सुनने में बेशक बड़े आकर्षक व लुभावने लगते हैं उसूल. लेकिन जब अमल में लाने की बात होती है, तो ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं – ’’ एक आग का दरिया है, और डूब के जाना है’’. कमोवेश अगर कोई उसूलों पर चलने की सोचे भी तो जहां नफा-नुकशान की बात आती है, उसूलों पर पैबन्द लगाने से भी नहीं चूकता. कोई इन्सान यदि उसूलों पर ताउम्र प्रतिबद्ध रहे तो ऐसा व्यक्तित्व लोगों के लिए निश्चय ही प्रेरक बन जाता है. ऐसी ही प्रेरक व्यक्तित्व के धनी थे- प्रताप भैया.
(Remembering Pratap Bhaiya)
क्या राजनीति क्या समाज और क्या जातीय जिन्दगी की दिनचर्या, उसूलों से उनका चोली-दामन का साथ था. वर्तमान राजनीतिक दौर में जब उसूल अवसरों की तलाश में रंग बदलते देर नहीं करते,लेकिन प्रताप भैया ने अपने राजनीतिक जीवन में भी ताउम्र उसूलों से समझौता नहीं किया और अपने जीवनकाल के अन्तिम वर्षों में जब राजनीति की संकीर्ण सोच उन्हें रास नहीं आई तो दलगत राजनीति से स्वयं को शिक्षा व समाजसेवा की ओर मोड़ लिया.
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत करने वाले प्रताप भैया सदैव समाजवादी विचारधारा के झण्डाबरदार रहे . यह बात दीगर है कि 1977 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का जनता पार्टी में विलय होने पर अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का अनुसरण कर जनता पार्टी के सिपहसालार बन गये लेकिन स्वयं के हितों को साधने के लिए कभी दलबदल का सहारा नहीं लिया. बताते तो यह भी हैं कि जब देश में कांग्रेस का एक छत्र वर्चस्व था, तो उन्हें सत्ताधारी पार्टी द्वारा मंत्री पद का प्रलोभन देकर अपने पाले में लाने की पहल भी की गयी, लेकिन आचार्य नरेन्द्र देव के राजनैतिक मूल्यों की विरासत को संभालने वाले प्रताप भैया को यह कतई गवारा नहीं था. यहीं नहीं, वे तो अपने पार्टी हाईकमान के सामने भी टिकट के लिए घुटने टेकने वालों में नहीं थे.
1977 के उ.प्र. के विधानसभा चुनावों और 1989 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने नैनीताल सीट से दावेदारी के लिए नामांकन तक भरा, उनके पार्टी के कुछ स्थानीय कार्यकर्ताओं व शुभचिन्तकों ने उनसे निवेदन किया कि वे टिकट के लिए लखनऊ व दिल्ली जाकर पार्टी हाईकमान से टिकट की मांग करें, लेकिन उनका सपाट सा उत्तर रहता कि पार्टी को यदि उनकी जरूरत होगी तो स्वयं उनसे कहेगी. अन्ततः जो लोग लखनऊ व दिल्ली दरबार तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाये, उन्हीं को टिकट मिला. लेकिन उन्होंने पार्टी अनुशासन में रहते हुए दोनों ही बार पूरे मनोयोग से घोषित पार्टी उम्मीदवार के लिए प्रचार में दिन-रात एक किये.
1979 में अपनी चुनावी रैली के सिलसिले में जब पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह रूद्रपुर पधारे तो उन्होंने स्वयं प्रताप भैया को नैनीताल-बहेड़ी सीट से लोकसभा का पार्टी उम्मीदवार घोषित किया और प्रतिद्वन्दी उम्मीदवार तथा कभी राजनीति की शुरूआत एक ही बैनर तले करने वाले अपने बालसखा एन.डी.तिवारी से चुनाव हार गये. 1991 के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी हाईकमान के आगे गिड़गिड़ाने के बजाय स्वतंत्र उम्मीदवारी के साथ चुनाव में जनता का रूख जानना चाहा. लेकिन इस बार भी परिणाम उनके पक्ष में नहीं गया. ये थी उसूलों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता. जिसे हमारी सोच में उसूलों के प्रति अडिगता से उनको राजनैतिक खामियाजा मिलना कह सकते हैं, लेकिन उनके लिए यह अवसर खोने का पश्चाताप नहीं बल्कि उसूलों पर खरा उतरने का सुकून ज्यादा था.
(Remembering Pratap Bhaiya)
महज 25 वर्ष की उम्र में 1957 में उ.प्र. विधानसभा के लिए खटीमा विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का वाकया भी कम दिलचस्प नहीं हैं. तब खटीमा विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम बाहुल्य पीलीभीत जिले का जहानाबाद का क्षेत्र भी आता था. जहां से मुस्लिम प्रत्याशी मकसूद आलम उनके विरूद्ध चुनाव मैदान में थे. राजनीतिक जीवन की शुरूआती पारी में उनके पास संसाधनों का नितान्त अभाव था. ’वोट भी और नोट भी’ की तर्ज पर वे चन्दा एकत्र करते, स्वयं पब्लिक मीटिंग का रिक्शे में बैठकर पब्लिक मीटिंग का ऐलान करते-आज अमुक बजे अमुक स्थान पर प्रताप भैया की चुनावी सभा होगी, मीटिंग स्थल पर स्वयं दरी बिछाते और स्वयं भाषण देना शुरू करते. लोग हैरत में पड़ जाते कि स्वयं ऐलान करने व दरी बिछाने वाला युवक स्वयं एमएलए का उम्मीदवार है. जहांनाबाद क्षेत्र में जनता का रूख जानने के लिए रायशुमारी का अन्दाज भी उनका बेमिशाल था. मुस्लिम बस्तियों में एक आम नागरिक बन जनता से सवाल करते कि इस बार वोट किसको दे रहे हो ? जवाब मिलता -’’ हम तो उसी लाल टोपी वाले लड़के को वोट देंगे ’’ तो बिना अपना परिचय दिये सुकून की सांस लेते. उसूलों पर जीने की तालीम उन्हें विरासत में अपने पिता से मिली थी. उनके पिता स्व. आन सिंह कट्टर कांग्रेसी कार्यकर्ता थे, जब प्रताप भैया खटीमा से चुनाव लड़ रहे थे तो उनके पिता अपने पुत्र के ही प्रतिद्वन्दी कांग्रेस प्रत्याशी मकसूद आलम के चुनाव प्रचार में लगे थे. अपनी गैर जातीय और गैर साम्प्रदायिक सोच का ही परिणाम था, कि वे मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र से मुस्लिम उम्मीदवार को ही पराजित कर भारी बहुमत से विजयी हुए और उ.प्र. विधानसभा में सबसे कम उम्र के विधायक के रूप में उपस्थिति दर्ज करायी तथा पूरे पांच साल तक क्षेत्र प्रतिनिधित्व किया.
1967 में पुनः उ.प्र. विधानसभा के लिए चुने गये. उस समय किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने से चौ. चरण सिंह के नेतृत्व में संयुक्त विधायक दल की सरकार का गठन हुआ और सूबे में प्रथम बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. सोशलिस्ट पार्टी से प्रताप भैया को कैबिनेट मंत्री का दायित्व सौंपा गया तथा स्वास्थ्य, सहकारिता एवं आबकारी जैसे महत्वपूर्व विभाग सौंपे गये. प्रदेश के कैबिनेट मंत्री बनने के बाद नैनीताल नगर में प्रथम बार आगमन पर उनका जो भव्य स्वागत किया गया, बुजुर्ग बताते हैं कि नैनीताल में इस तरह का स्वागत समारोह पहली बार देखा गया.
नैनीताल नगर से लगभग 2 किमी दूर हनुमानगढ़ी तक महिलाओं ने मंगलथालों में दीपप्रज्जलित कर भव्य आरती व पुष्पवर्षा के साथ उनका स्वागत किया. अपने जीवनकाल में वे जब भी उस पल को याद करते तो भावुक हो जाते और जनता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने से नहीं चूकते.
मात्र 10 माह की संविद सरकार विघटित हो गयी और चन्द्रभानुगुप्त, चौ. चरण सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए. इन 10 माहों के अल्पकाल में प्रताप भैया ने सरकार में रहकर किये गये कार्यों की ऐसी छाप छोड़ी कि आज भी लोगों की जुबान पर है. नैनीताल में नर्सिंग ट्रेनिंग कालेज की स्थापना तथा ओखलकाण्डा में सरकारी अस्पताल सहित कई ऐसे कार्य हैं, जो उन्होंने अल्पकालिक सरकार में किये. नैनीताल में ’’ हिल रूरल मेडिकल कालेज’’ की स्थापना उनकी एक महत्वांकाक्षी सोच थी, जिसके लिए प्रस्ताव राज्य सरकार से स्वीकृत कराकर केन्द्र तक उन्होंने पहल की. उसी प्रस्ताव को लेकर जब वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गान्धी से मिलने उनके आवास पर गये तो उस समय का वाकया भी वे सुनाते थे. वे लाल टोपी पहनकर स्वागत कक्ष में बैठे श्रीमती गान्धी की प्रतीक्षा कर रहे थे. जब श्रीमती गान्धी ने कक्ष में प्रवेश किया तो उनसे पूछा – ’’ आप कौन हैं?’’ प्रताप भैया बताते थे कि मैंने अपना मंत्री पद का परिचय न देते हुए उत्तर दिया -’’ मैं देश का एक नागरिक हॅू ’’. इन्दिरा गान्धी तनिक मुस्कराई और फिर अपना उन्होंने अपना परिचय देते हुए ’’हिल रूरल मेडिकल कालेज’’ की योजना का प्रारूप उनके सम्मुख पेश किया. दुर्भाग्य से वह पत्रावली स्वीकृति के साथ लौटकर नहीं आई. मंत्री पद से हट जाने के बाद भी वे केन्द्र सरकार व राज्य सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित करते रहे, लेकिन दुर्भाग्य से वह स्वीकृत नहीं हो पाया.
(Remembering Pratap Bhaiya)
वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में राजनैतिक मूल्यों के गिरते स्तर पर वे अपने मंत्रित्व काल के कई रोचक प्रसंग सुनाते थे. एक बार स्वास्थ्य मंत्री की हैसियत से वे गोरखपुर दौरे पर थे. बताते थे कि कार्यक्रम की समाप्ति पर पार्टी के कुछ जिला स्तरीय पदाधिकारी उनकी गाड़ी में बैठने लगे तो उन्होंने विनम्र भाव से पार्टी पदाधिकारियों से कहा – ’’ क्षमा कीजिए यह किसी पार्टी विशेष की गाड़ी नहीं उ.प्र. सरकार की गाड़ी है, इस सरकारी गाड़ी में, मैं अपने पार्टी कार्यकर्ता को नहीं बिठा सकता. अगर मेरी ये अपनी प्राइवे मेरी ये अपनी प्राइवेट गाड़ी होती तो मुझे आपको बिठाने में खुशी होती’’. उनको इस कार्य से भले कार्यकर्ता को ठेस पहुंची हो लेकिन उन्होंने पार्टी व सरकार में घालमेल न कर स्वयं को आमजनता का प्रतिनिधि साबित कर दिखाया. प्रजातांत्रिक मूल्यों और उसूलों के प्रति यह उनकी प्रतिबद्धता की बानगी भर है.
स्वास्थ्य मंत्री के रूप में जब भी उनका दौरा होता तो अपने आगे-पीछे सरकारी अफसरों की फौज लेकर अपना रूतबा दिखाने के वे सख्त खिलाफ थे. कई बार तो सिविल सर्जन (तब मुख्य चिकित्साधिकारी का पद सिविल सर्जन कहलाता था) व अन्य अधिकारियों को उन्होंने यह कहकर अपने काम पर वापस लौटने की फटकार लगाई कि आप अस्पताल में जाकर मरीजों को देखें, जब आपकी जरूरत होगी तो आपको बुला लिया जायेगा. एक बार ऐसे ही किसी अस्पताल का निरीक्षण कर रहे थे. छोटे से छोटे कर्मचारी से हाथ मिलाना उनकी आदत में शुमार था. उन्होंने अस्पताल के वार्डब्वाय से प्रोटोकॉल को दरकिनार कर हाथ मिलाया तो वह बार-बार नीचे फर्श की ओर झांकने लगा.
प्रताप भैया को दाल में कुछ काला नजर आया, तुरन्त तहखाना खुलवाया गया तो वहां दवाओं का जखीरा बरामद हुआ जो कालाबाजारी के लिए छुपाया गया था. जब लखनऊ की सड़कों पर कड़ाके की ठण्ड पड़ रही होती तो कभी रिक्शे में बैठकर कंबल लपेटे ग्रामीण की वेशभूषा में मरीज बनकर अस्पतालों में जाते और अनियमितताओं का खुफिया तरीके से निरीक्षण करते. बताते हैं कि उस समय अस्पताल के अधिकारियों व कर्मचारियों में एक दहशत का माहौल था कि स्वास्थ्य मंत्री न जाने कब और किस वेश में अस्पताल में धमक जायें.
(Remembering Pratap Bhaiya)
मंत्रित्व काल में उन्होंने पहाड़ के अन्तरस्थ एवं दूरस्थ क्षेत्रों का पैदल भ्रमण किया, परिणाम स्वरूप जिन जिला स्तरीय अधिकारियों की चरणरज इन पिछड़े क्षेत्रों तक अभी नहीं पड़ी थी, मंत्री जी के दौरे के कारण कई कई मील की पैदल यात्रा करने को अधिकारी मजबूर थे. चैगढ़ क्षेत्र की इसी तरह की एक पैदल दौरे का वे प्रायः उल्लेख करते थे, जब पतलोट से आगे अमझड़-मीडार में खानेदिन के खाने की व्यवस्था न होने पर जिलाधिकारी व अन्य अधिकारियों ने मिलकर खिचड़ी बनाई. जिन अधिकारियों ने कभी घर पर खाना न बनाया हो, वही अधिकारी खिचड़ी बनाते व करछी चलाते दिखवाना प्रताप भैया जैसे स्वच्छ छवि के राजनेता का ही जादुई करिश्मा था. किसी भी उच्चाधिकारी को जमीन से जोड़ने का अद्भुत कौशल था उनमें.
उ.प्र. योजना आयोग के सदस्य के तौर पर भी उन्होंने तत्कालीन कमिश्नर कुमाऊॅ डॉ. आर.एस. टोलिया के साथ सीमान्त क्षेत्रों का पैदल भ्रमण कर वहां की समस्याओं व सुझावों से शासन-प्रशासन का ध्यान आकृष्ट किया तथा भ्रमण से प्राप्त अनुभवों के आधार पर ’’ योजना के दावेदार’’ तथा ’’योजना के हकदार’’पुस्तक के रूप में रिपोर्ट तैयार की. समस्याओं के अध्ययन के लिए उन्होंने एक प्रश्नावली तैयार की थी, जिसमें लगभग 50 बिन्दुओं पर ग्रामीणों से जानकारी लेते. ग्रामीणों से उनके गांव की प्रसिद्ध चीज, गांव की बुनियादी सुविधाओं की जानकारी, अब तक गांव में किन किन अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों ने दौरा किया तथा अन्त में क्षेत्र के विकास के लिए ग्रामीणों से सुझाव मांगे जाते. इस प्रश्नावली को गांव के जागरूक नागरिकों से भरवाकर अध्ययन हेतु अपने पास रख लेते. फिर उन समस्याओं व सुझावों को शासन व प्रशासन को अपनी आख्या के साथ भेजा जाता.
1977 में उन्होंने राष्ट्रीय लोक सदन नाम से एक गैरराजनैतिक संगठन की शुरूआत की. जिसका आम जनता तथा शासन एवं प्रशासन के बीच एक सेतु तैयार करना था. लोकसदन की हर तीसरे माह के प्रथम रविवार को बैठकें होती, जिसमें आम जनता को अपने अपने क्षेत्र की समस्याओं के साथ आने को आमंत्रित किया जाता और विभिन्न विभागों के अधिकािरयों को जनता की समस्या सुनने को. आम जनता का विभागीय अधिकारियों के साथ सीधे संवाद की यह अनूठी पहल थी. जहां विभागीय अधिकारियों की उपस्थिति में कई समस्याओं का तो तात्कालिक स्थलीय समाधान हो जाया करता और जनता को छोटी छोटी मांगों के लिए आन्दोलित नहीं होना पड़ता.
(Remembering Pratap Bhaiya)
हिमालयी राज्यों के विकास की प्राथमिकताऐं भिन्न होने के कारण पर्वतीय क्षेत्र लिए पृथक योजना निर्माण की बात वे दमदार तरीके से उठाते. उनका मानना था कि पर्वतीय क्षेत्र के लिए योजना आयोग में एक पृथक प्रकोष्ठ हो, जिसे योजनाओं के प्रारूप तैयार करने व उन्हें कार्यान्वित करने के लिए पर्याप्त वित्तीय अधिकार हों. अपने स्तर से भी उन्होंने गैरराजनैतिक संगठन के रूप में जन नियोजन आयोग नाम से संस्था का गठन किया, जिसके माध्यम से वे समय समय पर शासन व प्रशासन को सुझावों से अवगत कराते रहते थे. अपने विधायक के कार्यकाल में उन्होंने हिमालयी राज्यों के विधायकों को संगठित करने का भी प्रयास किया, ताकि लगभग समान सी जरूरतों के अनुसार चिन्तन व मनन किया जा सके. यह सुखद संयोग था कि उन्हीं के मंत्रित्व काल में गढ़वाल व कुमाऊॅ के विकास के लिए उ.प्र. पर्वतीय विकास परिषद् का गठन हुआ, जिसके प्रथम उपाध्यक्ष होने का सौभाग्य उन्हें मिला, जब कि मुख्यमंत्री इसके अध्यक्ष हुआ करते थे. बाद में पर्वतीय विकास परिषद् के स्थान पर पर्वतीय विकास मंत्रालय बना. लेकिन यह भी दुर्भाग्य रहा कि सरकार में रहने का उन्हें बहुत अल्पकाल के लिए अवसर मिला और कांग्रेस द्वारा संविद सरकार से समर्थन वापसी के फलस्वरूप सरकार गिर गयी.
गलत को गलत कहने की उनकी साफगोई कभी कभी पार्टी अनुशासन के लिए भी चुनौती बन जाती, लेकिन दिन को रात और रात को दिन कहने की चापलूसी उन्हें कतई वरदाश्त नहीं थी. उनकी इसी साफगोई का परिणाम था कि मंत्री पद से हटने के बाद भी विरोधी दलों तथा अधिकारियों का सम्मान सदैव उनके प्रति बना रहा. विरोधी दलों के नेताओं से भले उनका राजनैतिक मतभेद रहा हो, लेकिन व्यक्तिगत् संबंध काफी मधुर थे.
नैनीताल कलक्ट्रेट कार्यालय में जहां वे वकालत कार्य के लिए बैठते थे, उसका नाम उन्होंने स्वयं विक्रमादित्य मंच दिया था. कई स्कूलों के संस्थापक प्रबन्धक तथा शासन व प्रशासन तक उनकी पहुंच के कारण कई बेरोजगार, रोजगार की आश लिये उनके पास आते. प्रताप भैया उन्हें पांच बिन्दुओं की प्रश्नावली थमाते. ये पांच बिन्दु होते – आपका नाम, पता व पारिवारिक परिवेश, आपके प्रेरक व्यक्तित्व, आप शिक्षक क्यों बनना चाहते हैं और अन्त में विस्तार से ’मेरी कहानी मेरी जुवानी’ लिखवाते. इस अनूठे साक्षात्कार में अभ्यर्थी का आन्तरिक व बाह्य परिवेश उभरकर आ जाता. फिर जगह होने पर उसे अमुक विद्यालय में जाकर प्रधानाचार्य से सम्पर्क करने को कहते और यदि कहीं भी जगह रिक्त न हो, तो उससे कहते कि यदि उनके गांव में स्कूल के लिए एक कमरा और पढ़ने वाले बच्चे हों तो तुम्हें वहाॅ शिक्षक नियुक्त कर विद्यालय की शुरूआत कर देंगे अन्यथा उसे निराश नहीं करते बल्कि अपने कोर्ट कार्यालय में बुला लेते. दिन भर उनसे पत्र लिखवाते, जो अधिकाशं उनकी गोष्ठियों के आमंत्रण के होते और घर जाते वक्त उसका जेब खर्च अपने पास से उसे देते.
(Remembering Pratap Bhaiya)
उसूलों की जिन्दगी उनकी केवल सार्वजनिक जीवन के लिए ही नहीं थी बल्कि जातीय आचार-व्यवहार में भी उनके अपने सिद्धान्त थे. समय की कठोर पावन्दी तो थी ही, कोर्ट कार्यालय में प्रातः 10 बजे उपस्थित होना और सायं 5 बजे कोर्ट कार्यालय छोड़ना, भले कोर्ट में कोई मुवक्किल न हो, कितनी भी ठण्ड हो, आग के पास वे कभी नहीं बैठते, कभी उनको किसी ने अपनी परेशानी बयां करते नहीं सुना, तपते बुखार में काम करते रहते और कहते कि मुझे अपनी बीमारी बताने की फुर्सत ही कहाॅ है ? कभी हल्की चोट लगने पर अन्य लोगों को तो छोड़िये वे परिवार के लोगों तक भी अपनी तकलीफ को नहीं बताते बल्कि स्वयं तक ही सीमित रखते. उन्होंने कई खुद के उसूल गढ़े थे यथा – उम्र में बड़ा तो बड़ा (यानि इन्सान को ओहदे से नहीं उम्र को सम्मान दो), काम का बंटवारा इन्सान बराबर, इन्सान को उसके कपड़े के भीतर पहचानो, फटी धोती व फटी कमीज वाले का काम प्राथमिकता से करो, ये मानकर चलो कि मौत हमसे बालिस्त भर दूर है, यदि ऐसा सोचोगे तो कभी गलत काम नहीं करोगे, वशीर बद्र का यह शेर वे अक्सर गुनगुनाते- ’’ उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाये. ’’
एक छोटे आलेख में प्रताप भैया के विराट व्यक्तित्व को समेटना संभव नहीं, उनके व्यक्तित्व के विविध पक्षों पर अनेकों पुस्तकें लिखी जा सकती हैं. पिछले वर्षों में उनके व्यक्तित्व पर एक शोध प्रबन्ध डॉ. आशा खाती द्वारा पूर्ण किया गया है. काश! उनके सामाजिक व शैक्षिक दर्शन, समय की पाबन्दी, आत्मानुशासन तथा लोकाचार की उनकी संस्कृति को स्कूली बच्चों तथा कालेजों के पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाता तो आने वाली पीढ़ी को एक नई दिशा मिलती. बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रताप भैया का क्षेत्र राजनीति तक सीमित नहीं था, बल्कि शिक्षा प्रसार के क्षेत्र मंे उन्हें उत्तराखण्ड के मालवीय की संज्ञा दी गयी. नैनीताल स्थित भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय के अतिरिक्त प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों तक दर्जनों संस्थाओं के संस्थापक रहे जो आज भी फल-फूल रहे हैं. शिक्षा प्रसार का ऐसा जुनून था उनमें कि जहां भी स्कूलों की आवश्यकता महसूस की वहां एक किराये का एक कमरा और एक स्थानीय युवा की शिक्षक के रूप में तलाश की और अगली सुबह से कक्षायें चालू. लेकिन शिक्षा को उन्होंने कभी रोजगार से जोड़ने का साधन नहीं माना बल्कि इसे विशुद्ध रूप से व्यक्तित्व के विकास तथा सामाजिक परिवर्तन जरिया माना.
(Remembering Pratap Bhaiya)
– भुवन चन्द्र पन्त
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
लछुली की ईजा – भुवन चन्द्र पन्त की कहानी
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