भेली धरना या भेलिधरण कुमाऊँ के वैवाहिक अनुष्ठानों में सगाई की एक रस्म की तरह ही है. इसका शाब्दिक अर्थ है भेली (गुड़ की पिंडी रखना,) उत्तराखण्ड में गुड़ की एक विशेष तरह की पिंडी को गुड़ की भेली कहा जाता है.
पुरानी परंपरा के अनुसार कन्या पक्ष के साथ मौखिक रूप से शादी की बात पक्की हो जाने के बाद इसे मंगनी के रूप में पक्का कर लेने के लिए वर के घर वाले शुभ दिन तय करके कुछ ईष्ट-मित्रों के साथ कन्या के घर पहुँचते हैं. वे अपने साथ गुड़ की एक भेली, कठिया (लकड़ी का बर्तन) में दही और कुछ ताजा, हरी साग-सब्जी लेकर कन्या के घर जाते हैं.
कन्या पक्ष व कन्या के घर में मौजूद मेहमानों की उपस्थिति में कन्या को पिठ्याँ (रोली का टीका) लगाया जाता है. इसके बाद गुड़ की भेली तोड़ी जाती है, इसे वाहन मौजूद सभी लोगों को शगुन के तौर पर बाँट दिया जाता है.
गैर पहाड़ी सांस्कृतिक प्रभावों के चलते अब इस मौके पर सगाई-मंगनी जैसे कई अन्य अनुष्ठान भी किये जाने लगे हैं. लेकिन भेलिधरण की रस्म आज भी निभाई जाती है.
विवाह पक्का होने पर की जाने वाली इस रस्म का ही रूप हिमाचल प्रदेश के कनैतों व गदियों में भी देखने को मिलता है. गादी बोली में इसे गुड़ भुनणा (गुड़ तोड़ना) कहा जाता है.
कुल्लू के कई इलाकों में भी वैवाहिक सम्बन्धों का शुभारम्भ गुड़ के वितरण से ही किया जाता है. यहाँ विवाह पक्का हो जाने के बाद वर पक्ष द्वारा वधू के घर लाल कपड़े में बंधकर गुड़ की भेली भिजवाई जाती है. लड़की वालों द्वारा इसे तोड़कर बाँट देने पर विवाह पक्का समझा जाता है.
इसी तरह की परंपरा नीति माणा के रंग्पा समाज में भी पायी जाती है. यहाँ वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित हो जाने पर कन्या के घर एक गुड़ की भेली, पांच हल्दी के गांठें, लड़की के लिए चांदी की अंगूठी, जाड़ (एक तरह की शराब) और लड़की के लिए शगुन के तौर पर कुछ रुपये भिजवाये जाते हैं. लड़की को अंगूठी पहनाने के बाद मौजूद लोगों के बीच भेली तोड़कर गुड़ बांटा जाता है. अखंडता के प्रतीक के रूप में छ्योत के बाद जाड़ पी जाती है.
(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी. डी. शर्मा के आधार पर)
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