पहाड़ में छल-छिद्र, भूत-मसाण आये दिन लगे ही हुये. गाड़ गधेरे से चिपटने वाले छल-छिद्र तो घर के बुजुर्ग एक ही बभूत में निपटा देते थे. कई बुजुर्ग तो देश-परदेश से लौटे बच्चों के चेहरे देखकर ही बता देते थे किसका छल लगा है. इनसे बचने का पहला उपाय हुआ बभूत.
(Bhabhuti Mantra Uttarakhand Tradition)
बभूत या बभूति गाय का गोबर और लकड़ी-कोयले के जलने के बाद बनी शुद्ध रख को कहा जाता है. वैसे पुराने समय में इष्टदेव की धूनि की राख ही बभूत मंतरने में प्रयोग की जाती थी. अब तो लोग घर के मंदिर में अगरबत्ती के चूरे को ही मंतर रहे हैं. कुल मिलाकर बभूत मंतरने के लिये प्रयोग लाई जाने वाली राख शुद्ध स्थान की ही होनी चाहिये.
आज भी हर गांव में बभूत मंतरने वाले एक या दो आदमी मिल ही जाते हैं. अधिकांशतः देवताओं के डंगरिया ही बभूत मंतरते हैं. उनके बाद यह विद्या उनके बच्चों या परम स्नेही के पास ही जाती है. बाएं हाथ में राख रखकर, दाएं हाथ से उसे मंत्र के साथ मसलते हुये बभूत मंतरी जाती है. मंत्र पढ़ने के बाद बभूत, रोगी के सिर पर तीन या पांच बार घुमाकर बाहर की ओर हवा में उड़ा दी जाती है. और फिर रोगी के माथे में बभूत लगाकर चेहरे पर जोर से फूका जाता है. बभूत लगाने वाले के ताली बजाने के साथ छल-छिद्र छूमंतर हो जाता है.
(Bhabhuti Mantra Uttarakhand Tradition)
आस्था के सहारे चलने वाले हमारे समाज में यह किसी भी बीमारी का पहला ईलाज हुआ करता है. विज्ञान इसे अंधविश्वास कहकर भले इसपर कितने भी ठहाके लगा ले पर पहाड़ में रहने वाला एक आम आदमी जानता है विज्ञान से पहले विश्वास ही अक्सर उसके काम आता है, उसके लोक का विश्वास जो उसे पहाड़ के इस कठिन जीवन में उसका पहला साथी रहा है.
(Bhabhuti Mantra Uttarakhand Tradition)
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