का प्रमुख पात्र 11 साल का हरी अजीज़ अपनी ‘हिन्दू’ मां पार्वती से कहता है कि उसे अपने पिता इमरान अजीज़ के लिए डर लगता है, क्योंकि उसके पिता ‘मुस्लिम’ हैं. पार्वती अपने बेटे से कहती है कि तुम तो जानते हो कि तुम्हारे पापा धर्म को नहीं मानते. इस पर बेटे का जवाब न सिर्फ मां को बल्कि दर्शकों को भी हैरान कर देता है. वह कहता है— ‘लेकिन ये बात उन्हें नहीं मालूम.’ नंदिता दास की फ़िल्म ‘मंटो’ में भी ऐसा ही एक दृश्य है. मंटो के दोस्त श्याम के ये कहने पर कि तुम तो शराब पीते हो, नमाज़ नहीं पढ़ते, तुम कहां के मुसलमान हुए. इस पर मंटो का जवाब हिला कर रख देता है. मंटो कहते हैं— इतना मुसलमान तो हूँ ही कि दंगे में मारा जा सकूं. (A Billion Colour Story)
हमने ये कैसा भारत बना डाला, जहाँ एक 11 साल का बेटा अपने बाप के दंगे में मारे जाने की संभावना से भयभीत है. फ़िल्म में बेटे हरी अजीज़ के इसी भय से यह सवाल पैदा हुआ कि क्या हमने अपनी सारी कविताएं खो दी हैं.
हरी अजीज़ के ‘मुस्लिम’ पिता और ‘हिन्दू’ मां एक आदर्शवादी दंपति हैं जो एक ऐसी फिल्म बना रहे हैं जिसमे टाइम मशीन से पीछे जाकर प्रेम के माध्यम से भारत-पाकिस्तान विभाजन को रोक दिया गया है. इसमें यह संकेत साफ है कि आज की बहुत सी समस्याओं की जड़ विभाजन में ही हैं. आज के नफ़रत भरे माहौल में ऐसी फिल्म बनाने के रास्ते में आने वाली दुश्वारियां और उनके खुद के जीवन मे इस ‘नए असहिष्णु भारत’ के कारण आने वाली मुसीबतों को एक 11 साल के बच्चे की नज़र से देखने का प्रयास किया गया है.
फ़िल्म का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ है. चूंकि यहाँ तक फ़िल्म बच्चे की नज़र से है और बच्चे रंगों में अर्थ नही तलाशते. रंगों से (और कपड़ों से) किसी को नही पहचानते. शायद इसीलिए यहां तक फ़िल्म ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ है. और उसके बाद रंगीन हो जाती है. इसकी दूसरी व्याख्या यह भी हो सकती है कि एक दुर्घटना से कुछ पहले ही हरी अजीज़ के पिता इमरान अजीज़ का आदर्शवाद लगातार हो रही घटनाओं से चकनाचूर हो जाता है. वे फ़िल्म बनाने का प्लान कैंसिल करके ‘नार्मल’ जीवन में जाने की योजना बना लेते हैं.
लेकिन हरी अजीज़ ने मानो पिता के आदर्शवाद को फिर से जगा दिया. इसी आशा को दर्शाने के लिए अंत में कलर का इस्तेमाल किया गया.
बहुत पहले एक फ्रेंच उपन्यास पढ़ा था— तेराज रॉक. उसका दर्शन ही यह था कि यदि हम नफरत के आधार पर बंटवारा करते हैं तो यह वहीं नहीं रुकता. यह परमाणु चेन रिएक्शन की तरह लगातार अन्य विभाजनों को भी जन्म देता है. फ़िल्म का एक पात्र इसे यूं बयां करता है- ‘यहाँ सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई नहीं है, बाकी हर व्यक्ति की हर व्यक्ति से लड़ाई है. गुजराती की मराठी से, मराठी की उत्तर भारत से, शादीशुदा की लिव-इन वालों से आदि आदि.
‘ए बिलियन कलर स्टोरी’ फ़िल्म का संदेश साफ है — क्या प्रकृति में मौजूद अनगिनत रंगों को महज चंद धार्मिक रंगों में रिड्यूस किया जा सकता है? बाकी रंगों के लिए क्या इस ‘नए भारत’ मे कोई जगह होगी? क्या इस ‘नए भारत’ की बगिया में अब एक ही रंग के फूल होंगे. क्या इस ‘नए भारत’ में कविताओं के लिए कोई जगह होगी? क्या इस ‘नए भारत’ मे हरी अजीज़ के पिता इमरान अजीज़ के आदर्शवाद के लिए कोई जगह होगी? क्या इस ‘नए भारत’ में इंसान के लिए कोई जगह होगी? क्या इस ‘नए भारत’ में हरी अजीज़ और उसके सपनों के लिए कोई जगह होगी? उसके मासूम सवालों के लिए कोई जगह होगी?
वास्तव में ये सारे सवाल ‘नए भारत’ के भ्रूण में पल रहे उस बच्चे के सवाल हैं जो गर्भ से बाहर तभी आएगा जब उसे इन सवालों का संतोषजनक जवाब मिलेगा. बच्चे की किलकारी का आनंद लेना है तो हमें इन सवालों के जवाब जल्द से जल्द तलाशने होंगे.
(यह फ़िल्म फिलहाल ‘हॉटस्टार’ पर मौजूद है.)
उत्तराखण्ड की लक्ष्मी रावत बनीं ‘श्रीराम सेंटर फॉर परफार्मिंग आर्ट’ की वर्कशाप डायरेक्टर
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