आज रेवती का श्राद्ध है. हीरा गुरु दरवाजे पर बैठकर पूरन और भास्कर दत्त जी का इंतजार करते हुए बहुत देर से सामने डांड़े को ताक रहे थे. घर के आगे सीढ़ीनुमा बंजर खेत बहुत गहराई तक फैले हैं. डांड़े को देखकर गुरु जब थक जाते हैं तो खेतों की गहराई में खो जाते हैं. इन खेतों के बीच ही वह नौला था जहां का पानी पीकर गुरु की रीढ़ आज 75 साल की उम्र में भी बिल्कुल सीधी है. अचानक गुरु की आंखें नौले की तरफ जाने वाले रास्ते पर चलने लगी. कभी बिल्कुल साफ रहने वाले रास्ते को घास ने ऐसे घेरा था जैसे किसी खूबसूरत चेहरे पर तितर-बितर दाढ़ी बिखरी हो. (Story by Rajiv Pandey)
अंदाजा लगाना मुश्किल था कि ये वही रास्ता है जहां से कभी 40 परिवार पानी लाकर पीते थे. एक पल को उन्हें उस रास्ते से फौंला लेकर आती रेवती दिखाई दी. दूसरे पल ही भ्रम टूट गया और वह याद करने लगे करीब बीस साल पहले का वह दिन जब रेवाधर जी का परिवार गांव छोड़कर मेरठ गया था. तब गुरु को अहसास भी नहीं था कि एक दिन वे इस गांव में अकेले ही रह जाएंगे. उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि वह खेत बंजर हो जाएंगे जिन्हें उन्होंने अपनी संतान की तरह संवारकर रखा था. उनकी कल्पनाओं में नहीं था कि जिन आंगनों में देर रात तक बच्चे अड्डू-पिड्डू खेलते हैं वहां एक दिन बात करने को दूसरा इंसान भी नहीं होगा. गाय-भैसों से भरे रहने वाले गोठों में केवल चूहों की ची-चाट होगी ऐसा भी उन्होंने नहीं सोचा था. गुरु चाहते तो ख़ुद भी बाजार जाकर बस सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा भी कभी नहीं सोचा.
गांव छोड़कर महानगरों में दड़बेनुमा घरों में रह रहे लोग गुरु को बेवकूफ मानते हैं. कहते हैं, हीरा गुरु खुद तो बर्बाद ही ठहरे रेवती को भी जंगल में रखकर मार डाला. वृत्ति से उतना पैसा कमाया लेकिन पिथौरागढ़ में घर बनाकर न बेटे को पढ़ा सका और न अंतिम समय में घरवाली का सही से इलाज कराया. गुरु का बेटा पूरन, गांव के ही प्राइमरी से पढ़ा ठहरा. औरों ने तो पिथौरागढ़ में घर किराये पर लेकर बीरशिबा, सोरवैली में बच्चे पढ़ाए. गुरु पहले से कहने वाले हुए ढंग का होगा तो यहीं से निकलेगा नहीं तो अपने आप रहेगा. लेकिन मैं यहां से कहीं नहीं जा सकता. उनके तो प्राण बसे ठहरे यहां के गाड़-गधेरों और डांड़े-कांठों में. लोग भले ही कुछ भी कहें लेकिन गुरु ने कभी अपनी घरवाली पर भी गांव में रहने का दबाव नहीं बनाया. वे तो कहते थे तुझे पूरन के साथ पिथौरागढ़ जाना है तो जा लेकिन रेवती गुरु को छोड़कर नहीं गई. पूरन पिथौरागढ़ के पास ही सरकारी स्कूल में शिक्षक है.
तीन साल पहले जब पूरन ने एंचोली में घर बनाया तो कई बार चलने के लिए कहा लेकिन गुरु नहीं माने. इसको लेकर कई बार झगड़ा भी हुआ. एक दिन तो गुरु बौली ही गए. पूरन उस दिन ईजा को पिथौरागढ़ चलने के लिए मना रहा था. क्या करोगे तुम दोनों यहां अकेले अब कुछ नहीं रखा इन डांड़़े-कांठों में. देवता तक तो यहां से चले गए हैं तुम क्या करोगे. खा जाएंगे बाघ-भालू तुमको फिर मत कहना मुझसे. लोग तुम्हारे चक्कर में मेरा भी मजाक बनाते हैं. गोठ में गाय को हाथ लगा रहे गुरु ये सब सुन रहे थे. अचानक उनका पारा चढ़ा और वे हाथ लगाना छोड़ सीधे चाख में आ गए. रेवती ने भी गुरु को इतनी जोर से बोलते हुए पहले कभी नहीं देखा था. कांपते शरीर के साथ बोले, उम्र हो गई इन डांड़े कांठों में आज तक नहीं खाया बाघ-भालू ने. वे कौन हैं जो गांव में रहने में मजाक उड़ा रहे हैं तेरा. नाम बता सालों के. तुझे जाना है तू चल दे. अपनी ईजा को भी ले जा सकता है. मुझसे दोबारा मत कहना. गुरु का गुस्सा देख पूरन सन्न रह गया.
इसके बाद ही पिथौरागढ़ घर बनाने का आखिरी फैसला उसने लिया. गुरु ने घर बनाने में उसकी मदद भी की. वृत्ति से जितना पैसा जीवन भर कमाया था सब दे दिया पूरन को लेकिन खुद नहीं गए. पूरन के जाने के बाद से ही रेवती उदास हो गई थी. जैसे गुरु के इस गांव में प्राण थे वैसे ही रेवती के प्राण पूरन में बसते थे. अब तक हर शनिवार को पूरन घर आता था इस आस में दिन काटती थी. पूरन के गांव छोड़ने के बाद रेवती दो साल भी नहीं बची. घास की बड़ी-बड़ी भारियां लेकर आने वाली रेवती बेटे के जाने के बाद से सूख गई थी. कई बार पूरन ने डिस्ट्रिक अस्पताल में दिखाया लेकिन रोग ही पकड़ में नहीं आया. रेवती कुछ दिन पिथौरागढ़ रहती लेकिन गुरु की चिंता में फिर वापस चली जाती.
रेवती के इलाज के दौरान गुरु भी आए थे पिथौरागढ़ लेकिन उनकी उदासी रेवती से देखी नहीं गई. पिथौरागढ़ की भीड़ में बिल्कुल अकेले हो जाते थे गुरु. रेवती को लगा यहां रहेंगे तो मुझसे पहले ये मर जाएंगे. जैसे-तैसे बिस्तर छोड़ गांव चलने की जिद खुद ही करने लगती. रेवती की घर चलने की बात सुन गुरु चहक उठे. उन्हें लगा रेवती ठीक महसूस कर रही है. पिथौरागढ़ से घर आए तीन दिन बाद ही रेवती ने फिर बिस्तर पकड़ लिया. गुरु ने फोन कर पूरन को बताया था तेरी ईजा फिर बीमार हुई है.
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रविवार होने के कारण उस दिन पूरन नहीं आया. सोमवार को ईजा को सीधे हल्द्वानी सुशीला तिवारी लेकर जाने की बात उसने गुरु से कही. गुरु ने रेवती का सारा सामान रात को ही पैक कर दिया था. इसके बाद मूली का थेचवा बनाया लेकिन रेवती ने एक गास भी सही से नहीं खाया. गुरु ने भदेली में दूध गरम किया, रेवती वह भी नहीं पी पाई. बोली, अब तुम सो जाओ सुबह से लगातार काम करके थक गए होगे. इसके बाद दोनों सो गए.
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हमेशा की तरह गुरु सुबह चार बजे उठ गए. उन्होंने गैस जलाकर चाय बनाई. चाय पीकर गोठ चले गए. गोठ का काम निपटाकर दूसरी चाय बनाई और रेवती के सिराहने रखकर कहा चाय पीले. लेकिन रेवती ने कोई जवाब नहीं दिया. गुरु सब्जी काटने लग गए थे. रेवती नहीं उठी तो गुरु ने फिर आवाज लगाई. लेकिन रेवती फिर कभी नहीं उठी. जैसे चुपचाप उसने गुरु के साथ जिंदगी काटी वैसे ही चुपचाप चली भी गई.
गुरु रेवती के सिर पर हाथ रखकर उसके सिराहने पर ही बैठ गए. गायों ने गोठ में औड़ाट-बिड़ाट कर दिया था लेकिन गुरु को कुछ नहीं सुनाई दे रहा था. बाहर से पूरन आवाज दे रहा था लेकिन गुरु को वे आवाज भी नहीं सुनाई दी. इसके बाद पूरन ईजा-ईजा कहते हुए अंदर आया तो एकदम से फफक पड़ा लेकिन गुरु चुप बैठे रहे. पूरन ने ही फोन कर इधर-उधर से लोगों को बुलाया और रेवती की अंतिम यात्रा शुरू हुई. गुरु नौले वाले रास्ते से रेवती को जाते हुए देखते रहे. उस दिन देर शाम तक सीढ़ियों में ही बैठे रहे. बीच-बीच में अंदर जाकर रेवती के कपड़े संभालते और फिर बाहर आकर रास्ते को देखने लगते.
आज कई दिन बाद गांव में दस से ज्यादा लोग थे. और दिन गांव में बोलने के लिए लोग नहीं होते थे आज लोग थे तो गुरु का किसी से बात करने का मन नहीं था. पूरन ने आवाज दी बाबू भास्कर गुरु आ गए हैं. श्राद्ध की तैयारी पूरी कर ली होगी आपने. आज करीब छह महीने बाद गुरु ने किसी इंसान से आमने-सामने बात की थी. (Story by Rajiv Pandey)
राजीव पांडे की फेसबुक वाल से, राजीव दैनिक हिन्दुस्तान, कुमाऊं के सम्पादक हैं.
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