रेलिंग से गिरे अपने कपड़े लेने जब नीचे उतरी तो पहली बार देखा उन कमरों को, उनके खुले दरवाजे से. जिन्हें रोज सीढ़ियां चढ़ते उतरते देखती थी. जो उपर के कमरे और बरामदे के ही सीध में ठीक वैसे ही नीचे बने थे. तो उन गाढ़े पीले और लाल रंग की पट्टियों वाले दीवार और गाढ़े भूरे रंग के दरवाजे वाले कमरों के सामने से निकलकर वह उस जगह गयी, जहां कपड़े गिरे थे. पर क्योंकि यह पहाड़ी मकान था, कपड़े उठाने के लिए फिर इस नीचे के बरामदे की दीवार पर चढ़ना पड़ा और फिर कूद के दूसरी ओर धपाक!
(Travelogue Smita Vajpayee Kalimath)
दो बंदर अपने बच्चों समेत कपड़ों को बड़े कौतूहल से देख रहे थे. एक साहसी बच्चे ने तो बढ़कर बाँह ही पकड़ ली थी – कमीज की. तभी धरती हिली धपाक से! बच्चे ने तुरंत बाँह छोड़ी और जा कर अपनी माता बंदर के कलेजे से सट गया किंकियाते हुये. वे चारों पीछे हटे और कूदने वाले शरीर से हँसी की फुहारें छूटने लगीं.
हंसते-हंसते कपड़े समेटे गये. उन्हें फिर से धुलना होगा, इसलिए उनका गोला बना पहले बरामदे में फेंका गया और फिर उसी जुगाड़ू तकनीक से पत्थरों पर पैर जमाते, दीवार पकड़ते वापस बरामदे में धप्प!
एक बार फिर डरे सहमे या ठिठके हुए कौतुक से देखते वानर परिवार को बरामदे की दीवार पर चढ़कर देखा गया और खूब हंसते हुए कपड़ों का गोला लेकर ऊपर आया गया. अच्छा हुआ कि नीचे कमरों में कोई नहीं था उस वक्त वरना हँसी से वह भी डर जाते सारे भल मानस.
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कपड़े फिर से धोए गए, फैलाए गये. हवा थोड़ी धीमी हो चली थी अब. बरामदे में टहलते हुए वानर परिवार को याद कर हँसते हुए अपना धप्प-धप्प कूदना याद करते हुए यह याद आया कि आई थी तो टखनों में दर्द था. हफ्फ-हफ्फ कर के सीढ़ियां चढ़ती थी और अभी तो कूद फांद कर के भी दर्द नहीं है टखनों मे. मजा आ गया!
इस कूदफाँद और ऊपर आने के क्रम में सामने की छत से दो महिलाओं को अपनी ओर बड़ी उत्सुक निगाहों से देखते देखा. बरामदे में टहलते हुए दोबारा कपड़े सुखाने और टहलते हुए मैंने उनकी बातें सुनी जो वे मेरे कमरे के ठीक नीचे के कमरे में किसी बुजुर्ग से कर रही थीं. बुजुर्ग उनका कोई ससुर जैसा होता होगा ऐसा उनकी बातों से लगा. वे उसके अदब में अपने बिखरे बालों वाले माथे पर अपने तिकोने स्कार्फ को माथे और कंधे पर चुन्नी या सर का पल्लू जैसा बना लिया था. स्कार्फ का एक कोना भर सर पर सांप के फन की तरह खड़ा था. बाकी हिस्सा कंधे से आ कर आगे गले से लिपट के दूसरे कंधे से नीचे. हो गया माथे का पल्लू!
वे इसी तरह खड़ी थी दोनों गढ़वाली महिलायें. लगातार गढ़वाली में घर के किसी सदस्य के आलसी होने, काहिल होने और कूड़े की तरह पड़े होने और खुद के घर के कामों में मरे रहने की बात कर रही थीं. उनके घरों से कुकर की सीटी भी बज रही थी लगातार. बुजुर्ग वार की मर्दाना आवाज की हामी भी सुनाई दे रही थी उपर तक. चौथी सीटी पर उनमें से एक हड़बड़ाती हुई भागी, ये बताते हुए कि देखो वह वहीं पड़ा/पड़ी होगी. मगर यह नहीं कि गैस बंद कर दें. उनकी छत पर तौलिया, गमछा और मर्दाना कपड़े ही सूखते देखें मैंने हमेशा. कभी भी छत पर कोई जनाना कपड़ा नहीं सूखते देखा अभी तक.
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आज का दिन थोड़ा अन मना मगर फिर भी शांत बीत गया. बरामदे में बैठ कर नदी को देखना, सुनना, महसूसना और सामने पहाड़ के दूर कोने पर स्कूल और बच्चों को खेलते, पानी पीते, क्लासरूम में जाते देखना. इन सब को निहारती महसूसती अकेली मैं! ये मुझे एकांत का सुख दे रहा है.
इस स्वप्निल एकांत के लिए मैं दीदी को बहुत धन्यवाद कहती हूं. भास्कर मैम जो खुद को निमित्त भर करती हैं उनको भी कितना स्नेह सम्मान और धन्यवाद कहती रहती हूँ मैं मन ही मन.
मैं उन सब के प्रति प्रेम से भरी हुई हूं जिन्होंने यहां तक आने, रहने में मेरी मदद की. जिन्होने इतने उपर तक हौलनाक चढ़ाई, खतरनाक अंधे मोड़ वाली सड़क बनाई-निस्संदेह जान पर खेल कर! सुखी रहें वे मेहनकश लोग! हृदय से उनके लिये स्वस्ति कामना! उनके लिये भी शुभ कामना जो बड़े साहस और बड़ी सावधानी से गाड़ी चलाते हुये सामान और हम जैसे लोगों को यहाँ लाते हैं- स्वस्थ सुखी रहें वे सब!
आरती का समय होने वाला है. आरती में जा कर वापस आऊंगी और फिर अपने कमरे में बंद हो जाउंगी. यहां भूख नहीं लगती जाने क्यों. एक समय ही भोजन पर्याप्त है. रात को खाने का मन ही नहीं करता.
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और रात जागते ही बीत रही है. ब्रह्म मुहूर्त जिसमें जागना होता है उसी समय जा कर पलकों पर जाने कितने जन्मों की थकन टूटने लगती है. सुबह अलसाते हुए छे बजे नींद खुलती है. नींद बस इतनी ही होती है.
बाकी समय फिर वही दिनचर्या. वही स्नान, कपड़े धोना, बर्तन धोना और इसी में लगातार कितनी छोटी परिक्रमायें कमरे, रसोई और बहुउद्देशीय बाथरूम की. बाथ रुम में बेसिन नही है और नल साढ़े चार फुट उपर लगा है दीवार में. तो एक ही साथ सारा काम धोने, नहाने माँजने का कर लेना अनिवार्य है.
हर मंदिर के लिये सीढ़ियाँ चढ़ना, उतरना. भैरव मंदिर की सीढ़ियाँ गिनते हुये चढ़ना, उतरना और वापस कमरे तक आना. कॉफ़ी बनाना, पीना. नदी निहारना, सुनना और जब पेट गुड़गुड़ाये तो कुछ मैगी, ओट्स, खिचड़ी जैसा बना लेना. पर दिनचर्या अब व्यवस्थित होती जा रही है. सिवाय रातों के जागरण के.
कल चौथे दिन शाम तक मन अनमना सा रहा. जागती रातों के कारण मुँह पर सूजन हो तो पता नहीं, क्योंकि ना कमरे में कोई शीशा है ना मैं साथ में लाई हूं. रोज नहाने के बाद अनुमान से कंघी कर के नीचे उतर जाती हूं.
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रसोई में सिंक और बाथरूम में बेसिन ना होने के कारण अब एक समय का भोजन बनाना भी दुश्वार हो गया है. एक पेट का अंदाज नहीं हो पाता और बचा हुआ (मगर खराब नहीं. ठंड के कारण ) भोजन फेंकने के लिए भी कई सीढ़ियां नीचे उतर कर जाना होगा तो फिर वही भोजन पुनः अपने ही पेट में फेंकने की जहमत से अब ऊब हो गई है.
राणा जी से पता किया कि क्या कहीं भोजनालय है यहां? आस-पास मुझे तो कहीं नजर नहीं आया. तो उन्होंने फोन पर ही वीरेंद्र राणा की दुकान बताई .पर अभी नीचे मंदिर में एक घंटे बैठकर ठंड से कांपती हुई ऊपर पहुँची हूं. भारी भूख भी लगी है बाप! धूप भी आज बहुत हल्की है और वह भी अब बरामदे से जाने ही वाली है.
कॉफी बनाई, बिस्किट खा के पानी पिया और मूंगफली दाना कच्चा ही ले कर बैठी कॉफी के साथ. हड़बड़ी में और बंदरों के डर से रूम के आगे कभी स्टूल कभी कुर्सी तो कभी मूंगफली दाना, फोन लाती रही.
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ठंड इतनी लग रही थी कि बीच में ही उठी पैरों में चादर लपेटने के लिए कि खयाल आया बंदर मूंगफली के लिए कॉफी ना गिरा दे कहीं. फिर वापस हाथ में कॉफी मूंगफली लिए रूम से चादर लाई लपेटा खुद को कमर से नीचे और फिर धूप में बैठकर कॉफी मूंगफली का सुख लिया. यह अनिवर्चनीय सुख है! शब्दातीत! इसलिए कि यह मेरा चिर प्रतीक्षित सुंदर सुखद स्वर्गिक एकांत है! यही तो चाहिए था! बिल्कुल यही एकांत प्रवास!
बांग्ला साहित्यकारों की रचनाओं में ऐसे ही नदी के किनारे वाले घर होते थे जिनमें ऐसे ही बरामदे में बैठकर उनके नायक किताब पढ़ते होते थे. बेंत की कुर्सी पर या झूलती हुई आराम कुर्सी पर.
यह बहुत गलत बात है की किताबों, साहित्य में नायक ही हमेशा बैठकर प्रेम पत्र लिखें या किताब पढ़ें कहीं सुदूर पहाड़ों पर जा कर एकांत में.
एकांत हमेशा ही नायकों के लिए रखा गया और नायिकाएं बेचारी अगर पहाड़ों पर गईं भी तो वह भुवाली के किसी सैंटोरियम में गई मरने के लिए! राज्यक्षमा रोग से पीड़ित हो कर मरने के लिए! (बहुत लंबे समय तक यह रोग कहानी, उपन्यास में प्रचलन मे रहा)
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एक लंबे समय तक नायिकाओं का पहाड़ पर जाना रोगी हो कर ही होता था. (बहुत नाईंसाफी है) और नायक हमेशा पढ़ने, लिखने, सैर करने जाते थे. किताब लिखते थे. कोई-कोई प्रेम पत्र भी लिखा करते थे. शायद उन्हीं कहानियों उपन्यासों का ऐसा दृश्य मन के किसी कोने में बैठा होगा.
तो आज अपने जीवन की नायिका मैं, (अहा! ) अब जा कर इस सुंदर दिव्य एकांत को उपलब्ध हुई हूँ!
लौकिक, अलौकिक प्रेम को महसूस कर रही हूं. मगर न तो किताब पढ़ पा रही हूँ और ना ही किसी को भी कोई प्रेम पत्र लिख पा रही हूँ. आज कलम उठी भी है तो नदी के साथ बहे जा रही हूँ. बल्कि कुछ भी नहीं लिख पा रही हूँ. और सबसे अच्छी बात यह है कि मुझे जिस बात का रंज रहा वह बात अपने जीवन में मैं खुद कर पा रही हूँ यानी कि अपने जीवन की नायिका, बिना राज्यक्षमा रोग से पीड़ित हुए ना तो यहाँ मरने आई हूँ और ना ही किसी सैनिटोरियम में हूँ. बल्कि नायिका अपने जीवन के सुंदर सुखद आप्यायित एकांत को उपलब्ध हुई है! यह भाव सचमुच आह्लाद से भर रहा है!
कितना अच्छा होता कि मैं खूब ढेर सारे दिन यहाँ रहती और नदी, हवा, पहाड़ और यहां की महिलाओं पर ढेर सारी कहानियां और कविताएं लिखती. नहीं बल्कि उपन्यास लिखती. क्योंकि उपन्यास जीवन का आख्यान होते हैं और एक बृहत्तर जीवन कविता और कहानी में नहीं सिमटेगा. बल्कि सच तो यह है कि जितना अभी तक महसूस कर रही हूं उसका कुछ भी नहीं लिख पा रही हूँ. लिख ही नहीं पा रही. ऐसा लगता है जैसे कोई शब्द सम्पदा नही है मेरे पास. कुछ भी ऐसा नहीं जिससे वाक्य विन्यस्त हो. या मैं ठीक ठीक वैसा ही लिख सकूं, जैसा मैं सोच, महसूस कर रही हूँ. मेरे पास वही दो चार शब्द हैं जिन्हें में घुमा फिरा कर लिख रही हूं.
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यह तो लग रहा है कि यहाँ कुछ तो है जो अलौकिक है! कि यह दिव्य है! पर मैं इससे ज्यादा और बहुत ज्यादा महसूस कर रही हूँ. स्वतंत्रता, स्वाधीनता, उल्लास, उमंग, उससे भी ज्यादा एकदम हल्का भारहीन होने जैसी अनुभूति…
नहीं मैं कुछ भी नहीं लिख पा रही हूँ. इसे जी लिया यह कम नहीं. और अब फिर इस दिव्य ऊर्जा के लिए इस अहैतुकी कृपा के लिए मैं नतशिर हूँ प्रकृति के आगे.
मुझे कॉफी पिला कर धूप चली गई बरामदे से. और बाथरूम से पानी. जूठे बर्तन रसोई में एक तरफ रखा उसका कुंडा लगाया और अपने रूम का कुंडा लगाकर नीचे उतरी आज दिन में ही.
राणा जी की बताई जगह पर गई भोजन का पता करने तो देखा वहाँ भोजनालय तो नहीं था अलबत्ता तेल की शीशी, रूई की बत्तियों और इलायची दाने के पैकेट थोक में रखे थे. एक व्यक्ति गढ़वाली में कोई गीत गा रहा था अपने फोन पर नजर गड़ाए हुए. पूछने पर पता चला कि यही है वीरेंद्र सिंह राणा जो भोजन भी बनाते हैं.
कहाँ? फिर उन्होंने बताया कि कहां आना है. और मैं क्या और कब खाना चाहूंगी. कमरे में भी पहुंचा देंगे कहने पर. उनका फोन नंबर लेकर आगे बढ़ी कि आज जब दिन में उतरे हैं तो कुछ घूमा, देखा जाए.
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आगे चूड़ी-बिंदी-सिंदूर-चुन्नी-पर्स की एक छोटी सी दुकान थी जिसके ठीक सामने से घंटियों वाला लोहे का पुल शुरू हो जाता था. वहां दो-तीन हर उम्र की महिलाएं बैठी थी. उनसे बात की तो पता चला कि यहां कालीमठ में दो स्कूल हैं. इंटर तक स्कूल है. मेडिकल की प्राथमिक सुविधाएं सीधे गुप्तकाशी में हैं यहां नहीं. आपदा प्रबंधन वाले चिकित्सालय जिसे रोज मैंने बंद ही देखा था, में बुखार की गोली मिल जाती है. खुलता है कभी-कभी.
चोट चपेट हादसा में क्या करते हैं आप लोग? गुप्तकाशी नहीं तो उखीमठ.
जचगी.
गुप्तकाशी.
आपके कितने बच्चे हैं? नॉर्मल डिलीवरी?
नहीं सिजेरियन
गुप्तकाशी?
उखीमठ
गुप्तकाशी में सर्जरी वाली सुविधा नहीं है. लड़की के सिजेरियन कहने पर अच्छा लगा था उच्चारण सही था.
कहां तक पढ़ी हो आप
इंटर
और ये दुकान
मेरी है.
पास वाली महिलाओं से उनकी पढ़ाई पूछा तो वह हंसने, मुस्कुराने, शर्माने लगीं. मैं समझ गई जिंदगी की पाठशाला में उतारी गई हैं बिना स्लेट, पन्ना, कलम के. पर वहां बैठी महिलाओं के चेहरे बता रहे थे कि उन्होंने मनुष्यता की पढ़ाई तो पढ़ी ही हुई है.
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विनीता की दुकान से आगे मैं पुल की घंटियां बजाती यहां के छोटे से बाजार को निकल गयी. मंदिर से सड़क पर आते ही कतार से पूजा की दुकानें हैं. उन्हीं में से एक दुकान पर उस महिला को देखकर मैं चौक गई जिसकी पिछली शाम मैंने फोटो ली थी. उनके पीछे की टोकरी देखकर पूछा भी था इस टोकरी का गढ़वाली में कुछ तो बताया था भला सा नाम, याद नहीं आ रहा. उस टोकरी का क्या करते हैं तो पता चला कि घास उपले, लकड़ियां ऊपर जंगल से लाते हैं घर के लिए.
आप वही है ना जिसकी मैंने कल फोटो ली थी.
हां.
क्या नाम है आपका.
(चहक कर) लक्ष्मी.
कितने तक पढ़ी है.
आठवीं.
जो सर में स्कार्फ सा बाँध रखा है इसे क्या कहते हैं आप लोग.
परांदा है.
परांदा? परांदा तो आज तक मैं काली लाल डोरे के फुदने वाली तीन लड़ी की चोटी को जानती थी. गाना भी है ‘काली तेरी गुत्त ते परांदा तेरा लाल नी’
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यहां तो यह गजब का परांदा है. कॉफी और दूध कहां मिलेगा तो लक्ष्मी ने बगल की दुकान बताइ बल्कि बिना किसी भी ईर्ष्या, प्रतियोगिता भाव से, मुझे ले जा कर वहाँ खड़ा कर दिया.
वहीं मिली मुझे यह प्यारी लड़की मीनाक्षी. जो नीचे ऋषिकेश के कॉलेज में बी एस सी की पढ़ाई कर रही है. दुकान उसकी भी वही चुन्नी और पूजा की थाली वाली थी. शिक्षा से जुड़कर, आधुनिकता को देखकर समझ कर भी यहाँ का हर व्यक्ति अपने-अपने यथार्थ के साथ है – अपनी मौलिकता में!
लक्ष्मी देवी आठवीं पास इंस्टा पर, फेसबुक पर हैं. विनीता राणा भी. मीनाक्षी बी एस सी फाइनल ईयर की छात्रा अपनी दुकान संभालने में कोई शर्म नहीं कर रही. वीरेंद्र राणा एम ए इंग्लिश लिटरेचर – पूजा के सामान की दुकान है. और यात्रियों के लिए भोजन स्वयं बनाते और खिलाते हैं.
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आज और भी कई महिलाओं से मिली जैसे आज का दिन महिलाओं का ही रहा. सोचते हुए पुल पर वापस लौट रही हूँ. भूख भी लग गई है और समय भी हो गया है भोजन का.
जारी…
बिहार के प.चम्पारन में जन्मी स्मिता वाजपेयी उत्तराखंड को अपना मायका बतलाती हैं. देहरादून से शिक्षा ग्रहण करने वाली स्मिता वाजपेयी का ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. यह लेख स्मिता वाजपेयी के आध्यात्मिक यात्रा वृतांत ‘कालीमठ’ का हिस्सा है. स्मिता वाजपेयी से उनकी ईमेल आईडी (smitanke1@gmail.com) पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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