विवाहोपरान्त पुत्री की विदाई सर्वत्र करूण होती है. वह मां की दुलारी है, जिसने उसे पालपोस कर बड़ा किया, उपयुक्त गृहिणी के सभी गुण लाने का प्रयास किया है. किन्तु आज वह वृ़द्धा भी अपने आप को असहाय पाती है. कन्या भी मां बाप की छत्रछाया छोड़ने में अनमनी हो रही है. परदेश में भूख प्यास लगेगी. अब रहा नहीं जाता उधर मां विसूरती है, अरे लोगों इसे दुख न देना. इसे मैंने दस महीने धारों दूध पिलाया है. भारतीय जननी का यह ममत्व विलक्षण है जिसका उदाहरण बहुत कम ही मिलेगा.
अरि अरि लोको पंडित लोको
मेरी छिया दुःख जन दीया
दस मेण मैले उरही में वाको
दस धारी दूर पेवायो
कंधों पर भारी गृहस्थी का बोझ संभाले हुए, पर्वतीय समाज में भारी उत्तरदायित्व निर्वाह करते हुए, कठिन जीवन संघर्षों का सामना करते हुए और सदियों से कुछ भी निजी अवकाश न पाते हुए कुमाऊंनी नारी समाज ने इसी तरह के गीत-माध्यम से अपनी भावनाओं को प्रकट होने का एक मार्ग दिया है और ये कुमाऊंनी गीत सारी मानवता के प्रति उनके वात्सल्य के परिचायक है.
मेलों, त्यौहारों एवं ऋतुओं से संबद्ध गीत विभिन्न नामों से अभिहित किए जाते हैं, जैसे बैर, झोड़ा, भगनौला, चाचरी, न्योंली आदि. ऋतु सम्बन्धित गीत ऋतु रैण कहे जाते हैं. जो ऋतुरायण शब्द का ही कुमाऊंनी नामकरण है. इसका आरम्भ हिन्दू धर्म के पहले महीने चैत से होता हे. कुल ऋतुरैण एक पंक्ति में बारह महीनों की विशेषताऐं स्पष्ट करते हैं. इस अवसर पर ग्रामीण गायक हुड़कियॉं – जो स्थानीय भाषा में औजी या ढोली कहा जाता है (वैसे ‘‘औजी ढोली ’’ हुड़किए से अलग होते हैं ) – एक गीत बद्ध कथा द्वारा किसी दूरस्थ बहिन के भाई के प्रति मिलने की आतुरता व्यक्त करता है. कुमाऊंनी समाज में यह प्रथा है कि चैत्र महिने में भाई बहन के घर भे भेंट लेकर जाय. उसकी कुछ पक्तिंया हैं-
गैला मैला पातली में न्यौली बासली,
ऊॅचा धुरा शिकारी कौ कफुवा बासलो
बस बास न्योली चड़ी मैती का दिशा
ईजू मेरी सुणैली भागी मिटौली लगाली
रूण भूण रितू ए मैं छ इजू…
अर्थात बहिन कहती है -न्योली, ऊॅचे शिखरों पर कफुवा पक्षी बोलने लगे हैं. जो न्योली चिड़िया, मायकै की ओर आवाज दे. मां सुनेगी तो (मेरा स्मरण कर) भेंट भेजेगी. ओ मां, रूखे सूखे दिन आने लगे… आदि. गीत लम्बा है और आद्योपान्त उसकी कथा, गायन पद्धति दोनों ही बड़े करूण एवं मर्मस्पर्शी हैं.
‘झोड़ा’, बैरा, चांचरी आदि गीत जन सामान्य के दैनिक जीवन के निकटतम सम्पर्क में होते हैं. वे समयानुकूल परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हैं अतः उनकी रचना किसी भी समय, कहीं पर भी और किसी भी समसामयिक विषय पर हो सकती है जैसे दीवानी, फौजदारी मुकदमे, भूमि नाप सम्बन्धी कार्य, दरिद्रता या दुर्भिक्ष से उत्पन्न कटुता आदि. जैसे इस गीत में कहा गया है घर में खाने को मोटा अन्न मडुवा तक नहीं और तुम पान खाने को कहती हो. समय ही ऐसा आ गया है-
बसंती बखतै यसे छ
मडुवा मश्याल न्हाती तू मांगै छी पाना
भूखै लै बिडौल बसंती, जमानै यसै छ.
एक दूसरे गीत में कांग्रेसी राज्य और समकालीन विकास कार्यों की प्रशंसा की जा रही है-ऐसा राज्य कभी नहीं हुआ. कोसी नदी से अल्मोड़ा बाजार में पानी पहुंच गया है, पहाड़ों में विकास योजनाएं खुल गई हैं, गांवो में स्थान-स्थान में पानी है, सिमेंट की डिग्गियां बन गई हैं, दुनिया भर की खबर पंचायत भवन में सुनी जा सकती हैं, आदि. भले ही इन गीतों में रेडियो शब्द को ‘रेड्डवा’ का योजना शब्द को ‘जोजना’ का, श्रमदान शब्द को ‘समरदान’ का चोला धारण करना पड़ा है लेकिन मोटर रोड से लेकर बिजली के रंगीन बल्ब और नए पंचायती क्लब भी इनकी सूक्ष्म दृष्टि से बच नहीं सके हैं.
कुमाऊंनी हिन्दू समाज में विधवा का जीवन बड़ा दयनीय है, वस्तुतः वैधव्य ही उसके लिए अभिशाप है. उसे समाज में जीवित रहने का भी अधिकार नहीं है. विष बूंद तरह रहकर लाभ क्या? मर जाना अच्छा है. शत्रु के घर भी लड़की उत्पन्न न हो. शेर बाघ के खाने पर तो तुरन्त मौत हो जाती है, किन्तु विधवा मरने के बाद भी मरती रहती है, समाज उसे नही छोड़ता. जब कोई बात बिगड़ गई तो ससुराल मायके वालों के मुख स्याही लग जाती है. दिन रात रोना धोना है, उसका तो जीवित रहना या मर जाना-दोनों ही दुःख के कारण होते हैं.
निश्चय ही इस प्रकार के गीत, प्राचीन संस्कार एवं समाज की सामन्ती व्यवस्था के द्योतक हैं, जिसमें स्त्री पुरूष का समान स्तर स्वीकार नहीं किया गया. नारी जीवन हेय माना गया. बीसवीं सदी में सुधार हुआ है, बराबर अधिकारों की मान्यता हुई है, फिर भी यह भावना पूर्णतः समाप्त हुई कहां है? कुमाउॅनी लोकगीत प्राचीन युग से लेकर आज तक इस भावना, सामाजिक स्थिति का साक्षात चित्र उपस्थित करते हैं.
कृषि सम्बन्धी गीत स्थानीय भाषा ‘‘हुड़किया बौल’’ कहलाते हैं जो धान की रोपाई के समय गाए जाते हैं. हुड़का मुख्य गीत-वाद्य होता है. इनमें प्राचनी ऐतिहासिक, अर्ध एतिहासिक या जातीय वीरों की कथायें बहुत धीरे-धीरे हुड़के के साथ गाई जाती हैं, क्योंकि गायक का मुख्य उद्देश्य रोपाई करने वालों को अपने कार्य में संलग्न रखना होता है. ये गीत मानव मात्र के प्रति शुभाकांक्षा व्यक्त करते हुए आरम्भ किए जाते हैं और जीवन सत्य का प्रतिवादन करते हैं. लम्बी-लम्बी पद्यबद्ध कथाओं द्वारा जीवन के बहुरंगी एवं कठोर-दोनों पक्षों का उद्घाटन होता है. कुमाऊं के विभिन्न ग्रामों में विभिन्न वीरकथा-गीत प्रचलित हैं, जिनमें ‘हिरू हित’, ‘राणी रौत’, ‘रामी बौर’, ‘राजा उदैचन्द’, भीमसेन पांडव के आख्यान प्रमुख हैं.
कुमाऊॅं के सीमावर्ती जोहार तथा दारमा क्षेत्र के लोक गीत भी स्थानीय विशेषताओं से युक्त समाज की भावनाएं चित्रित करते हैं. जोहार का ऊनी व्यापार शीतकाल में व्यापार के लिए मैदानी भागों में उतर आता है अतः ग्रीष्मवासों में लौटने तक पांच छः महिने लग जाना स्वाभाविक है. परिवार के सदस्यों को इस बीच कठोर प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है. तत्सम्बन्धी एक गीत में साली बहनोई का वार्तालाप है. बहनोई कहता है हम मार्गशीष अर्थात् नवम्बर के महीने देश चले जायेंगे और चैत्र अर्थात मार्च तक वापस लौट सकेंगे. ऐ सुरमा, तुमहारी हमारी भेंट कब होगी? साली पहाड़ी के उस पार से उत्तर देती है-ओ जयसिंह बहनोई, चंपा-चोड़री लताओं के बीच हमारी तुम्हारी भेंट होगी. किन्तु देश जाकर तुम मेरे लिए लाओगे क्या? वह उत्तर देता है-नेवर और काला बोखर आभूषण लाऊॅंगा. मूल पंक्तियां इस प्रकार हैं-
‘‘मालन जौल मंसीर माह पलटौंल चैत
तुमी न हामी सुरमा कब होली भेंट?
तूमी ना हामी हो भीना जैसिड चंपा चोड़री भेंट!
मालन जालै भीना जैसिड कियो ल्हौले?
त्वै की मैं ल्हौल साली सुरमा गाठी को नेवर
त्वै की मैं ल्हौल साली सुरमा कानै की गोखर
ऐसे वाक्यों द्वारा प्रश्न-उत्तर-प्रत्युत्तर की यह परम्परा गीतों को मधुर ही नहीं बनाती अपितु पर्वतीय निवासियों को जीवन वैषम्य का सामना करने का सामर्थ भी देती है.
कुमाउॅनी लोक गीत संगीत प्रधान लोक गीत हैं. उनकी एक सामान्य विशेषता यह है कि उनमें प्रेम तत्व की प्रधानता है. यहां के जन-जीवन व वातावरण में ही सौन्दर्य, प्रेम के तत्व प्रमुख हैं. अतः गीतों का निर्माण एक रूमानी धरती पर होता है. जहां युवक युवतियां या तो अदृष्ट द्वारा दूर-दूर रखे जाते हैं या एक दूसरे के लिए प्रतिक्षा ही करते रह जाते हैं. वे सब कुछ भूल सकते हैं पर प्रिय को नहीं. रक्त वर्ण ‘बुरूंश’ फूल ही प्रिय बन कर आंखों के सामने दिखाई देने लगता है-
‘‘पारा डाना बुरूंशी फुलै छ
मैं जै कौनूं मेरी हिरू ए रै छ.’’
साहित्य में प्रेम का रंग लाल समान माना गया है. और यहां बुरूंश फूल भी लाल है. इतना गहरा भाव तादात्म्य कि तल्लीन होते-होते फूल में ही प्रिय-दर्शन करने लगना सूफियों की साधना से कम नहीं और ऐसे उदाहरण अन्यत्र कम ही मिलते हैं क्योंकि यह प्रेम मजाक की हद तक नहीं पहुंचता, बाल्यकाल से ही साहचर्य के कारण उसमें गंभीरता बनी रहती है. कुमाउॅंनी समाज में प्रेम सौन्दर्य भी उन्मुक्त है और जीवन संघर्ष, आर्थिक वैषम्य भी अधिक है. दोनों का मिश्रण लोकगीतों में भी साथ-साथ उपलब्ध होता है.
इनकी तुलना यदि पंजाबी, राजस्थानी या उत्तर प्रदेश में ही ब्रज, अवधी या भोजपुरी आदि लोकगीतों से की जाय तो अनेक समानताएं लक्षित होती हैं. कारण स्पष्ट है. भौगोलिक दूरी होते हुए भी विभिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाला जन-मानस तो एक ही होता है, राग, करूणा, घृणा, ईर्ष्या आदि भावनाएं तो सर्वत्र समान ही होती हैं. हा, कुछ बाह्य कारण उनकी अभिव्यक्ति, रूपरेखा में अन्तर अवश्य उत्पन्न करते हैं. माध्यम बदल सकते हैं, किन्तु मूल भाव नहीं. यही कारण है कि सामाजिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए क्यों कुमाउॅंनी लोक गीतों का अन्य क्षेत्रीय लोक गीतों के साथ तुलनात्मक अध्ययन, अन्तर के साथ अनेक समानताएं भी स्पष्ट करता है.
कुमाउॅंनी लोकगीतों का भण्डार आज भी समृ़द्ध होता जा रहा है. जन मानस की सक्रियता व निरन्तर प्रवहमान शक्ति उन्हें भी गतिशील रखती है. ये वर्णन शैली, छन्द, काव्यत्व की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है किन्तु मुख्य विशेषता यही है कि उसमें कुमाउॅंनी समाज की परम्पराएं आचार-विचार, प्रथाएं सही-सही प्रतिबिम्बित होती रही हैं. यहां अतीत काल से खस, नाग, शक आदि जातियों का बड़ा प्रावधान रहा, वे इतिहास की जातियां हो गई जब कि लोक गीतों के विविध रूपों में उनका प्रभाव विद्यमान है. अधिकांश अलिखित होने से उनके अनेक भेद, रूपांतर भी मिलना स्वाभाविक है और भाषा का अन्तर भी है. जोहार की भाषा समझ में आती है पर दारमा क्षेत्र की भाषा अपरिचित सी लगती है.
कठिनाई होते हुए भी उपलब्ध सामग्री उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करती है. अन्धकार में छिपी मूल्यवान सामग्री को संकलित, संपादित करना विद्वानों व अध्येताओं का इस समय कर्तव्य है. उनसे कुमाउॅनी समाज व संस्कृति के विशिष्ट तत्वों का उद्घाटन होना समय की आवश्यकता है. कुमाउॅंनी लोक गीत कुमाऊॅ समाज की मिश्रित संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनका महत्व एक पंक्ति से ही समझा जा सकता है. जिसमें कहा गया है –
लड़ मर कर क्या होगा? लड़ाई तो धोखा है. बस धरती की कोख हरी रहनी चाहिए.
पुरवासी में स्व. डॉ. त्रिलोचन पाण्डेय का लेख.
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