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अन्तोन चेख़व की कहानी : वान्का

नौ वर्ष का वान्का झूकोव, जिसे तीन महीने पहले अल्याखिन मोची के यहाँ काम सीखने भेजा गया था, बड़े दिन से पहले वाली रात को सोने नहीं गया. वह इन्तजार करता रहा और जब उसका मालिक और मालकिन तथा वहाँ काम करने वाले दूसरे लोग गिरजाघर चले गये, तब उसने मालिक की अलमारी से दावात और कलम निकाली, जिसकी निब में जंग लग गया था; उसने एक मुड़ा-मुड़ाया कागज का ताव निकाला, उसे फैला कर रखा और लिखने बैठ गया. पहला अक्षर बनाने के पहले उसने कई बार खिड़की और दरवाजे की तरफ सहमी आँखों से ताका, गहरे रंग के देवचित्र की ओर निहारा, जिसके दोनों ओर दूर तक जूतों के फर्मों से भरी शेल्फें थीं और काँपते हुए गहरी उसाँस ली. कागज बेंच पर फैला हुआ था और वान्का बेंच के पास फर्श पर घुटनों के बल खड़ा था. (Vanka Anton Pavlovich Chekhov)

उसने लिखा, “प्यारे बाबा कोन्स्तान्तीन मकारिच! तो मैं तुम्हें चिट्ठी लिख रहा हूँ. मैं तुम्हें बड़े दिन का सलाम भेजता हूँ और आशा करता हूँ कि ईश्वर तुम्हें सुखी रखेगा. मेरे बापू और मेरी अम्मा नहीं हैं और मेरे लिए बस तुम ही बाकी हो.”

वान्का ने सिर उठा कर खिड़की के अँधेरे शीशे की तरफ ताका, जिस पर जलती मोमबत्ती की परछाई झिलमिला रही थी; कल्पना में उसने अपने बाबा कोन्स्तान्तीन मकारिच को साफ देखा, जो झिवारियोव नामक किसी धनी आदमी का रात्रि चौकीदार था. वह दुबला-पतला, छोटा-सा, पैंसठ साल का बूढ़ा था, पर बहुत चुस्त और फुर्तीला, उसके चेहरे पर सदा मुस्कान छायी रहती और उसकी आँखें शराब के नशे से चुन्धियायी रहतीं. दिन में वह या तो नौकरों के रसोईघर में सोया करता या बैठा-बैठा रसोईदारिनों से मखौल किया करता, रात में वह भेड़ की खाल का बना लबादा ओढ़े, लाठी खटखटाते हुए हवेली के चारों ओर चक्कर काटा करता. उसके पीछे-पीछे उसकी बूढी कुतिया कश्तान्का व एक दूसरा कुत्ता, जो काले बालों और नेवले जैसे लम्बे शरीर की वजह से व्यून कहलाता था, सिर झुकाये चला करते. व्यून के ढंग से लगता कि उसमें आदर करने और हर एक से परिचय प्राप्त करने की विलक्षण प्रतिभा है, वह जान-पहचान वाले और अजनबी हर एक की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि डालता, पर उस पर विश्वास की भावना नहीं जमती थी. उसकी सिधाई और आदरसूचक बरताव तो दुष्टता की गहरी प्रवृत्तियों को छिपाने के लिए नकाब भर थे. अकस्मात दौड़ कर पैर में काट लेने, तहखाने में चुपचाप घुस जाने या किसानों की मुर्गियाँ झपट लेने में वह उस्ताद था. आये दिन उसकी पिटाई होती रहती थी. दो दफा उसे रस्सी से बाँध कर लटकाया जा चुका था, हर हफ्ते उसपर इतनी मार पड़ती थी कि वह अधमरा हो जाता था, पर इस सब के बावजूद वह जैसे का तैसा बना हुआ था.

बाबा शायद इस वक्त फाटक पर खड़े गाँव के गिरजाघर की खिड़कियों से आ रही तेज लाल रोशनी को चुन्धियाती आँखों से देख रहे होंगे और फेल्ट बूट पहने पैर थपथपाते नौकरों-चाकरों से चहुल कर रहे होंगे. वह अपनी बाँहें फैलाते और सर्दी में सिकुड़ते होंगे और रसोईदारिन या नौकरानी को चुटकी काटते हुए बूढों की तरह ही-ही करते होंगे.

औरतों की तरफ हुलास की डिबिया बढ़ाते हुए वह कहते होंगे, “लो, एक चुटकी सुँघनी लो.”

औरतें सुँघनी नाक में डालेंगी और छींकेंगी. बाबा बेहद खुश हो खिल्ली उड़ाते हुए ठट्टा मार कर हँस पड़ेंगे और चिल्लायेंगे—

“ठण्ड से जमी नाक के लिए तो अकसीर है!”

कुत्तों को भी सुँघनी दी जायेगी. कश्तान्का छींकेगी, सिर हिलायेगी और चुपचाप चली जायेगी मानो बुरा मान गयी हो. लेकिन व्यून छींकने की अशिष्टता नहीं करेगा और दुम हिलाता रहेगा. मौसम बेहद सुहावना होगा. हवा थमी सी, पारदर्शी और ताजी. रात अँधेरी होगी, पर सफेद छतों, पाले और बर्फ से चमकते पेड़ों, चिमनियों से उठते धुएँ वाला पूरा गाँव साफ-साफ दिखाई पड़ता होगा. आसमान में खुशी से चमकते तारे छिटक रहे होंगे और आकाश-गंगा बिल्कुल साफ दिखाई पड़ रही होगी मानो त्योहार के लिए लिए अभी-अभी धोयी-माँजी गयी हो और बर्फ से रगड़ी गयी हो…

वान्का ने गहरी साँस ली, सियाही में कलम डुबोयी और फिर से लिखने लगा …और कल मुझ पर बुरी तरह मार पड़ी. मालिक मेरे बाल पकड़ कर घसीटता हआ बाहर आँगन में खींच ले गया और पेटी से मेरा चमडी उधेडने लगा. क्योंकि संयोग से मैं उनके बच्चे को झुलाते-झुलाते सो गया था. और पिछले हफ्ते एक दिन मालकिन ने मुझसे हेरिंग मछली साफ करने को कहा, मैंने उसकी दुम से सफाई शुरू की, तो मालकिन ने मछली छीन ली और उसका सिर मेरे मुँह पर रगड़ डाला. दूसरे कामगार मेरा मजाक उड़ाते हैं, शराबखाने से वोदका लाने को भेजते हैं और मुझे मालिक के खीरे चुराने पर मजबूर करते हैं और मालिक जो चीज भी सामने पड़ जाये, उसी से मेरी ठुकाई करने लगता है. और खाने को कुछ मिलता नहीं. सवेरे रोटी का टुकड़ा दे देते हैं, दोपहर को दलिया और शाम को फिर रोटी का टुकड़ा. मुझे चाय-मिठाई या गोभी का शोरबा कभी नहीं मिलता, ये चीजें तो वे सारी की सारी खुद ही ढकोस जाते हैं. मुझे ड्योढ़ी में सुलाते हैं और रात में जब उनका बच्चा रोने लगता है, तो मुझे उसे झुलाना पड़ता हैं और मैं बिल्कुल सो नहीं पाता. प्यारे बाबा, भगवान के लिए मुझे यहाँ से ले जाओ, मुझे गाँव ले जाओ, मुझ से अब यह सहा नहीं जाता… मेरे बाबा, मैं हाथ जोड़ता हूँ, पैर पड़ता हूँ, मुझे यहाँ से ले जाओ,

नहीं तो मैं मर जाऊँगा. मैं हमेशा तुम्हारे लिए भगवान से प्रार्थना करूँगा…’

वान्का के होंठ फड़के, काली मुट्ठी से उसने अपनी आँखें मली और सिसकी भरी.

मिकासप्रितीक मानसिक “मैं तुम्हारी सुँघनी पीस दिया करूँगा,” उसने पत्र में आगे लिखा. “मैं तुम्हारे लिए भगवान से प्रार्थना किया करूँगा और अगर मैं शरारत करूँ, तो जित्ते चाहो उत्ते बेंत मारना. और अगर तुम समझते हो कि मेरे लिए वहाँ कोई काम नहीं है, तो मैं कारिन्दे से कहूँगा कि वह मुझ पर रहम खा कर मुझे जूते साफ करने का काम दे दे या मैं फेद्या की जगह चरवाहे का काम कर लूँगा. प्यारे बाबा, मैं अब और बरदाश्त नहीं कर सकता, मेरी जान निकली जा रही है. जी में आया था कि पैदल ही गाँव भाग जाऊँ, पर मेरे पास जूते नहीं हैं और मुझे पाले का डर है. और जब मैं बड़ा हूँगा, तब मैं तुम्हारी देखभाल करूँगा और मैं किसी को भी तुम्हें तकलीफ नहीं पहुँचाने दूंगा और जब तुम मर जाओगे, तब मैं तुम्हारी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करूँगा जैसे मैं अम्मां के लिए करता हूँ.

“और मास्को इत्ता बड़ा शहर है. बड़े लोगों के यहाँ इत्ते सारे मकान हैं और इत्ते घोड़े हैं और भेड़ें तो बिल्कुल नहीं हैं और कुत्ते डरावने नहीं हैं. बड़े दिन पर लड़के सितार ले कर नहीं निकलते और गिरजाघर में गाना गाने को उन्हें जाने नहीं दिया जाता है. एक बार मैंने दुकान में मछली पकड़ने के काँटे बिकते देखे और वहाँ डोर लगी बंसी थी, जैसी चाहो वैसे मछली पकड़ने की बंसी, और वहाँ एक बहुत बढ़िया काँटा था, जिस पर आध-आध मन के रोहू तक आ जायें. मैंने दुकाने देखी हैं, जहाँ हर तरह की बन्दूकें मिलती हैं, बिल्कुल वैसी ही जैसी घर पर मालिक के पास हैं. उनकी कीमत सौ रूबल तो जरूर होगी… और बूचड़ों की दुकानों पर तीतर, बनकुकरी और खरगोश मिलते हैं, पर वे लोग यह नहीं बताते कि वे इन्हें कहाँ से मार कर लाते हैं. कार कानप्रशिमिजाकिक मा “प्यारे बाबा, वहाँ हवेली में, जब बड़े दिन का फर का पेड़ सजायेंगे, तब तुम उसमें से मेरे लिए पन्नीवाला एक अखरोट ले लेना और उसे हरी सन्दूकची में रख देना. छोटी मालकिन ओल्गा इग्नात्येव्ना से माँग लेना, कह देना वान्का के लिए है.”

वान्का ने गहरी साँस ली और फिर खिड़की के शीशे की ओर ताकने लगा. उसे याद आया, बाबा मालिकों के लिए बड़े दिन का फर का पेड़ लेने जंगल में जाया करते थे और उसे अपने साथ ले जाते थे. वे भी कितने सुख के दिन थे! फर के पेड़ काटने के पहले बाबा पाइप सुलगाते, एक चुटकी हुलास लेते और ठण्ड से काँपते वान्का पर हँसते… फर के पेड़ बर्फ-पाले से ढंके, स्तब्ध से खड़े यह प्रतीक्षा करते कि उनमें से कौन मरेगा? और यकायक बर्फ के ढेरों पर उछलता कोई खरगोश तीर-सा निकल जाता. बाबा चिल्लाने से न चूकते—

किठिकीचा गांव “रोक ले, पकड़ ले… ऐ दुमकटे शैतान!” बाबा पेड़ घसीटते हुए हवेली ले जाते और वहाँ उसे सजाना शुरू कर देते… वान्का की प्यारी छोटी मालकिन ओल्गा इग्नात्येन्ना सबसे ज्यादा व्यस्त होतीं. जब तक वान्का की माँ पेलागेया जिन्दा थी और हवेली चाकरी करती थी, ओल्गा इग्नात्येना वान्का को मिठाइयाँ देती थीं. अपने मनबहलाव के लिए उन्होंने उसे पढ़ना-लिखना और सौ तक गिनती करना और “क्वेड्रिल” नाच नाचना भी सिखाया था. पर जब पेलागेया मर गयी, तो अनाथ वान्का फिर अपने बाबा के पास नौकरों के रसोईघर और वहाँ से मोची अल्याखिन के यहाँ मास्को भेज दिया गया…

वान्का ने आगे लिखा-“प्यारे बाबा, मेरे पास आ जाओ, ईसा मसीह के नाम पर मुझे यहाँ से ले जाओ. मुझ अभागे अनाथ पर दया करो. ये लोग हमेशा मुझे पीटते रहते हैं और मैं बराबर भूखा रहता हूँ और इतना दुखी हूँ कि तुम्हें बता नहीं सकता, मैं बराबर रोता रहता हूँ. और अभी उस दिन मालिक ने मेरे सिर पर फर्मा इत्ते जोर से मारा कि मैं गिर पड़ा और मुझे लगा कि अब मैं फिर नहीं उठ पाऊँगा. मेरी जिन्दगी कुत्ते से भी बदतर है… और अल्योना, काने येगोर और कोचवान को मेरा प्यार कहना और मेरा बाजा किसी को मत देना. मैं हूँ तुम्हारा नाती वान्का झूकोव. प्यारे बाबा, आ जाओ.”

वान्का ने कागज को चौपरता मोड़ा और उसे एक लिफाफे में बन्द किया, जिसे वह एक दिन पहले एक कोपेक का खरीद लाया था… तब वह ठहर कर सोचने लगा, फिर दावात में कलम डुबोयी और लिखा, “गाँव में, बाबा को मिले,” फिर सोचा, अपना सिर खुजलाया और जोड़ दिया, “कोन्स्तान्तीन मकारिच को मिले.” इस बात पर खुश होते हुए कि लिखने में उसे किसी ने नहीं रोका-टोका, उसने अपनी टोपी लगायी और कमीज पर कोट पहने बिना गली में दौड़ गया…

एक दिन पहले बूचड़ की दुकान में पूछने पर लोगों ने उसे बताया था कि खत डाक के बम्बे में डाले जाते हैं और इन बम्बों से डाक की उन गाड़ियों पर सारी दुनिया में भेजे जाते हैं, जिनके तीन घोड़े होते हैं, कोचवान शराबी होते हैं और जिनमें घण्टिया बजा करती हैं. वान्का पास वाले बम्बे तक दौड़ कर पहुँचा और अपनी अमूल्य चिट्ठी बम्बे की दराज में डाल दी…

घण्टे भर बाद सुनहरी आशाओं की लोरियों ने उसे गहरी नींद में सुला दिया… उसने एक अलावघर का सपना देखा, अलावघर के ऊपर बाबा बैठे थे, उनके नंगे पैर लटक रहे थे, वह रसोईदारिनों को चिट्ठी पढ़ कर सुना रहे थे… व्यून अलावघर के सामने आगे-पीछे दुम हिलाते हुए टहल रहा था…

अन्तोन पाव्लाविच चेख़व रूसी कथाकार और नाटककार थे. अपने छोटे से साहित्यिक जीवन में उन्होंने दुनिया को चार कालजयी नाटक दिए. उनकी कई कहानियाँ विश्व साहित्य की धरोहर मानी जाती हैं. चेखव साहित्यिक सफ़र के दौरान चिकित्सक के व्यवसाय में लगे रहे. वे कहा करते थे कि चिकित्सा मेरी धर्मपत्नी है और साहित्य प्रेमिका.

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Sudhir Kumar

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