केशव भट्ट

दारमा घाटी में घरों के बीच का रास्ता स्वप्नलोक जैसा लगा

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पिछली कड़ी : दांतू गांव तक का सफ़र

खाना बनते-बनते अंजू से बातचीत होने लगी तो उसने बताया – सीपू में बारह साल में बड़ी पूजा होती है, दुग्तु में चार साल में और दातु गांव में आठ साल में बड़ी पूजा होती है. दातु गांव में जब आठ साल में पूजा होती है तो आठ बकरियों का चढ़ावा दिया जाता है. हां इस बीच कई लोग अपनी पूजा व्यक्तिगत भी करते हैं. दद्दा ऐसे ही चल रहा ठैरा यहां तो. अब जब टूरिस्ट आते हैं तो गांव में भी रौनक हो जाती है. हमारे भी दिन कट जाते हैं कुछ कमा भी लेते हैं. साल में छह महीने यहां रहते हैं. तब धारचूला से गांव के सोलह परिवारों का साथ ही आना होता है. बाद में अक्टूबर-नवंबर के महीने में नीचे जौलजीवी में रहने के लिए चले जाते हैं. यहां तब बहुत बर्फ पड़ने वाली हुई और राशन की भी दिक्कत हुई. हमारे पूर्वजों ने तो अपने वक्त में जाड़ों में भी यहां रहने के कई तरीके अपनाए थे, तब के समय में तो उनका जीवन भी बहुत कष्टमय हुआ, लेकिन अब थोड़ी बहुत सुविधा हो गई है तो नीचे चले जाते हैं. वैसे मन तो हमेशा यही शांत वादियों में ही रमने वाला हुआ.
(Darma Valley Travelogue Keshav Bhatt)

यहां का प्रसाद लेंगे आप लोग? घर की बनी है, अंजू ने अचानक ही पूछा तो हरदा ने मुस्कुराते हुए हामी भरी. अंजू ने उन्हें एक बोतल घर की बनी च्यक्ती पकड़ा दी. मैंने हरदा को घूरा तो वह बोतल से च्यक्ती को गिलास में उड़ेलकर चुस्कियां लेने में मशगूल हो गए. धारचूला से आते वक्त हरदा ने गाड़ी की डिक्की में पड़ी बोतल की ओर इशारा कर पूछा, “इसे ले चलें.” इस बार यह यात्रा बिन इसके ही करेंगे तो सही रहेगा, कहकर मैंने मना कर दिया. इस पर हरदा ने, ठीक है कहा और गाड़ी की डिक्की बंद कर दी. अब यहां वह मजे से च्यक्ती की चुस्कियां लेने में लगे हैं. दूसरी बार उन्होंने ये उपक्रम किया तो मेरा मन भी डगमगा गया. “हरदा यह ठीक नहीं है. आप मन ही मन अकेले में चुपचाप चुटकले का मजा ले रहे हैं और बाकी जन खामोश हैं.” हंसते हुए हरदा ने एक गिलास में च्यक्ती भर मेरे आगे सरका दी. यह सब देख अंजू भी खिलखिला उठी.

दांतू गांव

बातचीत में अंजू ने बताया कि उसका मायका व्यास घाटी के गुंजी गांव में है. शादी हुए चार साल हो गए हैं. सब्जी बन कर तैयार हो गई थी तो अंजू ने फटाफट गर्म रोटियां सेंक थालियों में पसकनी शुरू कर दीं. दिनभर की थकान के बाद भोजन बहुत ही स्वादिष्ट लग रहा था. भोजन के बाद अंजू को धन्यवाद देकर हम कुटिया में समा गए. रात में पंचाचूली ग्लेशियर की तलहटी में बसे गांवों में बर्फीली हवा ने तापमान गिराना शुरू कर दिया तो कंबल में खुद को लपेट सो गए.

भोर में “भट्टजी बाहर तो आओ… देखो पंचाचूली का क्या नजारा है!” हरदा की पुकार सुनकर कंबल छोड़ हड़बड़ाहट में बाहर आया तो पंचाचूली को देख मैं अंदर कैमरा लेने भागा. ऐसा लगा जैसे सूर्य की किरणों में पंचाचूली स्नान कर रही है. काफी देर तक हमें इस नजारे को आँखों से आत्मसात करते देख एक बुजुर्ग बोले, “यही सब तो हम लोगों को यहां रहने के लिए खींच लाने वाला हुआ, वरना परेशानियां तो बहुत हुई यहां.” अंजू तब तक चाय ले आयी. बातचीत से पता चला कि ये अंजू के बड़े ससुर दरबान सिंह दत्ताल हैं, वर्षों से जड़ी-बूटी को सहेजकर वो जरूरतमंदों तक पहुंचाते हैं. बातचीत में जब उन्हें पता चला कि हम बागेश्वर से हैं तो बड़ी आत्मीयता से उन्होंने बताया कि उत्तरायणी मेले में हर साल जड़ी-बूटी लेकर वो बागेश्वर में व्यापार के लिए आते रहते हैं.
(Darma Valley Travelogue Keshav Bhatt)

“नाश्ते में क्या बनाऊं?” अंजू ने पूछा तो हरदा ने मात्र एक और चाय के लिए कह दिया. चाय पीने के बाद रकसेक को पीठ के हवाले कर सड़क में पहुंचे तो एक मालवाहक जीप मिल गई. ड्राइवर साहब ने बताया कि तिदांग से पहले तक सड़क है तो वहीं माल छोड़ने जा रहा हूं. उनकी बात सुनते ही हम ड्राइवर के बगल की सीट में समा गए. कुछेक बुजुर्ग जीप के पीछे सामान के ऊपर सवार होने लगे तो मैंने बाहर निकलने के लिए दरवाजा खोला ताकि वे अंदर आराम से बैठ सकें. इस पर ड्राइवर साहब बोले, “अरे.. आप बैठो. यहां सबको आदत होती है इस सबकी और फिर मजबूरी भी हुई.”

दातु गांव को पीछे छोड़ कच्ची सड़क में जीप ने ढाकर गांव की ओर रेंगना शुरू कर दिया. ढकरियाल लोगों के ढाकर गांव के पास सर्पीली सड़क आगे तिदांग से पहले तक बनी है. आईटीबीपी चेक पोस्ट के पास जीप रुकी तो हमने पोस्ट में अपने परिचय पत्र दिखाए. पोस्ट पर तैनात जवान ने एक रजिस्टर में नाम नोटकर हमें मुस्कुराते हुए विदा किया.

सामने दूर तक फैला तिदांग गांव दिख रहा था. नीचे धौलीगंगा में बने पुल तक उतार था. दारमा घाटी पूर्व में कुटी यांग्ती और पश्चिम में लस्सार यांग्ती नदियों की दो अलग-अलग घाटियों के मध्य में है. यहां नदी को उसके नाम के बाद यांग्ती कहा जाता है. धौलीगंगा के भी कई उप नाम हैं, दारमा नदी, दारमा यांग्ती और धौलीगंगा. इस नदी का उद्गम भारत तथा तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र, चीन की सीमा के पास स्थित डवे नामक जगह से है. आगे यह नदी दारमा घाटी से होकर तवाघाट में काली नदी में मिल जाती है.
(Darma Valley Travelogue Keshav Bhatt)

नीचे एक जगह जियो का विशालकाय निर्माणाधीन टावर दिखा. उसी के किनारे एक जगह ढाबेनुमा दुकान नजर आयी तो हम वहीं को हो लिए. चाय के साथ बिस्कुट का नाश्ता हो गया. साथ चल रहे दारमा निवासियों ने अपनी पोटली निकाल ली. पराठों के साथ अचार का गजब का कॉम्बिनेशन दिखा. उन्होंने हमें भी उनके साथ शामिल होने को कहा लेकिन तब तक हम दो-दो चाय के साथ बिस्कुट का भंजन कर चुके थे तो उन्हें प्रेम से धन्यवाद देकर नीचे धौलीगंगा की ओर बढ़ चले.

दारमा घाटी में तवाघाट से ढाकर तक लगभग 65 किलोमीटर सड़क गांव से जुड़ गई है लेकिन अभी भी दो गांव मार्छा और सीपू के लोगों को चार से आठ किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. हमारे लिए यह पदयात्रा मजेदार होती है, लेकिन यहां के वाशिंदों के लिए बहुत ही कष्टमय है. पुल पार करने के बाद तिदांग गांव अब सामने दिखने लगा था. तिदांग गांव की तलहटी को लस्सार यांग्ती के साथ ही धौली यांग्ती में आई बाढ़ ने तबाह कर दिया है. इसे रोकने के लिए कुछ किया नहीं गया तो यह गांव कहीं इतिहास के पन्नों में शामिल न हो जाए.

कुछ देर बाद आगे मखमली रास्ता आ गया. रास्ते के दोनों ओर जुनिपर की झाड़ियों के साथ अन्य जड़ी-बूटियों की महकदार खुशबू ने मन मोह लिया, तो हम खुद को वहीं बुग्याली घास में पसरने से रोक नहीं पाए. पीछे सीपू गांव के छूटे साथी भी आ गए थे. उनकी चाल में गजब की तेजी दिखी. होगी भी क्यों नहीं! बचपन जो उनका यहीं बीता ठैरा!
(Darma Valley Travelogue Keshav Bhatt)

कुछ पल हिमालय के साथ बादलों की आँख मिचौली देखी तो बारिश का अनुमान लगा उठ खड़े हुए और तेजी से आगे का रास्ता नापना शुरू कर दिया. मार्छा गांव दिखाई देने लगा था तो चाल में और तेजी आ गई. एक बात तो यहां है चाहे दारमा हो व्यास घाटी, यहां के हर गांव में बहुत ही खूबसूरत प्रवेश द्वार देखकर लोगों की आत्मीयता का भान हो जाता है. मार्छा का प्रवेशद्वार भी कुछ ऐसा ही लगा.

मार्छा गांव

गांव में घरों के बीच का रास्ता स्वप्नलोक जैसा लगा. एक जगह युवा पीढ़ी मोबाइल में व्यस्त दिखी तो हरदा और मैंने अपने मोबाइल फोन को निकालकर देखा, उसमें सिग्नल नहीं थे. पूछने पर पता चला कि यहां हर गांव में वी-सेट के डिश लगे हैं जिससे इंटरनेट की सुविधा मिलती है. नेटवर्क का पासवर्ड उन्होंने हमें भी तुरंत दे दिया लेकिन दस से ज्यादा मोबाइल वहां पहले से ही चल रहे थे तो हमारे मोबाइल खामोश ही रहे. कुछ पल वहां बिताने के बाद आगे सीपू गांव की पगडंडी नापनी शुरू की. नदी के किनारे-किनारे बने रास्ते में आगे पुल से पहले दो राहा मिला. एक चौड़ा रास्ता चढ़ाई की ओर था और एक संकरा सीधा था. पल भर ठहर कर अनुमान लगा ही रहे थे कि ऊपर से कुछ घोड़े-खच्चर आते दिखे. भूस्खलन से नीचे का रास्ता उनके लिए खतरनाक हो गया था तो बाद में ऊपर का रास्ता बना लिया होगा. लकड़ी के पुल को पार करने के बाद अब खड़ी चढ़ाई सामने थी. रास्ते के दोनों ओर भोजपत्र का घना जंगल मिला तो रकसेक किनारे रखकर कुछ देर रास्ते के किनारे एक बार फिर से पसर गए.

“इतनी परेशानियों के बावज़ूद भी ये पदयात्राएं इतनी मीठी क्यों लगती हैं?” लेटे-लेटे हरदा ने सवाल दागा तो मुझे उनकी बात सही लगी. लेकिन हिमालय का ये मीठा आकर्षण ही है जो बार-बार हमें इन दुर्गम घाटियों की ओर खींचता है. तमाम परेशानियों के बाद मुकाम पर पहुंचने पर जो खुशी मिलती है उसे शब्दों में कोई कैसे कोई बयां करे.

नीचे से कुछ और लोग सीपू गांव की पूजा में शामिल होने को आते दिखे तो हमने अपने रकसेक पीठ के हवाले कर चढ़ाई नापनी शुरू कर दी. भोजपत्र वन के बीच चलते हुए घुमावदार चढ़ाई खल नहीं रही थी. आधे घंटे बाद गांव दिखने लगा. गांव के प्रवेश द्वार के दोनों ओर डॉ. रतन सिंह सिपाल और उनकी पत्नी लीना सिपाल के पारंपरिक वेश-भूषा वाली फोटो के कटआउट स्वागत करते दिखे. आगे पंचायत भवन के बरामदे में महिलाएं-बच्चियां नाच-गाने की रिहर्सल में झूम रहे थे. अचानक सरिता सीपाल की नजर हम पर पड़ी तो वह दौड़ते हुए आ गई. खुश होते हुए वह बोली, “दद्दा मुझे भरोसा था कि आप जरूर आओगे.” गलियों से होते हुए सरिता हमें अपने घर ले गई. आंगन में बैठी अपनी मॉं से उसने हमें मिलाया. चेहरे में अनुभवों की गहरी झुर्रियां लिए हुए सरिता की मॉं बहुत ही ममतामयी महसूस हुईं. उन्हें बाल मिठाई का डिब्बा थमाया तो डिब्बे में छपी गुंजी के ग्रामीणों की पारंपरिक भेष-भूषा में फोटो देखकर चिंहुकते हुए उन्होंने उंगली से कुछ को पहचान भी लिया. सरिता की मॉं के चेहरे से वात्सल्य टपक रहा था.

सीपू गांव

सरिता ने हमें अपने रकसेक घर के अंदर रखने को कहा. आंगन में जूते उतारकर हम दोमंजिले में सीढ़ीयों के किनारे भकार के सहारे अपने पिट्ठू टिकाकर बाहर आंगन में आ गए. अंदर मेहमानों के सामान के साथ ही घर के सामान से कमरा भरा दिखा.
(Darma Valley Travelogue Keshav Bhatt)

जड़ी-बूटियों से मिश्रित चाय के दो बड़े गिलास हमारे हाथों में पकड़ाते हुए सरिता ने बाहर आंगन के पीछे की ओर एक टूटे घर को दिखाते हुए उदास स्वर में बताया, “यह हमारा पुराना घर है, कल रात की बारिश में इसकी छत टूट गई. वह तो अच्छा रहा कि कल ही इस नये घर की लिपाई-पुताई के बाद हम सभी यहां आ गए थे.”

जारी…

बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

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