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रूपकुंड यात्रा के शुरुआती दिन

चमोली जिले में एतिहासिक धार्मिक राजजात यात्रा का एक पड़ाव है लोहाजंग. नौटी से शुरू होने वाली यह पदयात्रा करीब 280 किलोमीटर चलकर सेम, कोटी, भगौती, कुलसारी, चैपडों, लोहाजंग, वाण, बेदिनी, पातर नचौणियाँ, बगुवावासा, रूपकुण्ड, शिला-समुद्र, होमकुण्ड से चंदिन्याघाट, सुतोल, घाट होते हुए नन्दप्रयाग और अंततः वापस नौटी में ही समाप्त होती है. मुन्दोली-लोहाजंग से वाण घाटी के बीच दर्जनों गांव रास्ते के ऊपर-नीचे बिखरे हुए से हुए हैं. यहां के ज्यादातर युवा खेती-बाड़ी और मजदूरी के अलावा ट्रैकिंग के क़ारोबार से जुड़े हैं. लगभग डेढ़ सौ लोग गाइड या पोर्टर के काम से अपनी रोजी-रोटी जुटाते हैं.
(Roopkund Trek Travelog)

इस बार अदृश्य-अनोखी कोरोना बीमारी ने दुनिया भर में करोड़ों लोगों की आजीविका छीनी और महीनों तक घरों में कैद होने को मजबूर किया. इस दौरान अपना अशांत मन हिमालय की कंदराओं में विचरता रहता था. पिंडारी, सुंदरढूंगा, पंचाचूली बेस कैंप, हर ओर जाने के लिए दिल मचलता था लेकिन इन जगहों में सिर्फ मन से ही जाना संभव था. जगह-जगह रास्ते-पुल गायब थे. सामान्य दिनों में भी ये रास्ते अकसर मरम्मत के मोहताज रहते हैं, इस बार महामारी का बहाना जो था.

पुराने पथारोही मित्र हरीश जोशी की ओर से उकसाने की कोशिशें लगातार जारी थीं.  अंतत: रूपकुंड यात्रा के लिए मैंने उन्हें अपनी सहमति दे दी. हरीश जोशी उर्फ ‘हरदा’ यूं तो रेलवे में काम करते हैं लेकिन जरूरतमंदों की मदद में कभी पीछे नहीं रहते. सितंबर के अंतिम सप्ताह में उनका फोन आया-

रूपकुंड यात्रा के लिए मेरे साथ करीब बारह-एक लोग तैयार हैं. तुम कितने हो?

मैंने जवाब दिया- बच्चों ने तो आने से मना कर दिया था. रिटायर्ड फौजी उर्फ मास्सैप समेत हम पांच जन हैं.

अगले दिन उन्होंने कनफर्म किया – ट्रैक के लिए लोहाजंग के यात्रा प्रायोजक प्रदीप कुनियाल से बात हो गई है. सारी ज़िम्मेदारी उसे सौंप दी है. अपना इंतजाम खुद करने के बजाय इस बार फ्री होके जाने का मन है. जिम्मेदारी के बोझ तले प्रकृति को देखना-समझना बहुत कम ही हो पाता है. इस बार ट्रैकिंग का पूरा आनंद उठाएंगे.

उनकी बातों को ठुकराने की गुंजाइश नहीं थी. 5 अक्टूबर की शाम को सभी को लोहाजंग पहुंचना था. 5 अक्टूबर की सुबह हरदा अपने दो बच्चों को लेकर दिल्ली से चल पड़े. रेलवे, प्राइवेट, एसडीआरफ-एयर फोर्स के जवानों समेत कुल बीस लोगों की उनकी टीम थी. शाम छह बजे लोहाजंग में मिलना तय हुआ. और इधर हम सब संशय में थे कि आज जाना हो पाता है या अगली सुबह निकलें.
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दरअसल, बुजुर्ग युवा परिहार मास्टरजी की बिटिया आंचल ने कई सालों से ट्रैकिंग का सपना पाला था. बड़ी जद्दोजेहद के बाद बापू-बेटी का ट्रैकिंग पर जाना तय हुआ ही था कि विभाग ने बेटी की कोविड ड्यूटी लगा दी. अब वह हैरान-परेशान थी. खैर विभाग में मान-मनुहार की गई. ड्यूटी से कोई दिक्कत नहीं है, बस इसे थोड़ा आगे खिसका दीजिए. साथी जैक और आंचल, सुबह से ही अधिकारियों की परिक्रमा में विभाग-गांव-स्कूल नापने में लगे थे. एक बार तो आंचल ने तंग आकर हमें जाने को बोल दिया मगर आखिरकार दो बजे मामला सुलझा और छुट्टी मिल गई.

बागेश्वर से निकलते-निकलते चार बज गए. हरदा और अन्य लोग ग्वालदम पहुंच चुके थे. डॉ. मनीष पंत, दिगम्बर सिंह परिहार, आंचल, जगदीश उपाध्याय के साथ मैं भी गाड़ी में सवार हो गया. दिनभर की भागदौड़ और रूपकुंड के कठिन ट्रैक के किस्से सुनते-सुनाते हम ग्वालदम पहुंचे तो हरदा ने फोन पर बताया कि वे देवाल से आगे लोहाजंग के रास्ते पर हैं, बाकी लोग भी वहां पहुंच चुके हैं. वे लोग नंदकेसरी वाली सड़क से गए हैं. कुछेक जगह सड़क खराब है लेकिन ढलान में गाड़ी निकल ही जा रही है. हमने भी थराली रोड छोड़कर ग्वालदम से नंदकेसरी वाली सड़क का रुख किया.

वर्ष 2014 की राजजात के दौरान नंदकेसरी की सड़क के गढ्ढों को पाटकर डामर का छिड़काव किया गया था. अब वह पूरी तरह गायब हो चुका है. तब आस्था के सैलाब की आड़ में नौटी से वाण गांव तक सड़कों की मरम्मत के नाम पर करोड़ों-अरबों की बंदरबांट हुई. इस बिहड़ इलाके के रहवासियों ने इस बात पर संतोष कर लिया कि चलो कुछ तो छींटे पड़े इस रोड में. बाकी किससे क्या कहें! कोई सुनने वाला तो है नहीं…

आस्था का लबादा ओढ़ सरकारी डाकू शरीफ़ों का वेश धरे माथे पर टीका और कंठ में मय डालकर देवी का जयकारा करते हुए विकास की मलाई खाते रहे. खैर! राज जात भी तो बारह साल में एक बार ही होती है. काश! नंदा माई, साल में दो-एक बार अपने मायके-ससुराल का चक्कर काटतीं तो ये भी अपना रिसोर्ट बनाकर उसमें आराम फरमाते. अब बारह साल बाद ही सड़क का फिर से उद्धार करने का सुअवसर मिल पाएगा.

नंदकेसरी मार्ग की हालत उम्मीदों के मुताबिक़ पतली दिखी. सांझ हो चली थी तो कई जगहों पर जंगली मुर्गियों का परिवार अपने आशियाने की ओर लौट रहा था. परिवार का मुखिया पूरी सतर्कता से अपनी रानियों-बच्चों की निगरानी करता हुआ उन्हें जल्द से जल्द झुरमुटों के बीच छुपा देना चाहता ​था. अंधेरे ने अपनी चादर पसारनी शुरू की तो गाड़ी की लाइटें जला दी गईं. देवाल बाजार तक पहुंचते-पहुंचते दुकानें बंद होनी शुरू हो गईं. गाड़ी रुकी तो दिनभर का भूखा जैक भोजन की तलाश में भाग खड़ा हुआ. उसका इंतजार कर ही रहे थे बागेश्वर में पुलिस में तैनात पंतजी मिल गए. मालूम पड़ा कि वह देवाल के रहने वाले हैं. अब तक मैं उन्हें गंगोलीहाट का समझता आया ​था. इस बीच बमुश्किल उन्हें छुट्टियां मिली तो वह घर के पुर्ननिमार्ण में खुद ही मजदूर बने हुए थे. पंतजी उनके घर पर ठहरने की मीठी जिद करने लगे. इस बीच जैक भी पेटपूजा कर के आ गया. खैर किसी तरह पंतजी से विदा लेकर हमने लोहाजंग की राह पकड़ी.

हाट कल्याणी गांव के नीचे से गुजरती सड़क मलबा आने से कई जगहों पर दलदली हो गई थी. पता चला कि कई सालों की मांग के बाद अब हाटकल्याणी को सड़क बन रही है. ठेकेदार स्थानीय है तो मनमर्जी वाले अंदाज़ में काम करवा रहा है. गढ्ढों से बचते-बचाते लोहाजंग की चढ़ाई में थे कि हरदा ने फिर से फोन पर पूछा कि हम कहां पहुंचे हैं. आठ बज चुके थे. लोहाजंग कोई चार किलोमीटर रह गया था. हरदा को बताया गया कि बस पहुंचने ही वाले हैं.

लोहाजंग में हरदा का बड़ा बेटा ‘देवू’ अगवानी में खड़ा मिला. आज की रात यहां जिला पंचायत के गेस्ट हाउस में गुजारनी थी. हरदा के साथ ही पुराने मित्र भंडारीजी भी मिले. एक कमरा हमें बताया गया तो उसी ओर लपक लिए. आंचल को तीन नई महिला मित्रों की कोठरी में भेजा गया. थोड़ी ही देर में आवाज आई कि खाने के लिए जल्दी करो, वरना होटल वाला अपनी दुकान बढ़ा लेगा. तुरत-फुरत ढाबेनुमा होटल में पहुंचे. रोटी-सब्जी-अचार-दाल सजी हुई थी. सभी थके-भूखे थे और थाली मिलते ही टूट पड़े. वापस कमरे में पहुंचे ही थे कि फिर से बाहर आने की आवाज़ लग गई. गोल घेरे में खड़े होने का निर्देश देकर एक शख्स ने अभिवादन सहित अपना परिचय दिया- मैं दिनेश कुनियाल हूं, लगभग बीस साल से ट्रैकिंग का काम कर रहा हूं. 108 बार रूपकुंड का ट्रैक कर चुका हूं. अब आप लोग भी अपना-अपना परिचय दें.
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एक-एक कर सभी अपने बारे में बताने लगे. हर कोई अपने क्षेत्र के उस्ताद थे. ट्रैकिंग के बारे में सबके अपने अनुभव थे. कुनियालजी ने ट्रैकिंग के नियम-कानूनों के बारे में बताया और पूछा कि कोई मय का शौक़ीन तो नहीं है, ताकि वह व्यवस्था भी की जाए. इस पर कुछेक हाथ उठे तो उन्होंने हंसते हुए आगाह किया कि इस शौक के साथ यात्रा करना चाहते हों तो उन्हें वापस लौटना होगा और उनके पास अपना ‘इंतज़ाम’ हो तो उसे यहीं छोड़ना होगा. ट्रैक पर पीना-पिलाना बिलकुल नहीं चलेगा.

बात हंसी-मजाक में टल गई. उन्होंने बताया कि मेरा बेटा प्रदीप अब आगे आपको लीड करेगा. तब पता चला कि लोहाजंग में ट्रैकिंग का काम करने वाले दिनेश कुनियाल का बेटा है प्रदीप उर्फ परू. उन्होंने ट्रैकिंग के बारे में अपने ढेर सारे अनुभव सुनाए और शुभकामनाएं दीं. सुबह नौ बजे दिदीना गांव के लिए ट्रैकिंग शुरू करने का समय मुकर्रर हुआ.

बाद में बातचीत में पता चला कि प्रदीप ने फिजिक्स में एम.एस.सी. की है और कुछ महीनों के लिए सीएम हेल्पलाइन में भी काम किया. लेकिन पहाड़ का प्रेम उसे वापस घर खींच लाया और फिर वह पिता के ट्रैकिंग क़ारोबार से जुड़ गया. पिता दिनेश कुनियाल पहले सूरत की एक डायमंड कंपनी में काम करते थे. घर का खर्चा बमुश्किल चल पाता था तो पिता ने नौकरी छोड़ ट्रैकिंग व्यवसाय को अपना लिया. इस बीच परू ने मनाली से माउंटेनियरिंग का बेसिक कोर्स और साथ में स्कीइंग का कोर्स किया. इसके बाद उन्होंने गो-एडमिन नाम से अपनी संस्था के जरिए खुद का काम शुरू किया.

आज उनके साथ दस लोग हैं जो  कुक, गाइड, ट्रेक लीडर, हेल्पर, पोर्टर के अलावा घोड़े-खच्चर का काम करते हैं. अब तक प्रदीप भी रूपकुंड, रांटी सेडल पास, ब्रहम ताल, कुंवारी पास, केदार कांठा, सतोपंथ समेत दर्जनों ट्रेक कर चुका है.

मीठी सी ठंड दस्तक देने लगी तो हम सभी अपने-अपने कमरों में चले गए. सुबह जल्दी उठे तो बाहर का नजारा बेहद चित्ताकर्षक था. सामने बांहे फैलाए नंदाघुंटी मानो बुला रही थी. नीले आसमान में चांद और सूरज की जुगलबंदी चल रही थी. नीचे पहाड़ की ढलान पर सीढ़ीनुमा खेत याद दिला रहे थे कि इन्हें तैयार करने के लिए किसानों को पहाड़ों के साथ कठिन संग्राम करना पड़ता है और शरीर से प्राण निकलने तक उसका यह संग्राम जारी रहता है.
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लोहाजंग का छोटा सा कस्बानुमा बाजार सुबह-सुबह जैसे अलसाया हुआ जग रहा था. कुछेक दुकानों के किवाड़ धीरे-धीरे अंगड़ाई लेते हुए खुल रहे थे. 1998 में जब मैं पहली बार यहां आया तो यहां बमुश्किल चार-पांच दुकानें थीं और आगे वाण गांव के लिए पैदल रास्ता था. अब वाण गांव तक पतली सर्पिलाकार मोटर रोड बन चुकी है. भले ही वह हर बरसात के बाद महीनों तक बंद ही रहती है. विकास की किरणें भी हिमालय के बीहड़ कन्दराओं में जैसे कहीं गुम हो जाती है.

शाम को बताया गया था कि सुबह नाश्ते के बाद नौ बजे लोहाजंग से दीदिना गांव के लिए ट्रैकिंग शुरू हो जाएगी, लेकिन पराठे बनाने वाला भी पूरी तन्मयता से पराठे बना रहा था. जैसे हर किसी को गर्मागर्म पराठे खिलाए बिना मानने को तैयार नहीं. प्लेट जितने पराठे के साथ अचार और दही से खाने वाले तृप्त होते तो कारीगर भी गर्व से भर उठता. दीदिना गांव से कूच करते-करते दस बज गए.

करीब 8100 फीट की उंचाई पर बसा दीदिना गांव, लोहाजंग से साढ़े आठ किलोमीटर की दूरी पर है. बीच में कुलिंग गांव पड़ता है. रकसैक कंधों पर डाल सड़क नापनी शुरू की. 2014 की राजजात यात्रा के वक्त लगा डामर सड़क से गायब था. किलोमीटर भर आगे सड़क के गड्ढों पर पड़े कंकड़ों पर डामर की कालिख पोटते मजदूर दिखाई दिए. मजदूर भी उस रसोइये की तरह होते हैं जो मेहनत तो पूरी करते हैं, लेकिन जब मालिक ही अच्छा राशन नहीं देगा तो उनके हुनर पर क्या अंगुली उठाना.

घंटे भर में हम कुलिंग गांव के पास थे. सड़क से नीचे कुलिंग गांव बसा हुआ है. अब गिने-चुने परिवार ही यहां रहते हैं, वह भी अपनी गाय-भैंसों की देखरेख के लिए. गांव के नीचे हो रहे भूस्खलन से कुलिंग और वेदना गांव वालों को अब दीदिना में बसा दिया गया है. सड़क किनारे गांव के रास्ते में बना खूबसूरत प्रवेश द्वार रास्ता टूटने से अब बंद कर दिया गया था. घोड़े-खच्चरों में ट्रैकिंग का सामान लादा जा रहा था. उनके मालिकों ने हमें बताया कि आगे मोड़ से नीचे कच्चे रास्ते से उतरते चले जाना है. नीचे ढलान में बेतरतीब पगडंडी को पार कर मुख्य रास्ते में पहुंचे तो लाल-पीली छटा बिखेरते चौलाई-फाफर के लहलहाते सीढ़ीदार खेतों को देखकर मन खुश हो गया.

खेतों को पार करने के बाद आगे चौड़ा रास्ता था. बरसात में यह रास्ता कई जगहों पर टूटकर नीचे बेदनी गंगा में समा गया था. नया रास्ता उसके ऊपर पहाड़ को काट कर बनाया था. अनगढ़ पत्थरों के खडंजे वाली घंटेभर की तीखी उतार के बाद हम बेदनी गंगा के किनारे पहुंच गए. सामने कल-कल बहती पतली सी कैल नदी के दोनों ओर साथियों का झुंड पसरे हुए दिखा. रकसैक किनारे रखकर बोतल में पानी भरा तो बर्फीली ठंडक से सिहरन सी दौड़ गई. यहां कैल नदी मानो वेदनी गंगा से मिलने को आतुर होकर दौड़ती सी प्रतीत होती है.

कुछेक पल के बाद सभी आगे बढ़ चले. वेदनी गंगा पर लोहे का पुराना मजबूत पुल बना है. प्रदीप ने बताया कि अंग्रेजों के जमाने में बने इस पुल की उम्र सौ वर्ष के आसपास है. अपने समय में अंग्रेजों ने पहाड़ों को खूब नापा. प्राकृतिक खजानों के अलावा उन्होंने कई रास्ते खोजे या बनाए और अब तक अनजान चीजों की विस्तृत पड़ताल भी की. बैरन और सर विलियम ट्रेल जैसे अंग्रेजों ने हिमालयी क्षेत्रों की वर्षों तक खाक छानी. इस मार्ग में वेदनी और औली बुग्याल की खोज भी अंग्रेजों की ही देन बताई जाती है. जाड़ों में वेदनी बुग्याल जब बर्फ से लदकद हो जाता था तो अंग्रेज इसकी ढलानों में स्कीइंग किया करते थे. वेदनी से आगे क्या है, यह जानने की उत्सुकता में वे अपने लाव-लश्कर के साथ रूपकुंड तक पहुंच गए. रूपकुंड झील में सैकड़ों नरकंकालों को देखकर वे भी विस्मित हुए, लेकिन इसके रहस्य पर कयास ही लगाते रह गए.

पुल पार तीखी चढ़ाई से होकर गुजरना था. रास्ते भर खच्चरों का आना-जाना लगा रहा. खच्चरों को उनके मालिक घोड़ा कहना ज्यादा पसंद करते हैं. मानो घोड़े की उपाधि मिलने से खच्चर खुश होकर ज्यादा बोझ उठाने को राजी हो जाता हो! यानी मालिक भी खुश और खच्चर रूपी घोड़ा भी खुश. इनका कारवां नीचे नदी से दीदिना गांव में नए बन रहे मकानों के लिए रेता ढोने में लगा था. दीदिना से नीचे नदी तक आने-जाने का करीब पांच किलोमीटर रास्ता, जिसके दो या तीन चक्कर ये रोजाना लगाते हैं. एक बार में रेत के दो कट्टे ढो लेते हैं. एक कट्टे का सौ रुपये भाड़ा तय है.
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दोपहर की धूप में तीखी चढ़ाई सभी का पसीना निकाल रही थी. कुछ पल पेड़ों में छांव में सुस्ताने के बाद हम फिर से आगे की राह नापने लग जाते. रास्ते में एक जगह सूखा धारा मिला, जिसका हाल में ही जीर्णोदार किया गया था लेकिन पानी का भी नामोनिशान वहां नहीं था. दीदिना गांव की सरहद दिखाई दी तो पांव में जैसे पंख लग गए. गांव के बीच नए-बने दिवान सिंह के होम स्टे में आज ठहरने की व्यवस्था की गई थी. लोहाजंग से यहां पहुंचने में साढ़े चार घंटे लग गए, जबकि यहां के बच्चों के लिए रोज लोहाजंग स्कूल जाना-आना मामूली बात है. ठिकाने में पहुंचते ही राजमा, चावल के साथ पापड़ परोसे गए. भोजन काफी मीठा लगा. बाहर हरी घास में कुछेक साथी धूप का आनंद लेते हुए पसर गए.

साथी भंडारीजी अपने विशाल कैमरे के साथ चिड़ियों की फोटोग्राफी में लग गए. उनका कैमरा, हॉलीवुड मूवी थोर व एवेंजर्स के सुपरहीरो थोर के हथौड़े जितना भरी-भरकम था. मूवी में हीरो ही उस हथौड़े को उठा सकता था और यहां भंडारीजी के साथ भी यह बात थी. पूरे ट्रैक में अपने हथौड़े रूपी कैमरे को लेकर वह थोर की तरह पेड़ों के झुरमुटों और बुग्यालो में विचरते रहे.

शाम चार बजे प्रदीप ने सभी को गांव घुमाने का प्रस्ताव रखा. वह हमें दीदिना गांव की पगडंडी से होते हुए गांव से ऊपर जाने वाले रास्ते में किलोमीटर भर आगे एक बड़े मैदान तक ले गया. यहां से गांव काफी सुंदर लग रहा था. ट्रेकिंग में कई सारे नियमों में एक नियम यह भी है कि दिन में ऊंचाई हासिल करो और रात को सोने के लिए नीचे आ जाओ, ताकि सभी ऊंचाई के अभ्यस्त हो जाएं. पर्वतारोहण कोर्स में सीखाए गए इस नियम को प्रदीप बखूबी अमल में लाते दिखा. ट्रैकिंग में उसके अनुशासित आचरण को देखकर अच्छा लगा.

दिदीना गांव में कुछेक मकानों को छोड़ नए मकान बन रहे थे. विस्थापन के कारण यहां बिजली भी जल्दी आ गई. कुलिंग गांव से लगभग 70-80 परिवार विस्थापन होकर अब यहीं बसने में जुटे थे. नए मकान पहाड़ी शैली में हैं, लेकिन उनकी दीवारें सीमेंट और रेत के ब्लाकों की हैं. कुछेक छतें पाथर की बनी दिखीं लेकिन ज्यादातर नए मकानों की पहली मंजिल कंक्रीट की थीं, जिसकी दूसरी मंजिल की ढलवां छत टिनों से पाटी गई थीं. ये लोग अपने पुस्तैनी ‘कुलिंग’ गांव में घरों के किवाड़ खोलने भी जाते रहते हैं. यहां दिदीना में नए बन रहे मकानों को होम स्टे का भी रूप दिया जा रहा है. ऐसा लगा जैसे इन्होंने ताउम्र प्रकृति की इस गोद में रहने की ठान ली है.

“चलिए..! वापस लौटते हैं…” पंकज की आवाज गूंजी तो मैं अपनी तन्द्रा से वापस लौट आया. प्रदीप का चचेरा भाई है पंकज. कॉलेज बंद हैं तो वह भी प्रदीप के साथ हाथ बंटा रहा है. भेड़ों के चरवाहे ‘अणवाल’ की तरह वह ट्रैकिंग में आने वाले मेहमानों को बड़ी जिम्मेदारी से हांकते हुए सुरक्षित ठिकाने तक ले जाता है. इधर सूरज ने भी अपनी दुकान समेटनी शुरू कर दी थी. पहाड़ के सीनों में चिपके घरौंदों में उजाला टिमटिमाने लगा था. पहाड़-आसमान एकाकार हो गया था.
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होम स्टे वाले ठिकाने पर पहुंचते ही गर्म सूप मिला. सूप पीते देखा कि दोमंजिला होम स्टे अंधेरे में डूबा है, सिर्फ नीचे रसोईनुमा एक कमरे में सोलर लालटेन जली थी. पता चला कि अभी इस घर में बिजली का कनेक्शन नहीं लगा है. बगल के घर से एक तार से बिजली आती है, लेकिन यह परिवार भी दो दिन पहले दरवाजे पर ताला डालकर रिश्तेदारी में गए हैं. प्रदीप ने सभी कमरों में काम चलाने के लिए सोलर वाला छोटा सा टार्च दे दिया था. उसका होना न होना सब बराबर था तो अपने टार्च निकाल लिए. ‘भोजन तैयार है’ की आवाज पर सब अपने-अपने बर्तन लेकर नीचे पहुंच गए. टेबल पर गर्मागर्म रोटियां, सब्जी, दाल, चावल, सलाद और खीर सजी हुई थी. भोजन के बाद प्रदीप ने बताया कि कल अगला पड़ाव अबिनखरक है. लगभग साढ़े दस किलोमीटर का उंचाई लिए हुए ट्रैक है.
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(जारी)

केशव भट्ट

बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

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