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उत्तराखण्ड के मशहूर शिकारी ठाकुरदत्त जोशी और कतनिया का गुलदार

जिला अल्मोड़ा के अंतर्गत बिनसर-धौलछीना मोटर मार्ग के पास ग्राम कतनिया नैल एक स्वच्छ, सुंदर व संपन्न गाँव है जहां लोगों की पुरानी आबादी है. गाँव वाले अपनी गुजर-बसर में जंगल, बैल, गाय, भैंस पाला करते हैं.

1972 के वन्य जीव संरक्षण अधिनियम में सरकार द्वारा जंगली जानवरों व पक्षियों के शिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इस प्रकार हिंसक पशुओं जैसे गुलदारों की सनखया तो कई गुना बढ़ गई है लेकिन उसके भोज्य पशुओं की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती गई. गुलदार के आहार में कमी आने के कारण उनका टकराव स्थानीय जनता से हो गया. मांसाहारी जीवों का आहार घास खाने वाले जंगली जानवर व पालतू पशु जो चारा चुगान हेतु जंगलों में आया करते हैं, होते हैं. लोग कानून का उल्लंघन कर रात दिन जंगली जानवरों का शिकार बंदूक, जाल, कुत्तों, फांसी आदि तरीकों से करते हैं, जिसका असर मांसाहारी जीवों के भोजन पर पड़ता है. भोजन उपलब्ध न होने पर हिंसक जीव अपने भोजन पर पड़ता है. भोजन उपलब्ध न होने पर हिंसक जीव अपने भोजन की तलाश में भूखे पेट रात दिन शिकार की तलाश में रहते हैं. यह भी देखने में आया है कि पहाड़ों में रोजी रोटी, नौकरी तलाश में खेती का पैतृक धंधा लोगों ने कम कर दिया है. भैंस, बकरी आदि जानवर पालना कम कर दिया है. जिससे गुलदारों के भौजन में भी कमी आई है. कुछ अवैध शिकार करने वाले लोग रात में टॉर्च की लाईट से शिकार करते हैं. शिकारियों को गोली से घायल गुलदार आदमखोर हो जाते हैं. अल्मोड़ा के पास बिनसर अभ्यारण में जंगली जानवर जैसे काकड़, घुरड़, जंगली सूअर आदि रहते हैं. साथ ही वहां पर गुलदारों का आना-जाना रहता है. बिनसर अभ्यारण के आसपास गाँव हैं, जहां अधिकतर लोग बकरी पालते हैं और बकरी गुलदार का प्रिय भोजन है.

बिनसर अभ्यारण के पास धौलछीना मोटर मार्ग पर गोलू देवता का मंदिर है. वहां पर हर शनिवार को बकरे की बलि दी जाती है. रात में वहां गुलदार आता था. धौलछीना अभ्यारण के पास एक गाँव दलाड़ है. पिछले वर्ष जब कतानिया नैल में अचानक गुलदार का आतंक पैदा हो गया तो मुझे वहां भी जाना पड़ा.

अल्मोड़ा पपरसली निवासी महिला मंगल दल अध्यक्षा श्रीमती मुक्ती दत्ता थी. वे धौलछीना अभ्यारण की शुभचिंतक थी. अभ्यारण में जंगली हिंसक जीवों की संख्या बढ़ती जा रही थी. एक गुलदार ने नंदन सिंह पुत्र श्री दीवान सिंह उम्र 8 वर्ष को सांय 7 बजे घर के आँगन से उठा कर मार दिया था. यह घटना दिनांक 8-4-1999 की है. इससे पहले भी एक बच्चे को घायल कर दिया था. आस-पास के गाँवों में आतंक छा गया. मुझे तुरंत आतंकित क्षेत्र में जाने का आदेश दिया गया.

आदेश मिलते ही मैं धौलछीनाअल्मोड़ा को चला. दिनांक 17-4-1999 को मैं अल्मोड़ा प्रातः नौ बजे प्राभागीय वन अधिकारी पूर्वी अल्मोड़ा के कार्यालय पहुंचा. उन्हें आदेश दिखाया और आतंकित क्षेत्र की जानकारी ली. पहली घटना ग्राम दलाड़ में हुई थी. वहां भी गश्त जारी थी. गुलदार रात से कतनिया नैल में आता था. गुलदार के पद चिह्न मिल तो रहे थे, लेकिन मचान के पास नहीं आ रहा था. दूसरे दिन दिनांक 24-4-1999 को कांडा से एक पिंजड़ा कतनिया नेल ग्राम में लाया या. ग्राम के ऊपर रोड थी. रोड से एक रास्ता गाँव को जाता था. वहां पर पिंजड़ा लगाने का स्थान तैयार किया. उस पर चारे के लिए कुत्ता मंगाया गया.

हम पैदल चले. 6.30 बजे थे. मैं आगे चल रहा था. मेरे पीछे उमेद सिंह नगरकोटी थे. मैंने गुलदार को देखा. मैं आगे बढ़ता रहा. मैंने अपनी 315 बोर रायफल को आगे कर लिया. गुलदार अपनी चाल में आगे को चल रहा था. उसने पीछे नहीं देखा. लेकिन मोर्चा लेने का जरिया न था. गुलदार भी सीधा चल रहा था. सीधी सड़क थी, न मोड़, न पेड़. बड़ी कठिन समस्या पैदा हो गयी. एक सैकिंड में सारा मामला सुलझाना था. सीधी रोड ख़त्म होने को थी. मैंने सोचा अगर गुलदार की निगाह मुझ पर पड़ी तो फायर करने से पहले उछाल मारकर नीचे जंगल में भाग जायेगा. मैंने गुलदार का पिछ्ला भाग, दो टांगों के बीच का निशाना लिया. गुलदार ने पीछे गर्दन कर के देखा, लेकिन अपना शरीर नहीं मोड़ा. मैंने गोली चलाई. गोली लगने पर गुलदार चीड़ के नन्हे-नन्हे पौंधो में जा कर लड़खड़ाता हुआ नीचे नाले की ओर आने लगा. चीड़ की टहनियों का हिलना दिख रहा था, लेकिन गुलदार नहीं दिख रहा था. रायफल की आवाज सुनकर प्रशांत और एक ग्रामीण भी आया. मैं तब उस चीड़ की झाड़ी में था, जहां गुलदार के खून की धार बहा रही थी. तब तक उन लोगों ने आवाज की. मैंने उनको बुलाया, लेकिन गुलदार घायल हो कर आगे निकलता जा रहा था और खून के निशान मिल रहे थे. आगे बढ़ने में खतरा था. लेकिन ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ा गुलदार लुढ़कता आगे बढ़ता रहा. उधर अँधेरा भी बढ़ गया. निगाह नहीं लग रही थी. भारी भूल के कारण टार्च भी पास न था. मशवरा हुआ सुबह आकर गुलदार ढूँढेंगे. रात भर शंका में रहे. कल सुबह कैसी घड़ी आए. गुलदार मरा है, मिले न मिले, इसी सोच में रहे.

वैसे पूरा यकीन था कि गुलदार मर ही जाएगा. उधर उसी रात को पता चल गया था कि गुलदार पिंजड़े से दहाड़ रहा था. सुबह हुई, हम चार लोग, घायल गुलदार की खोज पर गए. 7 बजे उस स्थान पर गए जहां से वापस लौट कर आए थे. खून काफी मात्रा में पड़ा था. उसी के आधार आगे बढ़ते जा रहे थे. एक छोटा सा मोड़ था जिसपर झाड़ी थी. मैं आगे आगे जा ही रहा था, तभी मेरी निगाह उस झाड़ी पर पड़ी जहाँ पर गुलदार पड़ा था.

मैंने समझा गुलदार मरा ही होगा, लेकिन चैक करना जरुरी था. मैंने प्रशांत की बारह बोर बंदूक पकड़ कर एक नंबर छर्रा फायर की, गुलदार एकाएक उठा और उसी झाड़ी में आगे को बढ़ गया. गुलदार का आगे बढ़ना था कि मैंने 315 बोर की राइफल अपने हाथ में ले ली. मैंने आवाज लगाई गुलदार कहाँ गया? उमेद सिंह फ़ारेस्ट गार्ड बोले – आगे निकल गया. लेकिन आलोक बोले – नहीं, झाड़ी में है. मैं उस झाड़ी का मोड़ काटकर आगे से गया. खून व आगे जाने के निशान देखने लगा. लेकिन कोई निशान खून नहीं मिला.

मैं खड़ा सोच ही रहा था कि गुलदार है तो है कहाँ और पूर्व दिशा की ओर देखा रहा था तभी एकाएक मेरे दाएं पैर के घुटने को उसने मुंह में डाल लिया. 315 बोर राइफल मेरे पास लोड थी, लेकिन फायर करूँ तो कैसे करूँ? गुलदार और मेरी कुश्ती की भांति लड़ाई हो रही थी. वह मेरे घुटने को चबा रहा था. मैंने बाएँ पाँव से गुलदार के मुंह में जूते से हंटर मारी. गुलदार मेरा पाँव छोड़कर नीचे को लुढ़का. मैंने एक फायर 315 की मारी. गुलदार तड़पता नीचे लुढ़कता गया. तब सहयोगी ने हवाई फायर की. गुलदार ने पानी के नाले में दो पत्थरों की ओट में घुसकर वहीँ दम तोड़ दिया. मेरे घुटने से खून की धार बह रही थी. आलोक आया और अपने लाल अंगोछे से मेरे घुटने को बाँधा बोला आप लौट चलो. मैं बोला गुलदार गोली खाकर नाले में चला गया है, आप लोग वहां नहीं जायेंगे. मेरा जाना जरुरी है. मैं जहाँ गुलदार मरा था वहां गया.

गुलदार की लाश वहां से निकाली. उन सहयोगियों ने गुलदार की लाश धौलछीना मोटर मार्ग पर लीसे की फेक्ट्री में खड़ी प्रशांत की गाड़ी में रखी. मैं भी धीरे-धीरे गाड़ी तक पहुंचा मेरे पाँव से खून बह रहा था. मेरा दर्द बढ़ता जा रहा था, लेकिन में खुशी के मारे दर्द सहन कर रहा था. आगे गाड़ी में गुलदार को लेकर कतनिया नैल आलोक के घर के सामने 8.30 बजे पहुंचे. उधर से पपरसली से एक और खुश-खबरी पहुंची कि पिंजरे में गुलदार फंस गया. मुझे अल्मोड़ा सिविल अस्पताल में ले जाकर मेरे पाँव का फ़ौरन इलाज करवाया. बाद में जो गुलजार पिंजड़े में फंस गया था उसकी भी सूचना दी और मालूम किया कि इन गुलदारों का क्या करना है. साहब बोले मृतक गुलदार का पंचनामा कर दफना दो या जला दो. पिंजड़े में जो गुलदार है उसे रामनगर भेज दो.

शेर और गुलदार मांसाहारी जानवर हैं. इन खतरनाक सहनशक्ति भी होती है. जो कई दिनों तक भूखे रह जाते हैं और इन जानवरों की नजर, नाक, कान तेज होते हैं. आदमखोर होने के कई कारण होते हैं जो निम्न हैं –  शरीर के किसी अंग से अपंग होना, अधिक आयु के कारण प्राकृतिक शिकार करने में असमर्थ, इनके प्राकृतिक शिकार को अगर मनुष्य गोश्त के लालच में ले जाये तो उससे भी गुलदार आदमखोर हो सकता है. जानवर की टोह में बैठे गुलदार के सामने अगर मनुष्य धोखे से आ जाये. तो उसका शिकार करने के बाद भी वह नरभक्षी बन जाता है. वर्तमान परिपेक्ष्य में यह देखा जा रहा है कि गुलदार प्राकृतिक भोजन की नितांत कमी के कारण भी नरभक्षी बन रहे हैं.

-ठाकुरदत्त जोशी

(यह अंश उत्तराखण्ड के मशहूर शिकारी स्व. ठाकुरदत्त जोशी की पुस्तक ‘कुमाऊँ के खौफनाक आदमखोर’ से साभार लिया गया है.)

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