Featured

कृपया इधर-उधर थूकें अर्थात कला का सुधारवादी आन्दोलन

लिखना बेशक एक कला है. विद्या है. इसमें प्रतिभा के साथ-साथ कड़े अभ्यास की भी ज़रूरत होती है. कई जानकार मानते हैं कि लेखन में नियमित अभ्यास का बड़ा ही महत्व है और यह बड़ा ही मुफ़ीद होता है. और कुछ न सूझे तो सोने से पहले दिन भर का अपना खाया-पीया, रोया-गाया ही लिख मारो. उँगलियों को कलम पकड़ने की आदत बनी रहती है. कुछ लोग इस अभ्यास को इतना साध लेते हैं कि ‘म्यान से बाहर अगर तलवार निकली तो खून पिए बिना अन्दर नहीं जाएगी’ की तर्ज़ पर अगर गलती से भी कलम उनसे छू जाए तो कुछ न कुछ लिख ही डालते हैं. ऐसे महारथी बिना साबुन के भी झाग पैदा कर देते हैं. तभी कुछ लोगों के बारे में कहा जाता है कि फलां आदमी तो बस अभ्यास के सहारे लिखता है.

नहीं, मुझे लेखन विधा पर कुछ नहीं कहना. कहने लायक जानता भी नहीं. मैं इस दूसरी चीज़ के बारे में बात करना चाहता हूँ. बेहद सीमित जानकारी के बावजूद विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि शायद इस विषय पर कभी किसी ने गौर नहीं किया है. कम से कम मुझे नहीं पता. लिखी हुई इबारत को इस चतुराई और कलात्मक रूप से मिटाना कि उसके मायने ही बदल जाएं. कुछ लोग कहेंगे कि मिटाने को भला कला कैसे कहा जाए? तो दस्तबस्ता होकर कहना चाहूँगा कि मैं जेब काटने को भी फनकारी ही मानता हूँ.

जिस विद्या की और ध्यान दिलाना चाहता हूँ वह साइनबोर्डों, सरकारी इमारतों की दीवारों, वीरान इलाकों से गुज़रने वाली सड़कों और सार्वजनिक मूत्रालयों में देखने को मिलती है. वो अनदेखे, अनजाने कलाकार अपने घर का राशन खाकर निस्वार्थ भाव से सालों-साल से अपना योगदान दिए जा रहे हैं और हम नाशुक्रे उन कलावन्तों को न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं. उनके हिस्से मानसिक रूप से बीमार और कुंठित मानसिकता जैसी शब्दावली ही आती है. कभी किसी ने प्रशंसा के दो शब्द उनके लिए नहीं कहे.

बजबजाते हुए सार्वजनिक मूत्रालयों में आप मुस्कराते हुए आराम से निपट पाते हैं तो उन्हीं कलावन्तों के कारण. बदले में आप उन्हें गाली देते हैं. बहुत नाइंसाफी है. जिस जगह पर आदमी को सांस रोक कर खड़े होना पड़े, वहीं अतिरिक्त समय देकर वॉल पेंटिंग करना आपको हंसी ठठ्ठा लगता है?

पहले कुछ नमूने देखिये, फिर अपनी राय बताइये. बिना जानकारी के यूं ही कुछ भी कह देना ठीक नहीं.

‘कृपया इधर-उधर न थूकें, कृपया फूल न तोड़ें, यहाँ पर शराब न पियें, यहाँ पर गाड़ी पार्क न करें’ – ऐसे अनगिनत दिशानिर्देश यहाँ-वहां देखने को मिलते हैं जिसमें किसी कार्य को करने की मनाही होती है. इनमें अक्सर ‘न’ गायब मिलता है. जिससे हमें वहीं थूकने, कूड़ा करने, गाड़ी पार्क करने का सुभीता मिल जाता है. सामने दीवार पर साफ़-साफ़ लिखा होता है – कृपया यहाँ बैठकर शराब पिएं – आज्ञा से, जिलाधीश. सरकारी इमारतों की दीवारों आर पीक से बनी बेमिसाल पच्चीकारी कैसे देखने को मिलती अगर विभागाध्यक्ष का लिखित निर्देश न होता कि कृपया इधर-उधर थूकें.

अस्पताल-बस स्टेशन वगैरा कई जगहों पर महिलाओं- पुरुषों के वास्ते अलग-अलग काउंटर बने होते हैं. महिलाओं हेतु निर्धारित काउंटर पर होता है केवल महिलाएं. कोई कलाकार जमाने भर की नजरें बचा कर उसमें संशोधन कर देता है और क्या कमल कर डालता है. यूं जान पड़ता है जैसे जौहरी ने बेडौल पत्थर को बड़ी नफ़ासत से तराश कर उसे हीरा बना दिया हो. संशोधन के बाद काउंटर पर अब लिखा होता है – केवल हिलाएं

बेखयाली में जीने के आदी हम लोग शिक्षित होना ही नहीं चाहते. वरना सार्वजनिक मूत्रालयों में यूनिवर्सिटियों से ज़्यादा ज्ञान भरा है. मुफ्त का. न दाखिले का झंझट, न फीस का टंटा. वहां हमें क़ानून का सम्मान करने की सीख मिलती है – कृपया क़ानून को अपने हाथ में न लें. किसी दूसरे में घुसिए तो वहां स्वेट मार्डन की तर्ज़ पर प्रेरणा मिलती है – आपका मुकद्दर आपके हाथ में है.

लोग नेताओं को वोट देकर जिता बेशक देते हैं पर उनके लिए दिल में इज्जत कितनी रखते हैं इसका अंदाजा भी मूत्रालय में ही लगता है. छः-सात फुट की ऊंचाई पर लगे पोस्टर में छपी नेताजी की तस्वीर पर कलाकार इस सफाई से पीक थूकता है कि क्या मजाल जो एक भी कतरा उसके खुद के दामन पर आ गिरे. नोटा दबाने जितना आसान नहीं है यह काम!

गाँव-देहात के बच्चे जितनी इमला स्कूल में नहीं सीखते उससे ज्यादा सड़क किनारे लिखे यातायात संबंधी दिशा निर्देशों को मिटाकर सीख लेते हैं. मसलन ऊपर चढ़ती गाड़ी को प्राथमिकता दें और मोड़ों पर हॉर्न दें को मिटाकार ये नौनिहाल अपनी रचनात्मक प्रतिभा का परिचय देते हैं. संशोधन की इस कला से आजिज आकर पेंटरों ने अब गाड़ी की जगह वाहन लिखना शुरू कर दिया है. वाहन का क्या तोड़ हो इस पर यकीनन शोध चल रहा होगा. सफ़र के दौरान आपने ऐसे कला नमूनों पर ध्यान दिया ओगा तो बात को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे. और अगर ध्यान न दिया हो तो अब दीजिएगा. मैं व्याख्या नहीं करना चाहता वरना आप मुझे भी उन्हीं कलावन्तों की जमात में बिठा देंगे और यह भी कि “मज़ा क्या रहा जब कि खुद कर दिया हो मुहब्बत का इज़हार अपनी ज़बां से”.

संशोशन की इस विधा को न कभी कला माना जाएगा न ही प्रोत्साहन और मान्यता मिलेगी लेकिन उन अज्ञात स्वयंसेवकों के हिस्से इतनी तो दाद आती ही है जितनी किसी जेबकतरे को मिलती है. लुटे-पिटे आदमी को भी मानना पड़ता है कि सारी सावधानी के बावजूद इस सावधानी से जेब काटी गई कि पता भी नहीं चला. इतनी तो तारीफ़ उनकी भी बनती ही है. एक वाक्य में से कुछ शब्द या नुक्ते ही तो मिटाए कोई अच्छे दिन का वादा तो नहीं किया.

शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’  प्रकाशित हो चुकी  है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.>

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विकास व रणनीतियाँ

उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…

3 days ago

जब रुद्रचंद ने अकेले द्वन्द युद्ध जीतकर मुगलों को तराई से भगाया

अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…

1 week ago

कैसे बसी पाटलिपुत्र नगरी

हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…

1 week ago

पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद

आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…

1 week ago

चतुर कमला और उसके आलसी पति की कहानी

बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…

1 week ago

माँ! मैं बस लिख देना चाहती हूं- तुम्हारे नाम

आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…

1 week ago