हर ऋतु में अपने गीत हैं. खट्ट से आस पास से कई अलंकार समेट फूट पड़ते हैं. मेले ठेले में, पर्व में, कौतिक में, संक्रांती में, कर्मकांड में, ब्रत में, समारोह में, अनुष्ठानों में, त्योहारों में. कभी कहावत बन सुनाई देते हैं कभी गाथा में गूंजते, आमा की बाटुली लगने पे याद आते. तो ईजा कैंजा की थपकियों के साथ उभरते. ढ़ोल मजीरे के साथ, हुड़के की थाप के साथ, मसकबीन भी. दमुए ढ़ोल के दगडुआ बनते,गूंजते. ढ़ोल सागर की गढ़वाल में अलग ही चौल बनी. Traditional Folk Songs in Uttarakhand
तीन ऋतुएं रूड़, चौमास, ह्यून. फरकता मौसम. फिर उस इलाके के पेड़- परबत, गाड़ -गधेरे, जंगल -बुग्याल, रीति -रिवाज का आयना बनते गीत, सबके मुंह से फूटते. तोतले स्वर भी और पोपले भी. परंपरा बनाते, संस्कार सिखाते.चले आए. बालगीत, व्रत- त्यौहार -देवी देवता वाले गीत, हर ऋतु में गाए गए , खेती किसानी की खुरबुर में, सोलह संस्कारों में, शकुनाखर में, मुक्तकों में. बर्फ ढकी चोटियों तक पुकार गई.
न्यौली बसो न्यौली धुरा कफुआ धुरा धुरा.
स्वामी जै रई नेपालापन, मेर पराणा झुरा.
तिमुली का पतों भै लेनी हाथ नि धौकी दी आई.
कठिन काटण है गई पुसकि रात.
समूह में दो भागों में बंट के जोड़ा बना और या फिर हाथों को जोड़, गोला बना, घेरा बना गाते, नाचते ‘झोड़ा’. जिसे ‘झवाड़ा’ या ‘झवाड ‘भी कहते तो नेपाल में ‘हथज्वाड़ ‘या ‘हथजोड़ा’. वहीं तरंग में, त्वरा में, क्षिप्र चाल या गति से गायी और नाच में बांधती है “छपेली “.सांसों में गति, आरोह-अवरोह.
हल्द पिसो मिर्च पीसो राई छाणो रैत माँ.
सौ रूपेँ कि साड़ी पैरी लटकि रेछे मैत माँ.
धान की रोपाई है रै लटकि रैछे मैत माँ
मडुवे गोड़ाई है रै लटकि रैछे मैत माँ.
वह गीत भी हैं जो जगाते हैं दम भरते हैं. बुराई को छोड़ने की बात करते हैं.नई पौंध, नई बात, नये बोल वचन. ये ‘आह्वान’गीत बने .
पहाड़ा का जवाना अब कैंकणि जागी रौछा.
चाय बीड़ी अत्तर छोड़ो जुवा रे शराबा.
आपस में बैर छोड़ो, बैर छै खराबा.
वहीं नये गीतों की अवली भी, जिसे कहा गया नवेली. यहाँ प्रीत है जिसकी संन्धि में कामिनी है. दूसरी ओर यह एकदम नयापन समेट कर उभरा गीत है. नवल. तो वह पहाड़ी कोयल भी जो विरह में पिया के बिन घने जंगल में झुरती रहती है, रोती है, सिसकती है
निंगैले निंगेले मणि, आं ख्यूं मां ज रिटी रे छै
रिठु कसि दाणी, मधुली हीरा हीरा मधुलि .
अब सामने हैं गीत के साथ नाच जिसमें बनता है घेरा. गोल गोल घूमते इस घेरे को कम करते चलते हैं सधे कदम. ‘चंचरीक’ से निकल पड़ी चांचरी, चांचड़ी या फिर चांचुरी. गोल गोल घूमते आगे बढ़ते. धीरे को कम करना चंचरीक की तरह. बताया गया कि यह बहुत पुरातन नाच शैली है.
गीत गाते, सवाल जवाब करते. एक दूसरे पर भारी पड़ते. खंडन -मंडन करते. ‘बैर’गूंजते हैं. तो पूस के पहले इतवार से. बैठी होली जिसका अपना लम्बा शास्त्र और विधान है. खड़ी होली में नाच भी है और गान भी. लय ताल थिरकन सब कुछ बंधा. Traditional Folk Songs in Uttarakhand
हर संस्कार पर मंगल गीतों की धूम है. ये शकुनाखर कहे गए. गणेश जी से ले रामीचन्द तक. तमाम देवी द्याप्तों की स्तुति उनकी गाथा के साथ. पर्व विशेष की बारीकियों तक जाते फाग. शादी ब्याह में वर और ब्योली के पूरे कुटुंब की हास परिहास भरी उपेक्षा कर ताना मार माहौल को हल्का फुल्का बना देने वाले. ये सब संस्कार गीत.
गढ़वाल के मंगल गीतों में मांगल, आह्वान, जन्म, चूडाकर्म और शादी -ब्याह के गीत हैं. शिशु जन्म, जनेऊ, ब्याह शादी में गाए गए. मांगल गीतों में भगवान की स्तुति, मंगल आशीष, और आशीष के स्वर गूंजे देव शक्तियों को निमंत्रित करने के लिए आह्वान गीत गाये गए तो जन्म संस्कार में ‘न्यूतणी ‘. चूड़ाकर्म में पंडित बालक के केशों को गूंथने पर ‘मँगत्यानी ‘के स्वर शिशु के लिए आशीष मांगते:
दूध धीया धीया माया ये बाल गणेश जी न्यत्या.
दूध धीया धीया मय ये बाल सीता देवी न न्यूता.
कहा गया कि संतति के केशों को दूध और घी से गनेश जी, सीता माता ने, देवताओं ने मलास दिया. यह संस्कार ‘जड़वानी ‘ भी कहा गया. ब्याह शादी पर गाये जाने वाले गीत ‘रेमी’, ‘गाथा ‘, ‘नारिशंसी’ कहे गए. इस शुभ काज पर सबसे पहले कूर्म देवता का आवाहन किया गया, फिर धरती माता का, भुम्याल का, पंचनाम देव में पूजे गए गनेश जी, सूर्य भगवान, शिवजू, विष्णुदेव और स्तुति कि गई पितृ की.
वर -वधू के ‘वंदयू’ यानि मंगल स्नान पर सुहागिन औरतों ने दूर्वा या दूब के गुच्छों को दही में भिगा उनके पाँव छुवे. मँगत्यांणी ने गीत गाये. कन्यादान और सातफेरों में मंगल गीत गाये.
फसल में रुपाई के बखत मिलन के भाव ‘चौंफला’ गीतों में उभरे. जहां रति, हास, मनुहार और अनुनय है. समझा गया कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की भावना है इनमें. इसीलिए चौंफला कहे गए. तो ‘झुमैलो’ गीतों में औरत की पीड़. बसंत के आने पर इनके स्वर उभरे. जब सब तरफ बहार है, मस्ती है.
‘छोपती’ गीतों में संग संग गोल घेरे में नाचा गया, गाया गया. बैठ कर गाई गायी ‘लामणी ‘.अपने पूरे निखार में सजी प्रकृति के स्वागत में बसंत पंचमी से बिखोत या विषुवत संक्रांति तक ‘बासंती’ गायी गायी. बिखोत के दिन बच्चों ने घर घर जा द्वार पर देहरी में फूल डाले. होली पे होरी गीत गाये गाये. लकड़ी काट छरोली के दिन जलाई गई.
चौमास के गीत भी विरह से भरे. परदेश गए प्रीतम की याद और बरसात का मौसम ‘चौमासा’ में उभरा. चैती गीत चैत में गाये गए. पहले ‘औजी’ अपनी औरतों के साथ घर-घर जा चैती गाते और उनकी औरतें नाचतीं. प्रेम, मिलन, विरह, वियोग का मिला जुला संगम खुदेड़ गीत कहलाते. बाजूबंद गीत जंगल में गाये जाते. जब जंगल गए औरत मर्द अपना काम निबटा थकान दूर करते पेड़ों की छाँव तले. संवाद करते गाते. Traditional Folk Songs in Uttarakhand
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के नियमित लेखक हैं.
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