समाज

कभी न भूलने वाली नैनीताल शहर की कुछ अद्वितीय शख्सियतें

नैनीताल को कुदरत ने जिस खूबसूरती की नियामत से नवाजा है, उतने ही दिलचस्प एवं अजीबोगरीब यहां के बाशिन्दों को तरह-तरह के किरदार भी दिये. ये चरित्र और उनकी स्मृति केवल गुदगुदाते ही नहीं, कभी-कभी गंभीर मु्द्दों पर सोचने को भी विवश करते रहे हैं. समाज के लिए प्रत्यक्ष तौर पर उनका कुछ काम दिखता नहीं हैं, लेकिन वे किसी पहचान के मोहताज भी नहीं रहे और खुद को ही शहर की पहचान बना बैठे. नैनीताल शहर का ऐसे अजीबोगरीब चरित्रों से भी करीब का नाता रहा है.

बात सत्तर के दशक से प्रारम्भ करते हैं.  हो सकता है इससे पहले भी कई विचित्र व्यक्तित्व रहें हो, लेकिन खुद ने जो देखा,  वहीं बयान करना ईमानदारी होगी. नैनीताल की माल रोड यों तो पर्यटकों तथा स्थानीय लोगों की चहल कदमी से गुलजार रहती ही है, जहां आपको देश के ही नहीं दूसरे देशों के सैलानियों के दीदार भी हो जाया करते हैं. सत्तर के दशक में इसी मालरोड में नैनी विद्या भवन के दुमंजिले में ‘आहार-विहार’ के पास एक सज्जन रहा करते थे.  नाम तो ज्ञात नहीं, कोई 60-65 की उम्र रही होगी उस समय उनकी. लगभग 6 फुटा लंबा छरहरा बदन, सर मुड़ाये हुए गंजी खोपड़ी,  ऊपर के हिस्से में सफेद बन्डीनुमा सफेद वस्त्र और नीचे तहमत की तरह लपेटी सफेद धोती और नंगे पैर. मालरोड पर सर्पाकार सरपट भागते, कभी सड़क के इस किनारे तो कभी उस किनारे. इतनी तेज रफ्तार चलते कि उनकी बराबरी करना हर किसी के बूते की बात नहीं होती. सुबह 7 से 8 बजे के करीब उन्हें मालरोड पर देखा जा सकता था. लोग बताते कि वे नित्य हल्द्वानी रोड पर स्थित हनुमान गढ़ी तक जाते,  लेकिन मार्निंग वॉक पर जाते या मन्दिर दर्शन को ये पता नहीं. उनके सर्पाकार चलने का रहस्य भी उनके धर्म से जुड़ा था. दरअसल वे जैन धर्म के अनुयायी थे. जैन धर्मावलम्बी हनुमान को भी जैन ही मानते हैं. बहुत संभव है कि वे हनुमानगढ़ी में बजरंग बली का दर्शन करने को जाते हों. उनके माल रोड पर चलने पर, होता ये था कि कुछ शरारती लौंडे जबरन उनको छूने का असफल प्रयास करते. उनके स्पर्श व परछाई से खुद को बचाने के लिए ही वे दायें-बाऐं दौड़ते. लोग बताते थे, कि अगर किसी व्यक्ति की छाया भी उन पर पड़ जाय तो वे पुनः स्नान कर शरीर का शुद्धीकरण करते. बाद के वर्षों में उन्होंने कब नैनीताल छोड़ा अथवा देहत्याग किया, इसकी कोई जानकारी जानकारी नहीं है. खैर- उम्र के जिस पड़ाव पर उन्हें आज से 40-45 वर्ष पूर्व देखा तो संभवतः अब वे इस दुनियां में हैं भी कि नहीं, लेकिन यादें अभी भी उनकी जिन्दा हैं.  

एक और रहस्यमयी चेहरा था, जो नैनीताल के बाशिन्दे तो नहीं थे, लेकिन गर्मी का सीजन शुरू होते ही गले में भारी-भरकम म्यूजिक सिस्टम लटकाये, फ्लैट्स अथवा माल रोड पर, सफेद लखनवी चिकन का डिजाइनदार सफेद कुर्ता व पजामा पहने अपने ही धुन में थिरकते हुए दिख जाते. भेष-भूषा व चाल-ढाल से किसी अच्छे घर के सुशिक्षित इन्सान लगते. ये सज्जन टेपरेकॉर्डर पर किसी फिल्मी गाने का कैसेट चलाकर अपनी ही धुन में थिरकते रहते. पर्यटकों तथा स्थानीय लोगों का हुजूम उन्हें थिरकते हुए घेरे रहता, लेकिन उन्हें देखने वालों की भीड़ से कोई वास्ता नहीं. वह न तो भीड़ से विचलित होते और न अपना नृत्य रोकते. लोगों के लिए यह एक रहस्य बनकर ही रहे. लोग बताते थे कि वे लखनऊ के रहने वाले हैं तथा किसी पारिवारिक सदमे से ग्रस्त होकर दिमाग से कुछ विक्षिप्त से हैं लेकिन हकीकत रहस्य ही बनी रही.

सत्तर-अस्सी के दशक में ही रागी बाबा भी नैनीताल का युवाओं में विशेष चर्चित नाम हुआ करता. जैसा नाम लगभग वैसी ही भेषभूषा. ठेठ पहाड़ी ग्रामीण सा नाक-नक्श, छोल्यारों की तरह का विविध रंगों का एक लम्बा झगुला और सिर पर सफेद साफा,  हाथ में एक लाठी जिस पर घुँघरू बंधे होते. चुनाव चाहे विधान सभा के हों अथवा लोकसभा के, रागी बाबा अपनी उम्मीदवारी से नहीं चूकते. कुछ लोग बताते थे कि मूलतः वे बागेश्वर के पास के किसी गांव से थे, जो गांव में हुड़का बजाकर जागर लगाने का काम करते थे, जब कि कुछ लोग बताते थे कि वे गांव में बकरी पालन करते थे. असल नाम क्या था, नहीं मालूम और न ये मालूम कि रागी बाबा नाम किसने दिया. बाबा तो वैरागी होते हैं फिर राजनीति के प्रति उनके राग ने ही तो कहीं उनका नाम रागी बाबा रख दिया हो. लगता था कि कुछ सिरफिरे लोगों ने उन्हें उचकाकर चुनाव लड़ने का लालच दे डाला. उन्होंने आव देखा न ताव अपनी जमा पूंजी से जमानत के पैसे भरकर हर चुनाव में अपनी दावेदारी ठोकनी शुरू कर दी. सत्तर -अस्सी के दशक में हम डीएसबी कालेज के छात्र हुआ करते. साथ के छात्रों के लिए यह मनोरंजन का अच्छा जरिया था, वे जल्दी-जल्दी अपनी क्लास करके रागी बाबा की चुनावी सभा में तल्लीताल गांधी चौक में पहुंच जाते. फिर क्या था. रागी बाबा को ऊंचे चबूतरे पर चढ़वाया जाता, और नीचे उन्हीं की एक चादर जमीन पर बिछा दी जाती, जिसमें चुनावी चन्दे की गुजारिश होती.  उनके द्वारा हुड़के की थाप पर भीड़ इकट्ठा होती और भीड़ को देखकर रागी बाबा गद्गद हो जाते. ठेठ कुमाऊॅनी भाषा में उनका चुनावी भाषण शुरू होता, उपस्थित श्रोता (अधिकांश लड़के) बीच-बीच में तालियां बजाकर उनका उत्साहवर्धन करते रहते. उनके चुनावी घोषणा पत्र की दो बातें मुख्य थीं – पहला यह कि सारी लड़ाई कुर्सी की है और यदि उन्हें संसद तक भेजा गया तो वे संसद की सारी कुर्सिंया हटवाकर संसद के अन्दर दरी बिछायेंगे और यदि ही नहीं रही तो झगड़ा किस बात का. उनकी दूसरी घोषणा होती पहाड़ों तक रेल लाने की. यह बात दीगर है कि उन्होंने सचमुच में रेल कभी अपने आँखों से देखी भी थी या नहीं, कोई नहीं जानता था. फिर शरारती लड़के उनको आगे करते हुए माल रोड पर रोड शो निकालते हुए नारे लगाते – “रागी बाबा जिन्दाबाद”, और “जीतेगा भई जीतेगा रागी बाबा जीतेगा”. रागी बाबा अपने व्यापक जन समर्थन पर गदगद् हो जाते और उनके गिने-चुने दो-तीन लंबे से दांत हल्की मुस्काराहट के साथ होंठों से बाहर निकल आते.

लगभग इसी तरह की सोच को लिए हुए एक इन्सान और हुआ करते थे, जिन्हें लोग ’बाल किशन अण्डे वाला’ के नाम से जानते थे. यों तो मल्लीताल में नयना बुक डिपो के आगे तिरपाल डालकर वे पुरानी किताबें बेचा करते, जिनमे पुराने उपन्यास, कहानी, कामिक्स व धार्मिक पुस्तकें रहती, लेकिन चुनाव का सीजन आते ही वे भी दावेदारी कर ही देते. लम्बी चैड़ी कद काठी, आंखों में मोटा चश्मा और गंजे सिर पर बड़ा सा हैट. नामांकन के समय प्रस्तावक व अनुमोदकों के अलावा बाकी काम व स्वयं करते. पर्चे छपवाने से लेकर, उन्हें बांटने व गले में छोटा लाउडस्पीकर बांध कर सड़कों पर अपना प्रचार तक. हां, चुनाव के दौरान उनकी बीवी स्वयं दुकान संभालकर उनका सहयोग अवश्य करती.

इसी परम्परा के राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान बना चुके ’धरती पकड़’ का स्मरण भी सहज हो आता है, जो राष्ट्रपति पद के लिए दावेदारी ठोकने से भी नहीं चूकते थे. यह वाकिफ होने के बाद भी कि उनका चुनाव जीतना संभव नहीं, उनका इस तरह की दोवदारी लोकतंत्र की खूबसूरती को भी बयान करता है और खामी को भी. खूबसूरती इसलिए कि एक अतिसामान्य व्यक्ति भी सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक जाने का हकदार है और खामी ये कि भारतीय लोकतंत्र को एक तमाशा बनाने की नाकाम कोशिश है.

नैनीताल का जिक्र हो और मोहन दा का जिक्र ना हो, कुछ अधूरा ही लगेगा. मोहन दा या जिसे प्यार से लोग मोहनिया भी पुकारते, नैनीतालवासियों की यादों का अभिन्न हिस्सा बनकर कुछ माह पूर्व चल बसा. सिर पर कनछोपी टोपी या कैप, लम्बा सा कोट या पुरानी सी जैकिट, जिसकी जेबे उनमें भरे सामान से सदा झुकी झुकी रहती, कन्धे पर एक मैला सा झोला,  जिसमें उसकी प्रिय बांसुरी हुआ करती और साथ में एक हुड़का. फलैट्स से लेकर नगरपालिका भवन के आगे की सीढ़ियों पर अथवा माल रोड में ठक-ठक अपनी लाठी से रास्ता खोजता मोहन दा कहीं भी दिख पड़ता. “ऊ-ऊ” ही उसका संबोधन भी होता और अभिवादन भी. नैना देवी मन्दिर में आरती के समय उसकी नियमित उपस्थिति तथा नगाड़ा बजाना उसकी दिनचर्या का हिस्सा भी थी और देवी माँ के प्रति समर्पित भक्ति भी. जन्मान्ध होने के बावजूद तल्लीताल माल रोड पर यातायात के बीच उसका स्वयं को वाहनों व लोगों से बचाकर रास्ता खोज लेना उसके ही बूते की बात थी. न किसी से शिकवा न शिकायत, बस अपनी ही धुन में रमे रहना और कभी मन करे तो पहाड़ी गाने की धुन पर बांसुरी की तान छेड़ देना. नैनीताल वासियों का प्रिय मोहन दा जब दुनियां छोड़कर गया तो परिवारिक सदस्यों का अभाव तब भी उसे नहीं हुआ, शहर के ही कुछ सहृदय लोगों ने चन्दा इकट्ठा कर चित्रशिला घाट रानीबाग में उसकी अन्त्येष्टि कर अपना प्यार जताया.

“वृदांवन बिहारी, रखियो लाज हमारी’’ की कातर पुकार भी आपने नैनीताल शहर से सटे शेर का डांडा, लोअर चीना माल, अयारपाटा तथा कलक्ट्रेट के इलाकों में अवश्य सुनी होगी. यदि आप अस्सी और नब्बे के दशक के नैनीताल शहर के गवाह रहे हों. यह कोई साधु महात्मा या धार्मिक किस्म का भक्त टाइप नहीं बल्कि सीधा सादा 20-25 की वय का पहाड़ी ग्रामीण था, जो अपना घर सतराली के पास पनेरगांव बताता था. यों तो फेरी वाले अपने सामान बेचने के लिए तरह तरह के लच्छेदार शब्दों का इस्तेमाल कर सामान का प्रचार प्रसार करते ही रहते हैं, लेकिन ये लड़का इस कारण सबसे अलग था कि अपने सामान का नाम लिये बगैर ही जब भी किसी के कान में यह स्वर गूंजता तो वह समझ जाता कि मूंगफली बेचने वाला यह लड़का उनके मुहल्ले में धमक चुका है. ईश्वर के नाम स्मरण के साथ मुफत का मूंगफली का प्रचार करने का उसका ढंग भी अपने तरह का नायाब था.

नैनीताल के इन्हीं अजीबोगरीब चरित्रों के बीच एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो मुंह से कुछ बोले बिना ही बहुत कुछ कह जाते और अपने चुटीले अन्दाज से लोगों को सोचने को मजबूर कर देते, बता सकते हैं वो कौन थे? जी हाँ – ठीक समझा आपने, नैनीताल के अवस्थी मास्साब. नाम शरत चन्द्र अवस्थी लेकिन लोग अवस्थी मास्साब के नाम से ही उन्हें जानते. स्थानीय लोग भले ही उनके इस चरित्र से अच्छी तरह वाकिफ थे, लेकिन सैलानियों के लिए वे किसी कौतूहल से कम नहीं थे. मास्साब को दूर से देखते ही लोग उत्सुकतावश उनकी छाती पर टंगे पोस्टर की ओर नजर गड़ाए इन्तजार करते, न जाने आज कौन सा संदेश लेकर आये हैं. पोस्टर क्या होता – किसी पुराने कार्टन के गत्ते अथवा किसी कार्डबोर्ड पर हस्तलिपि में लिखा मजमून, जिसे किसी डोरी के सहारे गले में लटकाया जाता और कभी प्रासंगिक खबरों की अधिकता होती तो पीठ की ओर भी दूसरा गत्ता लटका रहता. एक प्रतिष्ठित विद्यालय, सी. आर. एस. टी. कॉलेज के अंग्रेजी के अध्यापक होने के बावजूद उनको इसकी परवाह नहीं रहती कि कौन उनके बारे में क्या सोच रहा होगा? चेहरे पर हल्की मुस्कान बिखरते वे मल्लीताल बाजार से होते हुए तल्लीताल तक का चक्कर लगाते. इन पोस्टरों के चुटीले व्यंग्य कभी-कभी तो इतने दुरूह भी होते कि समझने के लिए दिमाग को जोर देना पड़ता और यदि आप समाचारों से अपडेट नहीं है, तो समझ से परे भी होते. उस समय रेडियो तथा अखबार ही  समाचारों के माध्यम हुआ करते, कभी आप रेडियो पर समाचार नहीं भी सुन पाये तो उनके पोस्टर का मजमून, समाचार जानने को आपको बाध्य करता. किसी संगठन अथवा राजनैतिक विचारधारा से उनकी प्रतिबद्धता नहीं थी, जो समाचार उनको अन्दर तक झकझोरता, व्यंग्य रूप में पोस्टर के कैनवास पर आकार ले लेता. उनके पुत्र आशुतोष अवस्थी, स्नातक कक्षाओं में डीएसबी कालेज में सहपाठी रहे, लेकिन मुझे ये बहुत वर्षों बाद पता चला कि वे अवस्थी मास्साब के सुपुत्र हैं. वर्ष 2009 में नैनीताल में युगमंच तथा जनसंस्कृति मंच की ओर फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया था, जिसमें अवस्थी मास्साब के पोस्टरों की भी एक प्रदर्शनी लगाई गयी थी. खैर – नैनीताल के हमारी पीढ़ी के लोग इस मौन आन्दोलनकारी को आसानी से भुला नहीं पायेंगे. 

आज के दौर में बबली भी एक ऐसा ही जाना पहचाना नाम है, जिससे कम से कम नगर का हर बाशिन्दा परिचित हैं. कहीं भी शादी समारोह हो अथवा कोई राजनैतिक अथवा सामाजिक समारोह बबली तक खबर पहुंच जानी चाहिये, बबली अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकती. कोई औपचारिक निमंत्रण की आवश्यकता नहीं बबली को और न अपरिचितों के  बीच पहचान बनाने का कोई संकोच. कितना ही विशिष्ट व्यक्ति हो, अगर सुरक्षा कर्मियों ने नहीं रोका तो बबली पास जाकर उन्हें अभिवादन करने और कैसे हैं आप? कहकर औपचारिकता निभाना उनकी आदत में शुमार हो चुका है.

नैनीताल शहर की ये सांस्कृतिक धरोहरें दिलचस्प होने के साथ साथ हमें अतीत की गुदगुदी देकर पुरानी यादों में पल भर के लिए खोने को विवश भी कर देती हैं.

भुवन चन्द्र पन्त

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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं

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