उत्तराखण्ड में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पूरी तरह से खतरे में पड़ गई है. वैधानिक अधिकार न होने के बाद भी प्रदेश के उच्च शिक्षा राज्य मन्त्री विश्वविद्यालयों में सीधे हस्तक्षेप करते हुए कुलपति को निर्देशित कर रहे हैं.
10 जुलाई 2019 को उच्च शिक्षा राज्य मन्त्री ने हल्द्वानी में उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय की समीक्षा बैठक कर डाली. जिसमें उन्होंने विश्वविद्यालय में सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण शीघ्र लागू करने, विश्वविद्यालय में शैक्षिक कलैंडर का अनुपालन करने, उत्तर पुस्तिकाओं का केन्द्रीय मूल्यांकन करवाने, गढ़वाल क्षेत्र के लिए देहरादून परिसर से अध्ययन सामग्री बंटवाने, विश्वविद्यालय के 8 क्षेत्रीय कार्यालयों की समीक्षा कर उनका भौगोलिक आधार पर पुनर्गठन करने जैसे कई आदेश विश्वविद्यालय के कुलपति को दे डाले.
उच्च शिक्षा राज्य मन्त्री का इस तरह किसी विश्वविद्यालय की समीक्षा बैठक लेना चर्चा का विषय बन गया है. राज्य मन्त्री का इस तरह से बिना वैधानिक अधिकार के समीक्षा बैठक लेने को जानकार सीधे से प्रदेश के राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र की मानहानि के तौर पर देख रहे हैं. प्रदेश के राज्य मन्त्री ही नहीं, बल्कि मुख्यमन्त्री तक को बिना राज्यपाल की अनुमति के इस तरह से किसी भी विश्वविद्यालय की समीक्षा बैठक लेने का वैधानिक अधिकार नहीं है.
जिस तरह से देश व राज्य में निर्वाचन आयोग एक स्वायत्त संस्था होती है और केन्द्र व राज्य सरकारें निर्वाचन आयोग के कार्यों में सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं और न हीं उन्हें किसी तरह से निर्देशित कर सकती हैं. उसी तरह से किसी भी राज्य में विश्वविद्यालय एक स्वायत्त संस्था होती है. प्रदेश सरकार का उसमें सीधे कोई दखल नहीं होता है.
विश्वविद्यालय सीधे राज्यपाल के नियंत्रण में या कहें कि अधीन होते हैं. प्रदेश सरकार विश्वविद्यालयों को अपने स्तर से न तो कोई आदेश दे सकती है और न ही उसके कार्यों में कोई हस्तक्षेप कर सकती है. वह विश्वविद्यालयों के अधीन सरकारी कालेजों के बारे में कोई भी निर्णय लेने को स्वतंत्र है. सरकारी कालेज सीधे से राज्य के उच्च शिक्षा विभाग के अधीन होते हैं.
प्रदेश के विश्वविद्यालयों में कुलपति भी राज्यपाल के आदेश पर ही नियुक्त होते हैं. अगर किसी कारण से कोई कुलपति अपने पद पर बने नहीं रहना चाहते हैं तो वह अपना त्यागपत्र सीधे राज्यपाल को सम्बोधित करते हुए देते हैं, न कि राज्य के उच्च शिक्षा विभाग या उसके मन्त्री को. कुलपति प्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग के प्रति नहीं, बल्कि प्रदेश के राज्यपाल के प्रति उत्तरदायी होते हैं और वे विश्वविद्यालयों में राज्यपाल के प्रतिनिधि के तौर पर कार्य करते हैं. इस वैधानिक स्थिति के आधार पर भी देखें तो विश्वविद्यालयों के कुलपति प्रोटोकॉल के आधार पर मन्त्रियों से ऊपर होते हैं.
ऐसे में उच्च शिक्षा मन्त्रालय के राज्य मन्त्री तो क्या मन्त्री तक कुलपति को सीधे निर्देशित व उन्हें बैठक के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं. यह इसलिए भी नहीं किया जा सकता है कि कुलपति का पद मन्त्री स्तर से ऊपर का है और कोई भी निम्न पद वाला अपने से उच्च पद वाले को कैसे निर्देश दे सकता है? यह तो कुछ ऐसी ही बात हो गई जैसे कि किसी जिले का जिलाधिकारी अपने उच्च अधिकारी कमिश्नर को कहे कि वह उनके कहे अनुसार काम करेंगे और अपने हर कार्य की रिपोर्ट उन्हें देंगे.
पर यह उत्तराखण्ड हैं, यहां इस तरह के गैर वैधानिक कारनामे आए दिन होते रहते हैं. उच्च शिक्षा राज्य मन्त्री द्वारा मुक्त विश्वविद्यालय की समीक्षा बैठक के बारे में कुमाऊं विश्वविद्यालय की सीनेट के वरिष्ठ सदस्य हुकम सिंह कुंवर कहते हैं
राज्य मन्त्री धन सिंह रावत को इस तरह ही हरकतें करने की बजाय राज्य के सरकारी महाविद्यालयों की दुर्दशा पर ध्यान देना चाहिए, न कि राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में जबरन हस्तक्षेप करना चाहिए. यह विश्वविद्यालय की स्वायत्तता के साथ खिलवाड़ करने के अलावा राज्यपाल पद की गरिमा को ठेस पहुँचाना भी है.
इसके अलावा उच्च शिक्षा राज्य मन्त्री का समीक्षा बैठक लेना विश्वविद्यालय की कार्य परिषद का न केवल अपमान है, बल्कि उसकी पूरी तरह से अनदेखी करना भी है. हर विश्वविद्यालय की एक कार्य परिषद होती है. बिना कार्य परिषद की बैठक और उसमें अनुमोदन के बिना विश्वविद्यालय के कुलपति किसी भी तरह का सैद्धान्तिक व नीतिगत निर्णय नहीं कर सकते हैं. यहां तक कि विश्वविद्यालयों में अस्थाई व स्थाई नियुक्तियां भी कार्य परिषद के अनुमोदन के बाद ही होती हैं. राज्य मन्त्री के इस करह के हस्तक्षेप के बाद भी मुक्त विश्वविद्यालय के कार्य परिषद के सदस्यों की चुप्पी भी कई सवाल खड़े कर रही है. कुमाऊं विश्वविद्यालय की कार्य परिषद के सदस्य एडवोकेट कैलाश चन्द्र जोशी भी मानते हैं
“यह सत्ता द्वारा विश्वविद्यालय की गरिमा को ताक पर रखना है. विश्वविद्यालय किसी के निर्देश से नहीं, अपितु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ( यूजीसी ) के नियमों के आधार पर चलते हैं. इस मामले में राज्यपाल को स्वयं संज्ञान लेकर राज्य मन्त्री के खिलाफ कार्यवाही करनी चाहिए.”
उच्च शिक्षा राज्य मन्त्री के इस तरह के आचरण पर प्रदेश में विपक्षी की शर्मनाक चुप्पी भी सवालों के घेरे में है. विपक्ष का काम ही इस तरह के मामलों में सरकार को कठघरे में खड़ा कर के उस पर लगाम लगाना होता है. पर उसकी ओर से इस बारे में सवाल तक नहीं किया जा रहा है.
जगमोहन रौतेला
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जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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चलो कहीं किसी कोने में कुछ फुसफुस हुई। बधाई।