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वनों पर खतरा बनता उत्तराखंड सरकार का अदूरदर्शी फ़रमान

उत्तराखंड की ज़मीनों पर भू माफ़िया की गिद्ध दृष्टि बनी हुई है. उत्तराखंड सरकार द्वारा लाये गए एक नए शासनादेश से वन संरक्षण अधिनियम 1980 को कमज़ोर किये जाने की आशंका जताई जा रही है. इसे राज्य सरकार का बिल्डर लॉबी के दबाव में लिया क़दम बताया जा रहा है. (Uttarakhand government changed the definition of forest)

इस आशंका के पीछे सच्चाई यह है कि 2001 से ही उत्तराखंड की सरकारी भूमि पर कब्ज़ा करने का दुष्चक्र रचा जाने लगा था. राज्य में तब 104 फल-बीज के कृषि उद्यान मौजूद थे. शुरुआत उद्यानों के बीच ख़ाली पड़ी भूमि को बीज उत्पादक कंपनियों को लंबी लीज़ पर दिए जाने के प्रस्ताव से हुई.

अक्टूबर 2002 में 7 कृषि उद्यानों की 130 हेक्टेयर ज़मीन ऐसी कंपनियों को दे दी गई जिनका बीज उत्पादन से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था. ये उद्यान पहाड़ के किसानों को औद्यानिक ज्ञान और पौध-बीज प्रदान करने के मक़सद से 1953 से उत्तरोत्तर विकसित किये गये थे. फ़िलहाल, उद्यानों की इस कहानी को यहीं छोड़ना पड़ेगा किंतु यह बताना आवश्यक होगा कि पहाड़ के कुछ हितैषियों की जागरूकता और हाईकोर्ट की सक्रियता से ये लूट उतने बड़े पैमाने पर होने से बच गई. उसके बाद भी पिछले 15 सालों में चोर दरवाज़ों से ज़मीनें बिकती रहीं, रजिस्ट्रियां होती रही हैं.

हिमांचल की तर्ज़ पर भू क़ानून बनवाने की अपेक्षा बारी-बारी सत्तानशीन होती कांग्रेस और भाजपा की सरकारों से कभी पूरी न हो सकी. उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश) ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम की भू उपयोग से जुड़ी धारा 143 और कृषि भूमि की क्रय सीमा से जुड़ी धारा 154 मात्र ऐसे अवरोध थे जिनसे उत्तराखंड की, विशेषकर पहाड़ की, ज़मीनों को बे रोकटोक नहीं ख़रीदा जा सकता था.

2019 आते-आते उत्तराखंड सरकार ने ज़मीनों की ख़रीद-फ़रोख्त में व्यवधान उत्पन्न करने वाले इन दो महत्वपूर्ण प्रावधानों को भी समाप्त कर दिया. सेक्शन 143 में 143 (ए) जोड़ दिया गया जिससे भू-उपयोग में बदलाव, यानी कृषि भूमि का लैंड यूज़ बदलकर कमर्शियल करवाना आसान हो गया. दूसरे, सेक्शन 154 के अनुसार औद्योगिक इस्तेमाल हेतु 12.5 एकड़  ख़रीद की जो सीमा थी उसे प्रावधान में अनुच्छेद (2) जोड़कर इस अवरोध को समाप्त कर दिया. सेक्शन 154 के लगभग निष्प्रभावी होने से अब एकड़ों कृषि भूमि उद्योग स्थापित करने हेतु क्रय की जा सकती है. साथ ही सरकार ने हर ज़िले में विकास प्राधिकरण की स्थापना कर दी जिसका मुख्य उद्देश्य इन जमीनों पर विवादास्पद रूप से परिभाषित उद्योगों के प्रस्तावों को स्वीकृति प्रदान करना है. वस्तुतः इसके दुष्परिणाम इस तरह भी सामने आने लगे हैं कि स्थानीय निकाय-ग्राम पंचायत आदि कमज़ोर पड़ती जा रही हैं और पहाड़ की ज़मीनों को कथित औद्योगिक विकास के नाम पर हथियाने का रास्ता एकदम साफ हो गया है.

2019 की विदाई की बेला में लगता है कि भू माफ़िया की नज़रें पहाड़ के जंगलों की जमीनों पर गढ़ चुकी हैं. ऐसा इसलिये कि पिछली 21 नवंबर को सरकार ने आदेश संख्या 868/X-3-19-15(59)/2014 से वन की परिभाषा ही बदल दी है. नये मानकों के अनुसार उत्तराखंड में डीम्ड फॉरेस्ट का रकबा 10 हैक्टेयर निर्धारित किया गया है. इसका अर्थ हुआ कि 10 हैक्टेयर या 25 एकड़ यानी 500 नाली से कम क्षेत्र में फैले जंगल को सरकार जंगल नहीं मानेगी. Uttarakhand government changed the definition of forest

शासनादेश का प्रस्तर ‘ख’ तो और अधिक आपत्तिजनक और कुछ हद तक हास्यास्पद भी लगता है. इसमें कहा गया है कि राजस्व रिकॉर्ड में वन के रूप में अधिसूचित या उल्लिखित वनक्षेत्र जो 10 हेक्टेयर या उससे अधिक का सघन क्षेत्र (compact patch) है और उसका वितान घनत्व (canopy density) 60% से अधिक है, को ही वन माना जाएगा.

साथ ही शासनादेश के प्रस्तर ‘ग’ में इन उल्लिखित वनों की श्रेणी के अलावा अन्य क्षेत्र जिसमें 10 हेक्टेयर या उससे अधिक के सघन क्षेत्र के साथ 75% से अधिक देसी वृक्ष प्रजातियां हो तथा जिसका वितान घनत्व 60% से अधिक हो, को वन माना जाएगा.

इतने अव्यवहारिक मानकों से वन को परिभाषित करने के पीछे सरकार का क्या मंतव्य है, इसके बाबत वर्तमान में वन विभाग में कार्यरत कोई अधिकारी संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते. विभाग के नोडल ऑफिसर डी जे के शर्मा कहते हैं कि विभाग को गांव और किसानों का ध्यान रखना होता है. खेतों में उग आए पेड़ों को जंगल की श्रेणी में रखने से किसानों का उत्पीड़न होता है लेकिन शर्मा साहब इस बात का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं देते कि विभाग की संस्तुति के बिना ये मानक किस प्रकार तय हो गए. साथ ही जिस डेंसिटी की बात की गई है उस पैमाने पर कितने रिजर्व्ड या प्रोटेक्टेड फारेस्ट भी खरे उतरते हैं?

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा था कि जहाँ भी नैसर्गिक रूप से पेड़ उगे हों उसे वन माना जाये. साथ ही कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि राज्य सरकारें अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुरूप क्षेत्रों को चिन्हित कर उन्हें जंगल की श्रेणी में रख पाएंगी. उत्तराखंड का यह शासनादेश लफ़्ज़ों के लिहाज़ से चाहे उचित हो पर भावना में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से मेल खाता नहीं प्रतीत होता.

रिटायर्ड मुख्य वन संरक्षक आई डी पाण्डे कहते हैं कि डीम्ड फॉरेस्ट की यह परिभाषा किसी आपदा से कम नहीं है. आरक्षित वनों को छोड़कर, उत्तराखंड के वन अब फॉरेस्ट कंज़र्वेशन एक्ट के दफ़ा 26 जैसे सख़्त प्रावधानों से मुक्त हो जाएंगे. राज्य की जनता के हित में इस विध्वंसक आदेश को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए.

राज्य बायो डाइवर्सिटी बोर्ड के पूर्व चेयरमैन डॉ राकेश शाह का मानना है कि इससे जंगलों में घुसपैठ बढ़ेगी जिसके फलस्वरूप मनुष्य और वन्यजीव संघर्ष में बढ़ोतरी होगी.जबकि सेवा निवृत्त मुख्य वन संरक्षक प्रकाश भटनागर के विचार में शासनादेश में संस्तुत मानकों को हासिल करना संभव नहीं है.

उत्तराखंड में किसी प्राइवेट फॉरेस्ट में इस डेंसिटी के जंगल की कल्पना भी नहीं की जा सकती. वो इसे मात्र वन संरक्षण अधिनियम को कमज़ोर करने की साज़िश मानते हैं. इस विचार को आगे बढ़ाते वन विभाग के एक अन्य सेवानिवृत्त अधिकारी और ऐक्टिविस्ट विनोद पांडे कहते हैं

इसके तहत दस हेक्टेअर से कम क्षेत्र हो या कैनोपी घनत्व 60 प्रतिशत से कम हो तो वो जंगल की परिधि से बाहर हो जाएगा. यदि ये दोनों चीजें हों और स्थानीय पेड़-पौधे न हुए तो इस आधार पर भी वो जगह जंगल की श्रेणी से बाहर हो जाएगी. इसे अगर हम उल्टा करें तो माना 5 हेक्टेअर क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक कैनोपी घनत्व के पेड़ हों, तो भी वो जंगल नहीं है. या फिर 15 हेक्टेअर क्षेत्र में 50 प्रतिशत कैनोपी घनत्व के पेड़ हों, तो भी वो जंगल नहीं है. वहां कोई भी कमर्शियल गतिविधि आसानी से की जा सकती है.

कहा जा सकता है कि वन को परिभाषित करता ये शासनादेश उत्तराखंड के साथ-साथ देश के पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता दर्शाता है. कायदे से बाँज, कौव्, काफल, उतीस, बुरांश और अन्य चौड़ी पत्तियों के पेड़ों से आच्छादित डाँनों-कानों को रकबे की सीमा से मुक्त करके वन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. भू उपयोग और ख़रीद की सीमा को लेकर हाल में लागू उदार नीतियों के चलते उत्तराखंड की जमीनों-जंगलों पर बहुत दबाव आया है. ये वक़्त हरित बोनस कमाने का है, जंगलों को गँवाने का नहीं. (Uttarakhand government changed the definition of forest)

उमेश तिवारी ‘विश्वास

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हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.

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Girish Lohani

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