Featured

जानिये उत्तराखंड के घरों से लुप्त होते लकड़ी के बर्तनों के बारे में

पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड में लकड़ी के बर्तनों का उपयोग लगभग बंद हो गया है. कभी दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाले लकड़ी के इन बर्तनों के नाम तक आज की पीढ़ी नहीं जानती होगी.

लकड़ी के बने इन बर्तनों का प्रयोग अधिकांशतः दूध और उससे बनने वाली वस्तुओं को रखने के लिये किया जाता था. जिसका कारण लम्बे समय तक वस्तु का अपनी गुणवत्ता बनाये रखना है. लकड़ी के इन बर्तनों को बनाने के लिये मुख्य रूप से ऐसी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है जो वर्षों पानी में रहने के बाद भी नहीं सड़ती हैं.

सानन और गेठी नाम के वृक्षों की लकड़ी इसके लिये सबसे उपयुक्त मानी गयी है. इन बर्तनों में अधिकांश को जलशक्ति वाले गाड़-गधेरों में खराद मशीन द्वारा बनाया जाता है. इस तरह की मशीनें गाड़-गधेरों के अतिरिक्त भाबर में नदी किनारे भी लगती हैं. पीढ़ियों से बर्तन बनाने की इस विरासत को उत्तराखंड के चुनार जाति के दस्तकारों के विषय में यहां पढ़िए आख़िरी साँसें गिन रहा है पहाड़ का काष्ठशिल्प

गहराई और उपयोग के आधार पर इन्हें अलग-अलग नाम दिये गए हैं. कटोरे के जैसे चौड़े मुख और कम गहराई वाले लकड़ी के बर्तन को कठ्यूड़ी कहा जाता है. कठ्यूड़ी का उपयोग मक्खन, चटनी आदि रखने में किया जाता है.

कठ्यूड़ी के जैसा ही देखने वाला एक और बर्तन होता है पाल्ली. पाल्ली, कठ्यूड़ी से अधिक गहरा होता है. इसमें तीन चार लीटर से सात आठ लीटर तक दूध या अन्य पदार्थ भरा जा सकता है.

हड्प्या, समतल आधार और बाहर की ओर उभरी दीवारों वाले कम ऊंचाई के लकड़ी के बर्तन हैं. इसी आकार में जिनकी ऊंचाई अधिक होती है उसे ठेकी कहते हैं. ठेकी में दही जामाया जाता है उसमें दही मथकर छांछ भी बनायी जाती है. हड्प्या घी रखने के लिये प्रयोग में लाया जाता है.

घड़े के समान संकरी गरदन वाले डेढ़ दो लीटर धारिता वाले बर्तन पारी कहलाते हैं. वहीं तीनचार लीटर धारिता वाला पारा और इससे अधिक धारिता वाला बर्तन बिंडा कहलाता है. पारा और बिंडा सामान्य रूप से बिना ढक्कन वाले ही बनते हैं. इनका प्रयोग भी दूध दही इत्यादि रखने के लिये किया जाता है. बिंडा मुख्य रूप से दही मथकर छांछ बनाने में प्रयोग किया जाता है.

पारी के आकार के ढक्कनदार बर्तन को चाड़ी और कुमली नाम से जाना जाता है. इनका प्रयोग दूध और दही के उत्पादों के इधर-उधर ले जाने के लिये किया जाता है.

नाली और माना अनाज के लेन-देन के लिये बनाये गए लकड़ी के बर्तन हैं. पशुओं को पानी पिलाने के लिये दूना बनाया गया है. इसकी धारिता आठ से दस लीटर तक होती है. लकड़ी से बने इन बर्तनों में दूना और पाल्ली ही ऐसे हैं जिन्हें बासुले से छिल कर बनाया जाता है.

-काफल ट्री डेस्क

संदर्भ ग्रन्थ : पुरवासी, 2012 में सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य पद्मादत्त पन्त द्वारा लिखा लेख कुमाउंनी धात्वेतर परम्परागत बर्तन.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

यम और नचिकेता की कथा

https://www.youtube.com/embed/sGts_iy4Pqk Mindfit GROWTH ये कहानी है कठोपनिषद की ! इसके अनुसार ऋषि वाज्श्र्वा, जो कि…

17 hours ago

अप्रैल 2024 की चोपता-तुंगनाथ यात्रा के संस्मरण

-कमल कुमार जोशी समुद्र-सतह से 12,073 फुट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ को संसार में…

20 hours ago

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

5 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

1 week ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago