प्रिय अभिषेक

वो जो फोल्डर तुम ढूंढ रहे हो मैंने डिलीट कर दिया है

हे सहकर्मी! हे कुलीग! तुम आखिर ऐसे क्यों हो? किसी रेडियोऐक्टिव पदार्थ से, ऑफिस में विकिरण फैलाते. अपनी चाल, आँखों और बातों से बेधने वाली अल्फा, बीटा, गामा किरणें फेकते. (Satire by Priy Abhishek)

 मेरे हमऑफिस ! विश्वास करो, मेरी तुमसे कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है. तुम सारे चार्ज ले लो, सारे प्रोजेक्ट ले लो. हर कार्य के लिए बॉस तुम्हारा ही वरण करे. तुम बॉस-बॉसी के प्रिय रहो. युगों-युगों तक इस ऑफिस में पदस्थ रहो. इस ऑफिस के दिगन्त दिकपति बनो. कम्पनी के एकछत्र छत्रपति बनो. तुम एकराट कहलाओ. तुम अक़बर तृतीय हो जाओ. चपरासी से मुख्याधिकारी तक तुम्हारा यशोगान हो. कार्यालय में आने वाली पीढ़ियां तुम्हें ‘सुरेशा द ग्रेट’ कहें. (Satire by Priy Abhishek)

कुलीग! तुम सारे प्रमोशन, इंक्रीमेंट-अप्रेजल ले लो. मुझे बस मेरा वेतन दे दो. सहकर्मी मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो.

सहकर्मी! जब तुम मेरी टेबल से निकलते हो तो लगता है जैसे कोई तक्षक छू कर निकल गया हो, सरसराता. दिल धक-धक करने लगता है. और जो कभी तुम रुक जाओ मेरे पास, तो मानो लटक ही गया हो सिर पर वो वासुकि अपना फन फैलाए. धक-धक करता दिल, धड़कना भी भूल जाता है. तुम्हारी दृष्टि मेरी डेस्क के कागज़ों और कम्प्यूटर में क्या ढूंढती है?

कुलीग! मैं अपने कंठ को पकड़ कर कसम खाता हूं, मेरे लिए तुम्हारे दिल में कोई दुर्भावना नहीं है. जो पवनपुत्र की भांति अपनी छाती चीरूं तो इसमें एटीएम की आखरी पर्ची और बीएसटी के टिकट ही दिखेंगे. फिर तुम्हारी मुझसे इतनी नाराज़गी क्यों?

उस दिन जब बॉस ने मुझे अपने चैम्बर में बुला लिया तो तुम्हारे दिल में लगी आग की तपिश को मैंने बॉस के वातानुकूलित कक्ष में भी महसूस किया. और एक दिन जब बॉस खुद ही मेरी सीट तक आ गए, तब तुम्हारी मुट्ठी देख कर लगा कि आज मेरा भी ‘रुधिर बमत धरनी ढनमनी’ होने वाला है, लंकिनी जैसा. मैं डर गया था.

सहकर्मी! मैं कोई धर्म, जाति,  प्रथा, वर्ण नहीं मानता. इनमें मेरा ज़रा भी विश्वास नहीं है. और मैं तो समलैंगिक भी नहीं हूं. तो बॉस का पूरा प्यार तुम्हें ही मिलेगा, यह सुनिश्चित है.

 यदि फिर भी कोई संदेह शेष हो तो लो मैं बोलता हूं -‘हारी’.

सहकर्मी! इस अवसर पर मैं तुमसे कुछ और भी कहना चाहता हूँ. वो जब तुम धड़ाम से गिरे थे, तुम्हारी कुर्सी का पहिया मैंने ही निकाला था.  सहकर्मी! वो जो फोल्डर तुम ढूंढ रहे हो न, मैंने डिलीट कर दिया है. (हां! तुम्हारे कम्प्यूटर का पासवर्ड मुझे पता है.) वो फ़ाइल जिसके कारण तुम्हारी नौकरी खतरे में है, मैंने अपनी दराज में छिपा के रखी है.

सहकर्मी ! तुम्हें याद है उस दिन चैनू ने तुम्हारे रैहपट धर दिया था, उसे पऊआ हमने ही पिलाया था. क्या करूँ! वसीम बरेलवी ने मुझसे कहा था कि ‘जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है.’

शेष फिर कभी, सहकर्मी!

प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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Girish Lohani

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  • बहुत अच्छा लिखते हो सर। फैन हो गया आपका मैं तो। मजा आ जाता पड़के।

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