छः वर्षों तक सूरदास बने रहने के कारण लेखन कार्य रुक गया था. प्रकाशन कार्य में निरंतर घाटा पड़ने से प्रेस बेच देना पड़ा. ऑपरेशन से ज्योति पुन: आने पर पता चला कि दर्जनों फाइलें, जिसमें महत्वपूर्ण नोट्स थे, शायद रद्दी कागजों के साथ फेंक दी गईं हैं. कुमाऊँ का इतिहास भी गढ़वाल के इतिहास के समान ही छः सौ पृष्ठों में छपने वाला था. इस बीच कागज़ का मूल्य छः गुना और छपाई का व्यय 16 गुना बढ़ गया था. छः सौ पृष्ठों का ग्रन्थ छपने के लिए 35000 रुपयों की आवश्यकता थी. इतनी अधिक राशि जुटाना सम्भव नहीं था. 76 की आयु में मनुष्य को जो भी करना हो तुरंत कर लेना चाहिए. दो ही साधन थे. भूमि बेच देना और पांडुलिपि को संक्षिप्त करना. अस्तु मैंने कुछ राशि भूमि बेचकर जुटाई तथा कलम कुठार लेकर पांडुलिपि के बक्कल उतारते-उतारते उसे आधा, भीतरी, ‘टोर’ मात्र बना दिया. किसी चिपको वाले मित्र ने मुझे इस क्रूर कार्य से नही रोका !ऊपर लिखी ये पंक्तियां शिवप्रसाद डबराल ने अपनी पुस्तक ‘कुमाऊं का इतिहास’ की भूमिका में लिखी हैं. शिवप्रसाद डबराल जिनके ग्रन्थ आज उत्तराखंड का इतिहास जानने के लिये सबसे उपयोगी ग्रन्थ माने जाते हैं उनके बारे में हम में से अधिकतर लोग सबसे ज्यादा यह जानते हैं कि उन्हें ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ उत्तराखंड’ कहा जाता है. यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे काल के सबसे बड़े इतिहासकार को अपना इतिहास सहेज कर रखने के लिये न केवल अपनी प्रेस बल्कि अपनी जमीन तक बेचनी पढ़ गयी. शिवप्रसाद डबराल का जन्म 13 नवम्बर सन 1912 को पौड़ी के गहली गांव में हुआ था. उनके पिता कृष्णदत्त डबराल प्राइमरी विद्यालय में प्रधानाध्यापक थे और माता भानुमती डबराल गृहणी. शिवप्रसाद डबराल ने प्राइमरी शिक्षा मांडई व गढ़सिर के प्राइमरी स्कूल से की और मिडिल की परीक्षा वर्नाक्युलर एंग्लो मिडिल स्कूल सिलोगी (गुमखाल) से पास की. 1935 में उनका विवाह विश्वेश्वरी देवी से हो गया था. शिवप्रसाद डबराल ने मेरठ से बीए और इलाहाबाद से बीएड किया. एम.ए उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से किया. 1962 में उन्होंने पीएचडी पूरी कर शिवप्रसाद डबराल डॉ शिवप्रसाद डबराल हो गये. शिवप्रसाद डबराल ने डी.ए.बी. कॉलेज दुगड्डा में सन 1948 में प्रधानाचार्य की नौकरी की जहाँ वे 1975 में सेवानिवृत होने तक प्रधानाचार्य के पद पर रहे. उनकी लेखन यात्रा 1931 से ही शुरु हो गयी थी. उनका पहला काव्य संग्रह जन्माष्टमी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ. डबराल ने वीरगाथा प्रकाशन की शुरुआत अपने गांव से ही की. अपनी पुस्तक प्राग- ऐतिहासिक उत्तराखंड में डबराल ने लिखा है
कुछ लोग कहते हैं हमारी जानकारी में सारे उत्तराखंड के किसी भी गांव के एक ही मकान में , किसी एक ही व्यक्ति द्वारा उत्तराखंड पर इतने अधिक और महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना और प्रकाशन का कार्य संभव नहीं हुआ है, जितना सरोड़ा गांव के उस मकान में हुआ है जो दो सौ साल पुराना जीर्ण-शीर्ण है, जो रेडियो, टेलीविजन, पंखा, फ्रिज जैसे नये संसाधनों से पूर्णतः अछूता है, जिसकी दीवारें भूचाल से फट गयी हैं और जिसकी छत सामान्य वर्षा से भी अनेक स्थानों पर टपकने लगती है एवं जिसकी दीवारों पर पिछले दस सालों से सफेदी नहीं हुई है.270 रुपये पेंशन के बावजूद शिवप्रसाद डबराल ने कभी अपने शोध में कमी न आने दी. उन्होंने हिंदी में अनेक नाटक, काव्य और बालसाहित्य लिखे. उत्तराखंड के पुरातत्व और इतिहास पर बीस बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिखी. उत्तराखंड के जनजीवन पर पांच पुस्तकें लिखी और प्रकाशित की. डबराल ने गढ़वाली भाषा की 22 पहले से प्रकाशित दुर्लभ पुस्तकों को विस्तृत भूमिका के साथ पुनः प्रकाशित कर लुप्त होने से बचाया. मौलाराम पांडुलिपि ढूंढकर लुप्त होने से बचाई. शिवप्रसाद डबराल ने चालीस बरस तक हिमालय और उसके इतिहास पर शोध किया उन्होंने उत्तराखंड का इतिहास 25 भागों में लिखा. उत्तराखंड के इतिहास से जुड़ी उनकी कुछ किताबें निम्न हैं : अलकनंदा उपत्यका गोरख्याणी पहला भाग ( पर्वतीय राज्यों का विध्वंस ) गोरख्याणी दूसरा भाग ( पराजित होकर प्रत्यावर्तन ) टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग पहला टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग दूसरा श्री उत्तराखंड यात्रा दर्शन उत्तराँचल – हिमांचल का प्राचीन इतिहास उत्तराखंड का इतिहास (बारह भागों में) उत्तराखंड के अभिलेख एंव मुद्रा प्राग-ऐतिहासिक उत्तराखंड कत्युरी राजवंश – उत्थान एंव समापन 1 शाक्त मत की गाथा गढ़वाल पर ब्रिटिश शासन-भाग पहला गढ़वाल पर ब्रिटिश शासन-भाग दूसरा भोलाराम गढ़राज वंश उत्तराखंड के भोटान्तिक उत्तराखंड के पशुचारक 24 नवम्बर 1999 को इस महान इतिहासकार और अन्वेषक की मृत्यु हो गयी. दुगड्डा स्थित उनके पुस्तकालय में दो हजार के करीब दुर्लभ पुस्तकें व तीन सौ पांडुलिपियाँ हैं. -काफल ट्री डेस्क वाट्सएप में काफल ट्री की पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online उत्तराखड में स्थापत्य एवं मूर्तिशिल्प का बेजोड़ नमूना : कटारमल का सूर्य मंदिर
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