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बेटे-बहुएं दिल्ली चले गए घर में रह गए बूढ़े

2017 में उत्तराखंड राज्य सरकार द्वारा पलायन की समस्या निदान हेतु एक आयोग बनाया गया. मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में बने इस इस आयोग को नाम दिया गया ग्राम विकास एवं पलायन आयोग. अप्रैल 2018 में आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट सौंपी. जिसका सार बरसों पहले ही लोक गायक टीकाराम उपाध्याय ने कुछ इस तरह लिख दिया था.

च्यल-ब्वारिया दिली न्है गेई घर रैगो छ बुड़

खेती बाड़ी य बांजी हैगे छ खाली रै गई कुड़

(बेटे-बहुएं दिल्ली चले गए, घर में रह गए बूढ़े/खेती बाड़ी बंजर हो गई घर हो गया खाली)

खैर, इस आयोग ने 41 पन्नों की अपनी एक रिपोर्ट बनाई है. यह रिपोर्ट आयोग ने अपनी वेबसाइट में सामान्य जनमानस के लिये उपलब्ध करा दी है. दिलचस्प बात यह है कि आज की तारीख में केवल चार हजार नौ सौ चव्वन लोगों ने ही इस वेबसाइट को देखा है. करोड़ की आबादी वाला राज्य जिसकी जनता हमेशा पलायन का रोना रोती है वो पलायन को लेकर कितनी संजीदा है वेबसाइट को देखने वालों की संख्या बताती है. इस रिपोर्ट की भाषा अंग्रेजी है जिसका अनुवाद अब तक हिन्दी में उपलब्ध नहीं कराया गया है अंदाजा लगाया जा सकता है सरकार पलायन के विषय पर कितनी गंभीर है.

आयोग की यह रिपोर्ट पलायन की समस्या को इंगित करती है. पलायन संबंधी आकड़े दर्ज कराती है. लेकिन न तो आकड़ों का विश्लेषण करती है न ही समस्या के समाधान की ओर कोई इशारा तक देती है.

आयोग की संरचानात्मक जानकारी के बाद रिपोर्ट की शुरुआत 2011 की जनगणना के आकड़ों से की गयी है जिसके तहत उत्तराखंड के कुल 15745 गावों में 1048 के निर्जन होने की बात कही गयी है. हकीकत में उत्तराखंड में केवल 7823 गांव ही ऐसे हैं जिनकी जनसंख्या 200 से भी कम है. (आकड़े को आयोग ने सारणी में जगह दी है). 2011 के बाद निर्जन होने वाले गांव या तोक की संख्या 734 है. राज्य में 850 ऐसे गांव भी हैं जिनमें पिछले दस सालो में लोगो की वापसी भी हुई है.

अर्थव्यस्था संबधी आकड़ों में साफ देखा जा सकता है कि उत्तराखंड की सकल घरेलू आय में प्राथमिक क्षेत्र की हिस्सेदारी लगातार घटती जा रही है.(प्राथमिक क्षेत्र में कृषि एव उसके सहायक क्षेत्रों जैसे दुग्ध उत्पादन, मत्स्य पालन, कुकुट पालन आदि से प्राप्त आय की गणना की जाती है). उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य (जहां कृषि ही एकमात्र आजीविका का साधन है) के लिये चिंता का विषय यह है कि राज्य सकल घरेलू उत्पाद में तृतीयक क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है. (तृतीयक क्षेत्र में सेवा क्षेत्र जैसे व्यापार, यातायत आदि से प्राप्त आय की गणना की जाती है) हरिद्वार व ऊधम सिंह नगर जैसे मैदानी क्षेत्रों में जहां वर्ष 2004-05 से 2013-14 के बीच तृतीयक क्षेत्र की हिस्सेदारी में वृध्दि नकारात्मक रही है वही लगभग सभी पर्वतीय जिलों में तृतीयक क्षेत्र में वृध्दि सकारात्मक रही है. वहीं द्वितीयक क्षेत्र में जहां इन दोनों मैदानी जिलों में इस दौरान वृध्दि दर दस से अधिक रही है तो अन्य सभी जिलों में यह औसतन तीन से चार रही है. (द्वितीयक क्षेत्र में विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन की गणना की जाती है)

उत्तराखंड की अर्थव्यवथा में घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र के योगदान का लगातार घटना चिन्ता का कारण है. उत्तराखंड एक ग्रामीण समाज पर आधारित राज्य है. ग्रामीण क्षेत्र की 43.59% जनसख्या कृषि क्षेत्र में लगी है. उत्तराखंड के प्राथमिक क्षेत्र में वन एव अन्य गतिविधियों का हिस्सा 16.70 % है जिसकी नकारात्मक वृध्दि दर एक अन्य चिंता का विषय है. कृषि क्षेत्र में सर्वाधिक वृद्धि दर खनन क्षेत्र की 13.65% है. इससे स्पष्ट है कि विकास का रुख किस ओर है.

पहाड़ी जिलों की अपेक्षा मैदानी जिलों की प्रति व्यक्ति आय भी बहुत अधिक है. हरिद्वार, उधम सिह नगर ओर देहरादून की प्रति व्यक्ति आय पहाड़ी जिलों से 40% अधिक है. जो समाज में अर्थिक असमानता की खाई को निरंतर बढ़ाता जा रहा है.

ग्रामीण क्षेत्रों का मुख्य रोजगार कृषि को ही बताया गया है. रोजगार में लगी कुल ग्रामीण जनसंख्या का 43.59%  हिस्सा कृषि में संलग्न है. ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का दूसरा महत्तवपूर्ण साधन मजदूरी है जिसका हिस्सा 32.22% है. उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में प्राथमिक क्षेत्र (कृषि क्षेत्र) में रोजगार में कमी एक चिंता का विषय है. यदि आयोग इस बात के आकड़े उपलब्ध कराता कि कितने लोगों को कृषि से मजदूरी का रुख करना पड़ा है तो इससे एक नवीन आयाम देखने को मिलता. बहरहाल यह माना जा सकता है कृषि में लगा एक बड़ा हिस्सा वर्तमान में मजदूरी की ओर बढ़ रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे परिवारों में तीसरा सामान्य व्यवसाय सरकारी नौकरी का है.

उत्तराखंड से पलायन भारत के अन्य राज्यों के साथ राज्य के अन्य जनपदों की ओर भी हो रहा है. इस संबंध में जनपद मुख्यालय में, नजदीकी कस्बों में भी पलायन होता है. लगभग 29 % राज्य के बाहर व 36% राज्य के भीतर ही पलायन होता है. पलायन का मुख्य कारण ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार में कमी है. 50.16 प्रतिशत लोग केवल रोजगार के चलते ही राज्य के भीतर पलायन का शिकार हैं. बेहतर शिक्षा पलायन का दूसरा सबसे प्रमुख कारण है 15.21% लोग शिक्षा के चलते पलायन करते हैं. चिकित्सा सुविधा के अभाव के कारण 8.83%, सड़क-बिजली-पानी के अभाव के कारण 3.74 %, जंगली जानवरों द्रारा कृषि हानि के कारण 5.61%, व कृषि  भूमि की उत्पादकता में कमी के कारण 5.44% लोगों ने पलायन किया है. आयोग द्वारा दिया गया यह आकड़ा इस कारण कमजोर हो जाता है क्योंकि इसके पूर्व ऐसा कोई आकड़ा उपलब्ध नही है जिससे की तुलना की जा सके.

पलायन करने वालों के आयु वर्ग के सबंध में –सर्वाधिक पलायन करने वाला आयु वर्ग 26 से 35 के मध्य का है. इस आयु वर्ग का 42.25% हिस्सा पलायन करता है. अपनी शिक्षा के अनुरुप रोजगार न मिलना पलायन का एक अन्य कारण है. पलायन के संबध में यदि भारत का अध्ययन किया जाय तो सबसे कम पलायन की दर निरक्षरों में पाई जाती है. शिक्षा के बढ़ने के साथ पलायन की दर में भी वृध्दि होती जाती है. पलायन आयोग ने उत्तराखंड के संबंध में ऐसा कोई आकड़ा उपलब्ध नहीं कराया है.

आयोग ने रिपोर्ट में किसी प्रकार का समाधान नहीं दिया है. आयोग ने दावा किया है कि नवम्बर माह से फरवरी माह तक उत्तराखंड के प्रत्येक गांव में जाकर सर्वेक्षण के आधार पर बनायी गई रिपोर्ट है. सर्वेक्षण में शामिल लोगों की संख्या के विषय पर आयोग ने कुछ नहीं बताया है. आयोग द्वारा दावा किया गया है कि सर्वेक्षण में प्रत्येक गांव से यह जानकारी जुटाई गयी है. हालांकि 41 पन्नों की अपनी रिपोर्ट में आयोग ने लगभग 5 नये पन्ने जोड़े हैं जिसमें दो-एक प्रस्तावना व स्व-महिमा मंडन से जुड़े हैं बाकि पूर्व के आकड़ों को ही ऊपर नीचे जोड़ा है.

सितम्बर 2018 में आयोग ने अपनी वेबसाइट पर इकोटूरिजम पर अपनी एक रिपोर्ट अपलोड की है जिसके अनुसार राज्य में 2015-16 में कुल रोजगार सृजन में पर्यटन का योगदान 17.10 % रहा. रिपोर्ट के अनुसार 2007-08 के मुकाबले राज्य में 2016-17 में घरेलू पर्यटकों की संख्या में तो इजाफ़ा हुआ लेकिन विदेशी पर्यटकों की संख्या में भारी गिरावट आई है. आकड़े बताते हैं कि 2016-17 में सर्वाधिक राजस्व जिम कार्बेट पार्क और राजाजी नेशनल पार्क से आया है. गंगोत्री, नन्दादेवी और फूलों की घाटी तीनों नेशनल पार्क से आया संयुक्त राजस्व इन दो नेशनल पार्क का दस प्रतिशत भी नहीं है.

यह आकड़े स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि उत्तराखण्ड में पर्यटन नीति में सरकार का झुकाव अब तक मैदानी इलाकों में अधिक रहा है. इकोटूरिजम की रिपोर्ट में भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि सरकार की गलत नीतियों के कारण कुछ स्थान विशेष में पर्यटकों की संख्या बहुत अधिक है तो कहीं नहीं के बराबर है. रिपोर्ट में इसका एक मुख्य कारण राज्य में अलग-अलग विभागों द्वारा पर्यटन के विकास की योजना बनाये जाने को माना गया है. रिपोर्ट में पूरे राज्य में एक मास्टर प्लान के तहत पर्यटन नीति बनाने पर जोर दिया गया है.

कुल मिलाकर प्रकृति आधारित पर्यटन नीति, एकल एजेंसी, सूचना, पानी, संचार, ऊर्जा जैसे वही घिसे-पिटे सुधार आयोग ने सुझाए हैं जो अलग-अलग समय पर पिछले कई सालों से दिये जा रहे हैं. आयोग ने अपनी वेबसाइट में अब तक जो सबसे अच्छा काम किया है वह है पौढ़ी जिले पर एक विस्तृत रिपोर्ट. रिपोर्ट में बताया गया है कि कृषि और लेबर से रोजगार प्राप्त करने वाली जनसंख्या राज्य में 70 प्रतिशत से अधिक है. हालांकि यह रिपोर्ट भी आयोग द्वारा आफ़िस में ही बैठकर बनाई प्रतीत होती है इसके बावजूद दिसम्बर 2018 में वेबसाइट में अपलोड यह रिपोर्ट आयोग का अब तक का पहला अच्छा काम है.

– गिरीश लोहनी

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