समाज

असौज का नाम आते ही पहाड़ में बुतकार लोगों की बाजुएं फड़कने लगती हैं

असौज का नाम आते ही पहाड़ में बुतकार लोगों की बाजुएं फड़कने लगती हैं और कामचोरों की सास मर जाती है. पहाड़ में कृषि का कार्य मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता है इसलिए सबसे ज्यादा आफत महिलाओं की ही हुई.
(Asauj Cropping in Uttarakhand)

कुछ अजीब सा महीना होता है असौज चूंकि भादो का महीना सबसे ज्यादा सड़ी गर्मी का होता है. पहाड़ में जेठ के महिने ऐसी गरमी नहीं पड़ती जैसी भादो में पड़ती है. कहते हैं कि भादो में गैंडे की खाल भी सूख जाती है. अब असौज का महीना भादो का पड़ोसी महीना हुआ तो भादो की गरमी का पूरा असर असौज में भी नजर आता है.

इस महिने में धान की फसल पककर तैयार हो जाती है और फसल की मणाई का काम मुख्यत: होता है इसलिए महिलाएं धान काटने सुबह ही पहुंच जाती हैं. धान काटकर बड़ी सावधानी से उसके मुठ्ठे जमीन में रखते हुए आगे बढते जाना होता है फिर उन मुठ्ठों को इकठ्ठा कर पूवे या पूले बनाये जाते हैं. इन पूलों को खेत के बीच में रखते हैं जहां बाली वाले भाग को बीच में रखकर एक पूले के बराबर में सिरा जोड़कर एक गोलाकार आकृति बनाते जाते हैं. जैसे-जैसे यह गोलाकार आकृति उंचाई प्राप्त करती जाती है एक गुम्बदनुमा चीज बन जाती है जिसे धान का कुन्यूण कहते हैं. इसको बनाने के लिए एक चीज का ध्यान रखना होता है कि यदि बारिश आ जाय तो कुन्यूण को पानी न लगे और धान खराब न हो.

पहाड़ के किसानों के लिए बड़ी मुसीबत है इस मौसम में अचानक बारिश से लेकर ओलावृष्टि तक हो जाया करती है. सो धान काटने के लिए प्रकृति से सामंजस्य बैठाना पहाड़ की गुणी महिलाएं जानती हैं. जैसे देखा कि मौसम खराब हो रहा है या डाव (ओले) पड़ने के लक्षण लग रहे हैं तो फटाफट जाकर फसल काटने की तैयारी. अगर बारिश की झड़ी का अनुमान हो तो धान ऐसा वक्त देखकर काटे जाये कि ज्यादा दिन कुन्यूण में रखने पर धान खराब न हो. कुन्यूण के ऊपर गाज्यो या घास काटकर उसे ढककर बारिश से बचाने का प्रयास भी बोता है.

अब आती है धान माणने की बारी. देख लिया जाता है कि धान कितने पके थे. अगर अच्छी तरह तैयार हो तो तीसरे दिन माण लिये जाते हैं नहीं तो चार-पांच-छ: दिन में. सुबह सरग की ओर देखकर महिलाएं और परिवार के लोग खेत में पहुंच जाते हैं ताकि कम धूप में काम निपट जाये और उस्योई तक घर वापसी हो सके. वैसे तो धान माणने के दो तरीके हैं. दूसरे तरीके को चूटना बोलते हैं, पहला तरीका माणना परम्परागत है.

इसके लिए घर से एक बड़ा सा रिंगाल (निगाव) का मोस्ट, एक सूप, दो तीन पुरानी धोतियां या चादर एक झाड़ने के लिए दानेदार खुरदरा डन्डा जो अक्सर घिंगारू का बना होता है फटयाव लगाने के लिए मजबूत मोटी चादर, पानी पीने के लिए तौली जरूरी सामान ले जाते थे. किसी के घर से चाय लाने वाला हो तो ठीक नहीं तो चाय की जुगुत हो ही जाती. और हां हरी ककड़ी और हरी खुश्याणी धनिये का नमक ये चीजें काम करने वालों को नई उर्जा देते थे.
(Asauj Cropping in Uttarakhand)

अब मोस्ट बिछाकर धान के पूले को सावधानी से लाकर पैरों से माणना होता था और इसे वही कर सकते हैं जो पहाड़ में रहकर नंगे पांव या चप्पल पहनते हों ताकि उनके पैर मजबूत हों नहीं तो कोमल पैरों से तो खुन्योई होते देर नहीं लगेगी. पैरों से धान माणने का काम खड़े-खड़े होता है. पैर से माणे धान के पौधों को एक महिला डन्डे से छिटकाकर, बचे-खुचे बीज निकाल लेती हैं. एक आदमी उस बची पुराली को सुखाने के लिए पूरे खेत में बिछा देता है जिसे फिचावण कहते हैं. यही पुराली सुखाकर बाद में सुयांठ में या भारी लगाकर पीठ में या महिलाएं गढव बनाकर घर लाती है जिसको चीड़ के एक पतले खम्बे जिसे लुट्यास कहते हैं, में विशेष रूप से पिरोकर एक लम्बी गुम्बदाकार आकृति का लूटा बनाया जाता है. यह ह्यून में जानवरों के चारे के काम आता है. ऐसे ही खेत के इचाव कनाव से घास (गाज्यो) काटकर सुखाकर उसका भी लूटा लगाकर रख लिया जाता है.

धान माणने के बाद चादर को मोड़कर दो आदमी हवा करते हैं, जिसे फट्याव लगाना कहते हैं. एक आदमी या महिला सूप से उपर करके धान गिराती है जिसे धान बतूंण कहते हैं. इससे धान का बूस (भूसा) अलग हो जाता है फिर सूप से छटकाकर साफ धान घर लाये जाते हैं.

धान माणने का एक तरीका और है- धोती-चादरों से टेन्ट जैसा लगाकर. इसे तडियो कहते थे. बीच में एक पाथर रखकर धान के पूले चूटते हैं पर इसमें धान छिटककर दूर भी चले जाते थे. पहाड़ के किसानों के लिए तो अन्न का एक-एक दाना अपने पसीने से सीचकर उगाया होता था तो यह विधि तभी करते थे जब बड़ा खेत हो या धान ज्यादा हों और माणने वाले कम.

घर लाकर अगले दिन से उन्हें मोस्ट में सुखाया जाता है जिसे बिसकूण कहते हैं. अच्छी तरह सूखने पर भकार (लकड़ी का दीवान बैडनुमा बक्सा) में डाल दिये जाते हैं. भकार की विशेषता ये भी है कि इस बक्से को बनाने में कील नहीं ठोकते. लकड़ी के तख्ते खांचे में फिट कर बनाते हैं यह खुलकर फोल्ड भी किया जा सकता है.

असौज में एक कहावत है कि बारिश आदमी को बुतकार बना देती है. अगर आदमी गाज्यो काटने या धान माणने या किसी काम से गया है और आंगण में बिसकूण सूख रहा हो व बारिश के आसार बन गये तो आदमी की स्पीड बढ जाऐगी. कई बार भाजा-भाज पड़ जाती है कि बिसकूण न भीग जाये .

ऐसा ही खेत के गाज्यो पराव के साथ भी है. बारिश से पहले समेरना होता है. किसी के गोरू बाछा आकर खराब न कर दें. असौज में बहुत झंझट हैं सराद भी इन दिनों ही हुए.

चौमास का भूड धरती के अन्दर से गरमी की भमस और स्याप कीड़ों का बराबर डर. धान के साथ मडुवा, गहत, मांस आदि की फसल भी समेटनी हुई. ये चीजें तो घर लाकर ही चूटते हैं. मडुवे को जरा स्योताकर मूगर से चूटते हैं. गहत, भट, मांस को एक लम्बे डन्डे से जो आगे से टेडा हो जिसे स्वैल कहते हैं, से चूटते हैं. हर अनाज के अलग बिसकूण बनाकर सुखाना, अलग बोरों-कट्टों-थैलों में रखना उन्हें रोज अन्दर बाहर लाना ले जाना होता है. असौज में लगभग हर पहाड़ी घर के अन्दर आपको कुटुर-फांच-पुन्तुरि नजर आऐगे. भीतर तिल धरने की जगह नहीं होती थी. सब अपने काम में मस्त. फसक-फराव की भी फुरसत नहीं. इसी मौसम में अखरोट, पांगर वगैरह भी तोड़ने सुखाने होते हैं. ककड़ी की बड़ियां बनाना भी इसके बाद होता है. आजकल की कुछ सब्जियों जैसे पिनालू के नौल आदि सुखाये जाते हैं. असल में असौज में जिसने जितना समाव कर लिया पूरे साल उतना सुखी रहेगा. पहाड़ की कृषि आधारित व्यवस्था की रीढ है यह महीना.
(Asauj Cropping in Uttarakhand)

फसल समेटने के बाद नाज-पानी पहले अपने देवी देवताओं के लिए रखा जाता है. पहले जमाने में फसल से कुछ भाग बचाकर अलग रख दिया जाता था जिसे कितनी भी कमी हो खाते नहीं थे. यह विशेष अवसरों पर पौंण-पच्छी (मेहमान) आने पर निकालते थे. फसल कम हुई अपना खाने को न हो तो कुछ भी रूखा-सूखा खाकर गुजारा करते थे.

कुछ साफ अनाज कनस्तरों आदि में अगले साल बीज के लिए भी रख लिया जाता था. पहाड़ में असौज के महिने का असौज लगा है न कहकर कहते हैं- असौज चमक रौ पर इतना सब होने के बाद भी पहाड़ी तो पहाड़ी ही हुए इसमें भी अपना सुख ढूंढ ही लेते थे.

सभी लोग खेतों में ही हुए तो खेतों में मेला सा रहता. कोई धान काट रहा है, कोई माण रहा है, किसी की गाज्यो कटाई, कोई पराव के पूले या गढव बांध रहा है, कोई सुयाठ तैयार कर घर पराव या गाज्ये सार रहा है, किसी की चाय आ गयी तो पड़ोसी खेत में धात लग गयी- आ जरा चहा पीओ या एक काकड़क चिर खै जा..
(Asauj Cropping in Uttarakhand)

अपना पानी खत्म हो गया तो पड़ोसी के खेत पहुंच गये पानी लाने. कोई धान काटकर खाली हाथ जा रहा हो तो पड़ोसी का पराव ही उसके घर पहुंचा दिया. एक तरह से लोगों का घर आंगन उसके खेत हो जाते थे. एक ने काम निबटा लिया तो दूसरे को धात लगती- दै हैगोई आब हिटो घर चिलकौई घाम लागि गो, आब बाकि भोव करिया. जवाब आता- आब थ्वाडै रैगो पुरयैबेरै उल. तुम घर में बिसकूण चै दिया..

बस इन्हीं बातों के सहारे असौज कट जाया करता था.

विनोद पन्त

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वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

इसे भी पढ़ें: फसल का पहला भोग इष्टदेव को लगाने की परम्परा: नैंनांग

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