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और वह मुर्गी का चूजा दो महीने बाद जाने कहां से लौट आया

पहाड़ और मेरा जीवन भाग-15

(पिछली क़िस्त : और इस तरह रातोंरात मैं बुद्धू बच्चे से बना एक होशियार बालक )

(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)

मुझे बचपन से ही जानवरों से बहुत प्यार रहा है. कुत्ते, बिल्ली, गाय, बछड़े, बैल, मुर्गी, चिड़िया, गिलहरी. कुत्तों के नन्हे पिल्लों पर तो मैं बचपन से ही जान छिड़कता था. जैसे चार-पांच साल की लड़कियां अपनी गुड़ियाओं के साथ दिनभर खेलती ही रहती हैं, मैं भी किसी पिल्ले के साथ पूरा दिन खेलते हुए बिता सकता था. मैं जब भी गांव जाता था, तो वहां बाज्यू यानी ताऊजी के घर पर हमेशा कोई न कोई कुत्ता रहता था. उन्हें कुत्ते रखने पड़ते थे क्योंकि वे ही फसल को बंदरों से बचाने काम करते थे. मैं उन कुत्तों को देखकर ही खुश हो जाता था और जब तब उनके साथ खेला करता था. कुत्तों से मेरे प्यार में एक बालसुलभ नादानी थी. उन दिनों हमारे घर में कभी-कभार मीट बनता था.

पिथौरागढ़ जैसी ठंडी जगह में मीट खाने की बात ही कुछ और है. घर पर जब मीट बनता था तो उसकी दिव्य खुश्बू सीधे मेरी आत्मा को उधेड़कर रख देती थी और पढ़ाई करते हुए मेरा सारा ध्यान मां की आवाज पर लग जाता कि कब वह खाने पर बुलाती है. उन दिनों एक कुतिया थी जो ठीक खाने के वक्त हमारे घर की खिड़की के बाहर बैठ जाया करती थी. वे हमारे परिवार के लिए बहुत कठिन दिन थे. हमारे घर पर मीट बनता तो था पर वह इतनी मात्रा में नहीं होता था कि आत्मा तृप्त हो सके. और मेरे जैसे भुक्खड़ की तो बात ही क्या की जाए. मैं बहुत रस लेकर मीट खाता था. जब कभी घर में स्वादिष्ट चीज बनती तो बड़े भाई और मेरे बीच धीरे खाने की अघोषित प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती क्योंकि इस बात की आशंका रहती थी कि दूसरे से जल्दी खा लिया, तो बाद में उसके साथ कुछ साझा भी करना पड़ सकता है. मीट में हाथ आने वाली हड्डी के भीतर का माल भी मैं रस ले-लेकर निकालता था. भाई के साथ मैंने मीट का जरा-सा टुकड़ा देने में भी शायद ही कभी उदारता दिखाई हो, लेकिन यह जानने के बाद कि बाहर ठंड में एक कमजोर कुतिया मीट की खुशबू से बेचैन बैठी हुई है, मुझे भी बेचैन कर देती थी और मैं कई बार हड्डियों के साथ-साथ अपने हिस्से का मांस का टुकड़ा भी चुपके से उस कुतिया की ओर उछाल देता था.

इन दिनों पिताजी बेरोजगार थे और घर चलाने के लिए मां ही तरह-तरह के जुगत करती थी. उसने एक गाय के अलावा मुर्गियां भी पाल ली ताकि रोज मीट न सही कम से कम वह अपने बच्चों को अंडे तो खिला सके. असल में बड़ा भाई मेरी तुलना में कदकाठी में कमजोर दिखता था. मां को उसकी सेहत की बहुत चिंता रहती थी. हमने जो मुर्गी पाली वह रोज ही अंडा देती थी और हम दोनों भाइयों में अंडे को पहले पकड़ने की होड़ लगी रहती. मैं आंख खुलते ही मुर्गी के दड़बे की ओर भागता. मुझे सफेद और मुलायम दिखने वाले अंडे को हाथ में पकड़ने में बहुत मजा आता था. मैं यह सोचकर थोड़ा हैरान भी होता था कि इसी अंडे से मुर्गी का बच्चा निकलता था. मैं अंडे से बच्चा निकलते हुए देखना चाहता था. फिर एक बार मां ने कहा कि कुछ दिनों तक अंडे उठाना नहीं. मुर्गी को अपने अंडे सेकने थे ताकि वह मां बन सके. उसने छह अंडे सेके जिनमें से छह बच्चों का जन्म हुआ. मेरी तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे इतने छोटे, इतने खूबसूरत और इतने प्यारे चूजे थे, हल्की पीली आभा में नहाए… मैं उन्हें देखकर खुशी से फूला न समा रहा था क्योंकि मुझे छह दोस्त मिल गए थे खेलने को. और मैं उनके साथ रोज ही खेलता. वे अपनी मां के साथ ही बाहर निकलते और मां के पीछे-पीछे भोजन चुगने जाते. वे मेरी आंखों के सामने बड़े हो रहे थे. जब वे मां के साथ बाहर निकलते तो चूं चूं करते हुए बहुत खुश दिखते और उन्हें खुश देखकर मैं बहुत खुश होता. मैं जब-तब उन्हें गोद में उठा लेता और प्यार से उनके कोमल पंखों पर हाथ फेरता. लेकिन एक दिन मुझे यह देखकर झटका लगा कि उन छह चूजों में से एक घर नहीं आया. तब तक ये चूजे लगभग महीने भर बड़े हो गए थे. वे थोड़े बड़े तो हो गए थे, पर अब भी बहुत खूबसूरत और नादान दिखते थे.

मैंने उस चूजे को आसपास बहुत ढूंढा. जिस दिन वह नहीं आया उस दिन तो मैं रात में भी टॉर्च लेकर उसे खोजने निकला था. पर वह नहीं मिला. मेरे लिए यह बहुत गहरी उदासी का सबब था. लेकिन मेरे मन में भरोसा था कि वह मिलेगा जरूर. फिर दिन गुजरने लगे और वह नहीं मिला. मैं उसे लेकर मां के सामने रोया भी. मां ने समझाया कि कोई बात नहीं तेरे पास पांच तो हैं, उनके साथ खेल. पर मुझे तो छह के छह चाहिए थे. मैं उस रास्ते से गुजरने वाले हर स्कूली बच्चे को शक की निगाह से देखता था. पहाड़ में मैंने देखा था कि कैसे जब लोग परेशानी में होने पर देवतारी करवाते थे जहां धामी के ऊपर देवता आता और वह सारी बातें बताता कि किसने क्या जादू-टोना किया हुआ है. मैंने उस रास्ते से गुजरने वाले सारे स्कूली बच्चों के बीच यह बात फैला दी थी कि हम लोग उस मुर्गी के बच्चे को लेकर भी देवतारी करने वाले हैं और मैं धामी को कहने वाला हूं कि जिसने भी हमारा वह चूजा चोरी किया है उसका नाश हो जाए. इसके अलावा मैंने जैसा कि जम्मू में चप्पल बहने पर किया था, भगवान को भी बीच में घसीट लिया और चूजे को सुरक्षित लाने की जिम्मेदारी उसके सिर पर डाल दी. ऐसा नहीं करने पर अपनी नजर में उसके हमेशा के लिए गिर जाने की धमकी भी साथ में दे दी गई थी.

एक महीना गुजर गया पर वह चूजा नहीं लौटा. अब मैंने अपने कुछ दोस्तों की क्रूर आशंका पर भरोसा करना शुरू कर दिया था कि कोई शराबी उसे जेब में डालकर ले गया और मारकर खा गया. करीब पंद्रह दिन और निकल गए. अब दूसरे खेलों के उत्साह के बीच उस खो चुके चूजे की याद धीरे-धीरे कम होने लगी. दो महीने गुजरते-गुजरते तो मैं उसे भूल ही गया. लेकिन एक शाम जबकि मैं घर के नीचे सड़क पर खेल रहा था अचानक मैंने देखा कि एक मुर्गी का किशोर दिखता बालक सामने से आ रहा है. जैसे-जैसे वह नजदीक आता गया वैसे-वैसे मैं उसका चेहरा पहचानता गया. वह इतना खुश होकर और सीना तान कर चल रहा था कि लगा जैसे वह मुर्गी का नहीं शुतुरमुर्ग का बच्चा हो. अरे, ये तो अपना ही चूजा है! करीब आने पर मैं उसे पहचान गया. हमारे घर के करीब पहुंच उसकी रफ्तार बढ़ गई. वह खुद ब खुद हमारे घर की ओर मुड़ गया. मैं उसके पीछे दौड़ा और अगले ही क्षण वह मेरी गोद में था. मेरे गालों पर आंसू लुढकने लगे थे. मैं बहुत देर तक उसके कोमल पंखों पर हाथ फेरते हुए उसे सीने से सटाए रहा. और उसके बाद मां! मुर्गी का बच्चा लौट आया! मुर्गी का बच्चा लौट आया! चिल्लाते हुए मां की ओर भागा. परिवार का हर सदस्य उसके यूं लौट आने पर हैरान था. इसे किसी दैवीय घटना से कम नहीं माना जा रहा था. मैंने मन ही मन भगवान को सूचित किया कि वह मेरे इम्तहान में पास हो गया था.

वैसे यह पहेली आज तक नहीं सुलझी कि उस मुर्गी के बच्चे को कौन लेकर गया था और जब ले ही गया था तो दो महीने बाद वापस छोड़ने का क्या अर्थ था. मेरा कयास यह था कि ठूलीगाड़ के नजदीक स्थित कासनी गांव का कोई बच्चा इसे लेकर गया होगा और बाद में अपने किए पर डर लगने पर कि कुछ अनर्थ न हो जाए वह उसे आसपास छोड़ गया होगा. हो सकता है उसने सचमुच किसी दोस्त के मुंह से मेरी देवतारी के बारे में फैलाई गई बात सुन ही ली हो. लेकिन यह मेरा कयास ही है. परिवार के बाकी सदस्यों के अपने कयास थे. आज इतने सालों बाद यह किस्सा लिख रहा हूं. मेरे इन किस्सों को बहुत से स्कूली दोस्त भी पढ़ रहे हैं. तो अगर उनमें से किसी को संयोग से पता हो कि हमारे इस मुर्गी के बच्चे को कौन लेकर गया और फिर दो महीने बाद उसने उसे क्यों छोड़ दिया, तो वह मुझसे जरूर यह राज साझा करे. इतने सालों बाद सही, पर जरा सच तो मालूम चले!

(जारी)

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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Girish Lohani

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