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लोक तंतर में पुलिस मंतर

मैं अमरीक्का में हूँ जहाँ आजकल अपने मुलुक जैसे जम्हूरियत की दुम सीधी करने वाले काम हो रहे हैं. अब ये पता नहीं मैं यहाँ आया हूँ या लाया गया हूँ! मुझे लगता है मुझे तो अमरीकी लोकतंत्र ने बुलाया है. जो भी हो, 6 जनवरी को राष्ट्रपति बाइडेन की जीत का अमरीकी काँग्रेस में प्रमाणीकरण का दिन था. हार मानने से इंकार कर रहे ट्रम्प ने उपराष्ट्रपति पेंस को पटाने की बड़ी कोशिश करी कि ‘यार जब लिफ़ाफ़ा खोलियो तो बोल दियो कि ट्रम्प साब जीत गए.’ एल बी डब्ल्यू में बेमानटी की गुंजाइश हो सके पर क्लीन बोल्ड हो गए राष्ट्रपति को नॉट आउट कोई कैसे दे दे? बस खुन्नस में आ गए ट्रम्प, अपने समर्थकों से संसद पर धावा बुलवा दिया. भीड़ और पुलिस को देखकर ल मुझे तो यार अपने ‘छात्र एकता ज़िंदाबाद’ वाले दिन याद आ गए. नैनीताल-हल्द्वानी में होता तो किसी क्लासफेल्लो से चकल्लस में मुब्तिला हो जाता. (American Election Satire by Umesh Tewari)

कैपिटल हिल प्रांगण में तैनात पुलिस वाले बेशक गहन प्रशिक्षित होंगे, उनके डंडे भी उन्नत क़िस्म के होंगे पर ट्रम्प के भारी-भरकम गणों को काबू करने में उन्होंने अपने कौशल के दर्शन तो कराये नहीं. ऐसा लगा जैसे फुलवारी से भंवरे उड़ा रहे हों. इनसे धाकड़ तो स्कूल के चिंतामणि चौकीदार जी थे, 5 मिनट के अंदर कैपिटल सनीमा में इंग्लिश पिच्चर की हीरोइन को आँखों में बसा रहे लौंडों को पी डी पंत सर के हुजूर में पेश कर दें. 

यहाँ की पुलिस के साथ अपने अनुभव बांटने की विकट इच्छा हुई, पर दिल की दिल में रह गई, बात न होने पाई. मैं उनको बताना चाहता था कि अपने वहाँ कैसे डंडे की लंगड़ी लगा, मात्र एक धक्के से बग़ैर सीटों वाली पुलिस वैन के अंदर ठेला जाता है. बंदे को पता भी न चले वह कब 3-4 फुट ऊँची लोहे की सीढ़ियों के ऊपर से तैरता फुटबाल की तरियों गोल पोस्ट के भीतर पहुँच गया. मतबल ये कि जहाँ तक हमारी पुलिस की ट्रेनिंग का सवाल है उन्हें मात्र डंडे की लंगड़ी और धक्का मारने की तकनीक में रवां होने की ज़रूरत होती है. हाँ, फील्ड में उतरते वक़्त उनका शरीर अंतरिक्ष यात्रियों जैसी पोशाक से ढक दिया जाता है जिससे वो थोड़े डरावने दीखने लगते हैं, ख़ासकर पहाड़ के छात्रों को. वैसे छात्रों से हमारी पुलिस का प्रेम संबंध अखिल भारतीय है. जे एन यू, बी एच यू या जामिया के छात्रों से पूछ कर देख लें. (American Election Satire by Umesh Tewari)

अपने उत्तर छात्र काल में भी जो पुलिसिया लाघव देखा है उसमें उत्तराखंड के दो-एक एनकाउंटर छोड़ दूं तो दिल्ली पुलिस का प्रदर्शन अविस्मरणीय है. वो डंडे से काम कम ही लेती है. पहले अंग्रेज़ों के ज़माने की 144 पेल कर सीटों वाली गाड़ी में बिठाती है और थाने ले जाकर नई देशभक्ति वाली धारा लगा देती है. उनके मुक़ाबले अमरीका के पुलिस वाले अपने होमगार्ड के जवानों जैसी धक्का-मुक्की करते लगे. ट्रम्प साब के समर्थक ‘आज दो अभी दो’, ‘जो हमसे टकरायेगा’ जैसी आक्रामकता दर्शाते हुए दनदना रहे थे और पुलिस वाले ‘रुक जाओ … मैं कहता हूँ रुक जाओ’ टाइप फ़िल्मी डायलॉग वाली मानसिकता में नज़र आ रहे थे.

अनुभव तो ट्रम्प साब से भी बांटना था, जिन्ने  पेंसिल्वेनिया एवेन्यू पर अपना ‘जनवासा’ बनवाया था. बारातियों से बोले तुम कैपिटल हिल पहुँच कर तब तक चाय-पानी करो, मैं पुरोहित जुलियानी के साथ पीछे-पीछे आ रहा हूँ पर सटक लिए वाइट हाउस को. बिना दूल्हे की बारात कैपिटल हिल पर चढ़ गई. वहाँ टेंट हाउस वाली राजगद्दी भी नहीं थी कि वो ट्रम्प साब को बिठाने को हथिया लेते. कुर्सी थी तो पहले से ही खार खाये बैठी स्पीकर नैंसी मैडम की. झगड़ा तो होना ही था. टूट-फूट हुई, कुछ जानें गईं और कोर्ट-कचहरी वाला मामला बन गया. हमारे पुलिस वाले होते तो वहीं बाहर ही हिसाब कर देते. ख़ैर, ये कमी तो नेताओं की रही, हमारे वाले होते … तो कहते ‘देश के गद्दारों को, आँख मारो सालों को.’ इससे ये पता नहीं चलता कि गद्दार कौन हैं और अपने सालों को आँख मारने में कैसा अपराध! काम भी हो जाता और कोर्ट भी बेवकूफ बन जाती. दिल्ली फ़ोन करके ही पूछ लिया होता! (American Election Satire by Umesh Tewari)

ख़ैर, यहाँ अपना एक भाई भारत का झंडा उठाये दिखाई पड़ा. मैंने पूछ लिया “हेलो ! फ्रॉम इंडिया? आई एम आल्सो फ्रॉम इंडिया.” उसने मुझे झाड़ दिया “तो अंग्रेज़ी क्यों बोलता है? यहाँ से निकल ले, यहाँ पुलिस वाले काले को देखकर सांड जैसा भड़क जाते.” मुझे भी ग़ुस्सा आ गया “बेटा तू कौन सा गोरा है और ऊपर से हमारे देश का झंडा लेकर बलवाइयों के साथ चल रहा है. मोदी जी का नाम ख़राब कर रहा है.” मेरी बात का उसपर जादुई असर हुआ “नाराज़ क्यों होता है, भक्त-भक्त, ब्रदर-ब्रदर. बहुत सारा झंड़ा देखकर मेरे को लगा हमारा इंडिया पीछे नहीं रहना, इसलिए मैं रिस्क ले लिया.” तभी गोरों का रेला उसे धकियाता हुआ आगे बढ़ गया. मैं उसको झंडे और डंडे के बेहतर उपयोग पर कुछ राय देना चाहता था पर दूसरे सुझावों की तरह ये भी हलक में ही रह गया. आजकल अच्छी सलाह भी अंदर ही रैना चाहे. (American Election Satire by Umesh Tewari)

उमेश तिवारी ‘विश्वास

लेखक की यह कहानी भी पढ़ें: टीवी है ज़रूरी: उमेश तिवारी ‘विश्वास’ का व्यंग्य

हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ उमेश तिवारी ‘विश्वास’ स्वतंत्र पत्रकार, रंगकर्मी और व्यंगकार हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है. उमेश तिवारी ‘विश्वास काफल ट्री के लिए कॉलम लिखते हैं

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  • wahh!! heading bahut sunder hai ......लोक तंतर में पुलिस मंतर :-)

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