से,दर्बुछै से वही हुआ दरच्यो . सब गांव वाले आपस में मिल कर दरच्यो को मनाते हैं. हर घर के आँगन में दरच्यो को लगाते हैं. सब खुश रहें. फलें फूलें. ये पेड़,नदी,परबत सबका भला करें.यही दरच्यो की आशीष हुई.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)

जारी…

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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